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सबदन मारि जगाये रे
फकीरवा
कबीर की कविता में ऐसा क्या है जो हमें छ सौ वर्ष बाद भी
आमन्त्रित करता है। कबीर की कविता हमें अपनी ओर खींचती है। कबीर के पास
पहुँच कर हमें सुकून मिलता है। प्रेमचन्द की कफन कहानी के घीसू-माधो जब
चरम उत्सव और उल्लास में होते हैं, ठीक उसी समय उन्हें अभाव की, दैन्य की
काली छाया ग्रस लेती हैं। तब वे कबीर की शरण में जाते हैं, ‘ठगिनी क्यों
नैना झमकावै’। कबीर से उन्हें ताकत मिलती है। ऐसी ताकत कि वे निहंगता और
दयनीयता के बावजूद माया को ललकारने लगते हैं। घीसू माधो को हम इसलिए जान
पाये कि प्रेमचन्द ने उनसे हमारा परिचय करा दिया। पर घीसू माधो जैसे
हजारों हजार निहंग और असहाय लोग हैं, जिन्हें कबीर की कविता ताकत देती
है, सहारा देती है। कबीर की कविता केवल माया के मारे हुओं को नहीं, माया
से ऊबे हुए लोगों को भी संबल देती है।
गोरखपुर शहर में मेरी पढ़ाई लिखाई लिखाई हुई है। वह मगहर के पास है। मैंने
आसपास के इलाकों से गोरखपुर शहर आने जाने वाले मजदूरों को, कर्मचारियों
को देखा है। वे रोज सुबह ट्रेन से गोरखपुर आते हैं। शाम को लौट जाते हैं।
इनमें झुन्ड के झुन्ड ऐसे मिल जायेंगे जो आते-जाते कबीर का भजन गा रहे
हैं। कबीर का भजन गाते हुए उनका रास्ता कट जाता है। आखिर उनका यह जीवन भी
तो एक रास्ता ही है, जो कबीर बानी के सहारे कटता रहता है।
मैं जिस शहर में रहता हूँ- बनारस, वह कबीर की जन्मभूमि भी है कर्मभूमि
भी। बनारस में लहरतारा है, जिसके आसपास कबीर पाये गए थे। कबीर का पालन
पोषण हुआ था। बनारस में कबीर चैरा है, जहाँ वे रहे। कबीर के जन्म दिन पर
मेला लगता है। लाखों की भीड़ जुटती है, जो कबीर की बानी पढ़ती है, सुनती है
और गुनती है। लहरतारा तालाब के निकट खुले मैदान में छोटे-छोटे समूह में
लोग बैठे हुए हैं। एक कोई बीजक बाच रहा है। अर्थ बता रहा है और बाकी लोग
सुन रहे हैं। कबीर की जिन उलटवासियों पर हम विश्वविद्यालयों में
पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग सिर पटकते रहते हैं और समझ में नहीं आतीं-वे ही
उलटवासियाँ, वही बीजक इस जनता को बखूबी समझ में आ रहा है। वे उसकी चर्चा
में मगन हैं। रामचन्द्र शुक्ल हमें बताते हैं कि कबीर की बानी कुछ अनपढ़
लोगों तक ही पहुँचती है। विचार करना चाहिए कि ऐसा क्या है कबीर की कविता
में जो अनपढ़ लोगों तक तो पहुँच जाती है। अपने आप! अनायास। लेकिन पढ़े
लिखों तक नहीं पहुँच पाती। कबीर की कविता में दोष है या हमारे पढ़ने लिखने
की विधि में। कहीं ऐसा तो नहीं कि पढे लिखे होने के गुमान में हम कविता
के बगल से निकल जाते हैं। हमें इस पर भी विचार करना चाहिए।
