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कबीर के दोहे

कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढे बन मांहि
ऐसे घट घट राम हैं,
दुनिया देखे नाहिं

शब्दार्थ - कैसी विडम्बना है कि कस्तूरी तो कस्तूरी मृग की नाभि में महकती है लेकिन वह उस गंध को ढूंढता हुआ जंगल में भटकता है ऐसे ही प्रभु का तो हर एक के हृदय में निवास है, किन्तु कोई उसे देख नहीं पाता

व्याख्या - कबीर दास जी कस्तूरी मृग की अज्ञानता का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार अपनी ही नाभि में बसी गंध से अनजान हिरण वन वन उसी गंध को ढूंढता भटकता है वैसे ही अज्ञानी व मोह में फंसा मनुष्य अपने हृदय को छोड क़र समस्त संसार में ईश्वर को खोजता है, जैसे मंदिरों में, मस्जिदों में या अन्य पूजा ग्रहों में और कहीं नहीं तो वह ढोंगी साधुओं - सन्यासियों और धर्मगुरुओं के आश्रय में चला जाता है
हृदयस्थ ईश्वर को वही व्यक्ति खोज सकता है, जिसने मोह व अहं को तज दिया हो,
पांचों इन्द्रियों को वश में कर लिया हो
ईश्वर को ब्रह्म रूप में सुगंध की तरह समानता से सर्वत्र व्याप्त है, न कहीं कम न कहीं अधिक जो ईश्वर को अपने मन में महसूस कर सकें वह उनके पास है जो न महसूस कर सकें वह उनसे उनकी ही अज्ञानता के कारण दूर है

राजेन्द्र कृष्ण

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