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर के भाषा विभाग में 24 अक्टूबर
2013 को दिए व्याख्यान का सम्पादित रूप
कबीर की कविता ऐसी है जिस तक पहुँचने के लिए हमें निहत्थे जाना होगा।
निहत्थे जाने का हमारा अभ्यास नहीं है। हमने जो बहुत सारे हथियार इकट्ठा
किये हैं आलोचनात्मक पंडिताऊ उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता। कविता के
पास हम आनन्द के लिए नहीं जाते। नासेह बनकर जाते हैं। यही मुश्किल है।
कविता को जाँचने परखने की जो विधियाँ हमने सीख रखी हैं, उन विधियों को
परे रखकर जाना होगा। स्वयं कबीर ने भी इसका संकेत दिया है-
कबिरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं
सीस उतारे भुइं धरे तब पइसे घर माँहि।।
यह प्रेम का घर है। पाण्डित्य के अहंकार को घर के बाहर छोड़ना पड़ेगा।
हमारी मुश्किल है कि पाण्डित्य को छोड़ना नहीं चाहते। इस या उस पाण्डित्य
के चक्कर में रहते ही है। वेद वाला पाण्डित्य छोड़ते हैं तो लोक वाले
पाण्डित्य को पकड़ लेते हैं। वाइजगीरी की ऐसी लत लगी हुई है कि उसके बगैर
काम ही नहीं चलता। कबीर तो कह रहे हैं कि न लोक के चक्कर में पड़ो न वेद
के-
पाछे लागा जाइ था लोक वेद के साथ।
पैड़े में सतगुरु मिला दीपक दीन्हा हाथ।।
लोक और वेद के पीछे भागने से काम नहीं चलेगा। अपने हाथ में दिया बारना
होगा। यहाँ कबीर न तो लोक की भत्र्सना कर रहे हैं वे न ही वेद की पीछे
लागने की आलोचना कर रहे हैं। पिछलग्गूपन की आलोचना कर रहे हैं। हमारी
शिक्षा ने, हमारे पाण्डित्य ने, हमारे ज्ञान ने, हमारे अहंकार ने हमें
पिछलग्गू बना दिया है। हमारी स्वतन्त्र और उन्मुक्त दृष्टि ही नहीं रह
गयी है। कबीर की चिन्ता यही है। यह चिन्ता वैयक्तिक भी है और सामाजिक भी।
ऐसा कोई ना मिला जासो रहिए लागि
सब जग जरता देखिया अपनी-अपनी आगि।।
सारा संसार अपनी-अपनी आग में जल रहा है। इसे कबीर देख रहे हैं, महसूस कर
रहे हैं। पर जग नहीं देख पा रहा है। इन्हीं बंधनों से जग बँधा हुआ है।
सुखिया सब संसार है, खाये औ सोये
दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे।
संसार इसलिए सुखी है कि उसे बोध ही नहीं है अपने बंधनों का, वह जहाँ जाता
है वहीं छला जाता है। चारों तरफ छल बादल हैं-पानी की उम्मीद में जाते हैं
तो आग बरसने लगती है-
ओनई आई बादरी बरसन लगा अंगार
उट्ठि कबीरा धाह दे दाझत हैं संसार।।
बादलों से अंगार बरस रहा है। जिसमें संसार जलने लगा है। पर उसे जलने का
आभास ही नहीं है। लेकिन कबीर को पता है। इसलिए कबीर बेचैन हैं। कैसे इस
आग से लोगों को बचाया जाय। कैसे इस ताप से लोगों को बचाया जाय। कबीर आग
को बुझाने की बात नहीं कर रहे हैं। आग से लोगों को बचाने की बात कर रहे
हैं। क्यों?
क्योंकि अबोध बच्चा है। बरजने से भी नहीं मानता। आग उसे आकृष्ट कर रही
है। अपनी ओर खींच रही है। घर के लोग डरे हैं, परेशान हैं। कबीर की
परेशानी, कबीर का डर इसी तरह का है। लोगों को समझ आ जाय कि पढ़ गुन कर
जहाँ पहुँचे हुए हो, पाण्डित्य की गठरी लिए जहाँ खड़े हो, वहाँ तुम जल रह
हो। आग लगी हुई है। इस आग से बचो।
इस चैतरफा आग से, इस दाह से मुक्ति के लिए कबीर क्या उपाय खोजते हैं ? वे
किस पर भरोसा करते हैं। उन्हें किसी पर्वत पर भरोसा नहीं है। परबत- परबत
घूम आये हैं कबीर। वहाँ कोई बूटी नहीं मिली। वहाँ कोई उपाय नहीं मिला।
कोई साधना, कोई सिद्ध नहीं मिला, जिसके पास उपाय हो। कोई बना बनाया पथ
नहीं है। इस विकट बेला में कबीर शब्द की सामथ्र्य पर भरोसा करते हैं।
कबीर का एक पद है-
तोहि मोहि लगन लगाये रे फकीरवा।
सोवत ही मैं अपने मदिर में सबदन मारि जगाये रे फकीरवा।।
बूड़त ही भव के सागर में बहियां पकरि समझाय रे फकीरवा।।
एके वचन वचन नहि दूजा तुम मोसे बन्द छुड़ाये रे फकीरवा।।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, प्रानन प्रान लगाये रे फकीरवा।।
ऐ फकीर ! तुमने मेरे भीतर लगन लगा दिया। मैं अपने घर में सोई हुई थी।
तुमने शब्दों की मार से मुझे जगा दिया है। मैं तो भवसागर में डूब रही थी,
तुमने बाॅह पकड़ कर मुझे बचा लिया। एक ही वचन से एक ही शब्द से तुमने मेरे
बन्धन छुड़ा दिये। फकीर तुमने मेरे प्राणों को प्राणवान बना दिया।
इस पूरे पद की मुख्य बात है- मैं अपने घर में सो रही थी, भवसागर में डूब
रही थी, तुमने शब्दों से मारकर जगा दिया ? मुक्ति का उपाय शब्द है।
यथास्थिति के मोहपाश में बँधे हुए को मुक्त कराने के लिए और कोई हथियार काम
नहीं करेगा। शब्द से ही माया मोह नाना जंजाल मिथ्याचार के बंधन को काटा
जा सकता है। शब्द की इस सामथ्र्य पर कबीर को पूरा भरोसा है। वे इस बात को
बार-बार कहते हैं-
सत गुरु सांचा सूरिबा सबद जु बाहा एक।
लागत ही भुईं मिलि गया, परा करेजे छेंक।।
सतगुरू ने शब्द के बाण से मारा। लगते ही मैं धराशायी हो गया। और मेरा
कलेजा बिंध गया। गालिब याद आते हैं-
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।।
तीर कलेजे में आकर धँस गया है, फॅस गया है और टभक रहा है। बिल्कुल यही
बात कबीर कह रहे हैं- ‘परा करेजे छेंक’। कलेजे को भेदते हुए तीर पार कर
जाता तो रात दिन की टभकन नहीं होती। यह निरन्तर टभक रहा है। यह अब सोने
नहीं देगा। गाफिल नहीं होने देगा।
यह सारा अनुभव संवेदन एक तरह से व्यक्तित्वान्तरित करने वाला है। कुछ
शब्द होते हैं, कुछ कृतियाँ होती हैं, कुछ लोग होते हैं जो मिलते हैं और
आपको आमूल बदल कर रख देते हैं। जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता
है-शब्द की मार से होने वाले जागरण का अर्थ पूरी तरह बदल जाने से है।
शब्द ही वह पारस पत्थर है, जो लोहे को सोना बना सकता है। मनुष्य को
मनुष्य बनाता है। मनुष्यता की जिस भूमि पर कबीर ले जाना चाहते हैं, वहाँ
जाने का उपाय शब्द ही है। कबीर के लिए शब्द ही प्रज्ञा है और शब्द ही
उपाय है। कवि की दुनिया शब्दों पर ही टिकी होती है। कवि का पहला और
अन्तिम आसरा शब्द ही होता है। कबीर न केवल शब्द पर भरोसा करते हैं बल्कि
हमें भी शब्दों पर भरोसा करना सिखाते हैं। थोड़ा इस सबद साधना पर विचार
करें। कवि जब कोई शब्द उठाता है, किसी शब्द से काम लेता है तो उसे नये
अर्थ से भर देता है। यह अर्थ जीवन से आता है। जीवन के साथ कवि की
संलग्नता से आता है। कबीर के शब्दों की गगरी में अर्थ का पानी जीवन से
आता है। कबीर की कविताओं में गहन जीवन राग है।
कबीर की काव्य साधना का उद्देश्य यही जीवन है। यही लोक है। कबीर की
बेचैनी किसी बैकुण्ठ के लिए नहीं है। जैसे गालिब को जन्नत की हकीकत मालूम
है, बिल्कुल उसी तरह कबीर को बैकुण्ठ की असलियत मालूम है। सब लोग बैकुण्ठ
जाने की बात करते हैं। लेकिन बैकुण्ठ कहाँ है यह नहीं जानते। अगले एक
योजन की तो खबर ही नहीं हैं। बैकुण्ठ की बात करते हैं। हाके जा रहे हैं-
बैकुण्ठ ऐसा है वैसा है। लेकिन कबीर कहते हैं जिस बैकुण्ठ को मैं देख
नहीं सकता, जिसमें उठ बैठ नहीं सकता उस पर विश्वास नहीं कर सकता। कबीर
यहीं नहीं रुकते। वे आगे बढ़ कर यह भी बता देते हैं कि अगर कहीं बैकुण्ठ
है तो वह सत्संगति में ही है।1 यह सत्संगति भी गालिब के बज़्म की तरह है।
मुद्दत हुई है याद को मेहमां किए हुए, जोशे कदह से बज़्म ए चिरागा किए
हुए। फैज ने गालिब की इस प्रसिद्ध गजल की व्याख्या करते हुए बताया है कि
इसमें यार से नहीं मिल पाने का दर्द नहीं है। यहाँ बज़्म के उजड़ जाने का
दर्द है। हमनवा लोगों के बीच होना ही स्वर्गीय एहसास है। कबीर की
सत्संगति भी इसी तरह का एहसास है। समान विचार के लोगों के बीच होना ही
बैकुण्ठ है। ऐसा बैकुण्ठ है जिसे जीते जी अनुभव किया जा सकता है, पाया जा
सकता है। इसलिए कबीर अपने साधो से जीवत ही आशा करने की बात करते हैं।
मुक्ति का अर्थ इस जीवन में ही है।
साधो भाई जीवत ही करो आसा।
जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा।
जीवत करम की फाँस न काटी मुए मुक्ति की आसा।
कबीर इस बात को कई तरह से कहते हैं। कबीर जबरर्दस्त कम्यूनिकेटर हैं। इस
जीवन सत्य को अनुभव संवेदन को पहुँचाना आसान नहीं है। इसकी कठिनाई से
कबीर वाकिफ हैं। कबीरदास इस विलक्षण अनुभव संवेदन को लोगों तक पहुँचाते
हैं-
विरहिन उठि उठि भुईं परै, दरसन कारन राम।
मुए दरसन देहुगे, सो आवे कवने काम।।
xx
मुए पीछे मति मिलौ, कहै कबीरा राम।
लोहा माटी मिलि गया, तब पारस कौने काम।।
राम के दर्शन के लिए विरहिणी तड़प रही है। उसे जीते जी दर्शन चाहिए। मरने
के बाद दर्शन का क्या काम। भोजपुरी इलाके में एक मुहाबिरा चलता है। मुअले
प बैद अइलें, मुँह लेके घरे गइलैं। मरीज के जीते जी वैद्य आये तो कुछ कर
सकता है। मरने के बाद वह आकर क्या करेगा। भले ही वह वैद्य स्वयं राम ही
क्यों न हों। मरने के बाद मिलने का आश्वासन व्यर्थ है। लोहा जब तक लोहा
है, तभी तक कोई पारस उसे सोना बना सकता है। मिट्टी में मिल जाने के बाद
पारस किसी काम का नहीं है। जीते जी मिलें तभी राम का मतलब है। मरने के
बाद राम भी किसी काम के नहीं रह जायेंगे।
एक बार फिर गालिब याद आ रहे हैं- ‘मुनहसिर मरने पे हो जिसकी उम्मीद/ना
उम्मीदी उसकी देखा चाहिए।’ मरने के बाद की उम्मीद दिलाना नाउम्मीदी की
इन्तहा है। प्रियतम जीते जी आए-
मुंद गयी खोलते ही खोलते आखें, गालिब।
यार लाये मेरी बालीं प उसे, पर किस वक्त।
कैसा प्रियतम है और कैसे यार हैं जो इतना भी नहीं समझ पाते कि जीवन ही
सबकुछ है। कबीर की तड़प और बेचैनी इसी जीवन के लिए है। बिल्कुल गालिब की
तरह। इस जीवन की बेहतरी के लिए। कबीर की कविता, कबीर की साधना सबका
उद्देश्य इसी जीवन को बेहतर बनाना है। कबीर की बेहतरी का पैमाना आधुनिक
तकनीकी विकास, या जी डी पी की तरह का नहीं है। वे उन्नत मनुष्य की रचना
करना चाहते हैं। ऐसे मनुष्य की रचना जिससे लग कर रहा जा सके, जो ईष्र्या
के, द्वेष के, अहंकार के, स्वार्थ के आग में न जल रहा हो- कबीर ऐसे की
तलाश में हैं। जीवन में कबीर की आस्था का या ललक का स्रोत दरअस्ल जीवन की
नश्वरता के बोध में हैं, पानी केरा बुदबुदा ‘अस मानुस की जाति/देखत ही
छिप जायेगा जस तारा परभाति।’ नश्वरता का बोध कबीर को बीतराग नहीं करता।
बल्कि जीवन के लिए गहरा राग भर देता है। वे नश्वरता या क्षण भंगुरता का
बयान इसलिए करते हैं कि जब तक यह जीवन है उसे अच्छी तरह जिया जाये। भरपूर
जिया जाये। सार्थक ढंग से जिया जाये।
सोच समझ अभिमानी चादर भई है पुरानी।
टुकड़े टुकड़े जोरि जतन सो, सीके अंग लिपटानी
कर डारी मैली पापन से , लोभ मोह में सानी।
ना यह लागी ज्ञान को साबुन ना धोई भल पानी।
सारी उमर ओढते बीती भली बुरी नहिं जानी
संका मानि जानि जिय अपने, यह है चीज बिरानी
कहत कबीर धरि राखु जतन से, फेर हाथ नहिं आनी।
जीवन की चादर मैली हो गयी है, पुरानी हो गयी है। लोभ और मोह से मैली हुई
है। इसे ज्ञान के साबुन और शुद्ध पानी से धोया नहीं। सारी उम्र ओढते रहे
हो पर असलियत नहीं जानते। अपने मन में शंका करो। यह जान लो कि यह दूसरे
की चीज है। इसे जतन से रखो। यह चादर फिर हाथ नहीं आने वाली। यह पूरा पद
इसी अन्तिम वाक्य के लिए उद्धृत किया गया है- ‘फेर हाथ नहीं आनी।’ जीवन
इसलिए अमूल्य है कि दोबारा नहीं मिलने वाला।
निकोलाई चेर्नीसेवस्की का उपन्यास है- How the Steel was Tempered । अमृत
राय ने इसका अनुवाद अग्नि दीक्षा नाम से किया है। उपन्यास का नायक पावेल
कोर्चागिन कहता है- हमें जो सबसे बहुमूल्य और खूबसूरत चीज मिली हुई है वह
है हमारा जीवन। एक छोटी सी दुर्घटना भी इस जीवन को छोटा या समाप्त कर
सकती है। इसलिए जीवन ऐसा जिये की अन्तिम समय जब भी आये- हमें किसी बात का
अफसोस न हो। कबीरदास यही जतन करने के लिए कहते हैं। जीवन नश्वर है, क्षण
भंगुर है दोबारा नहीं मिलने वाला है इसलिए इसे भरपूर जिओ। सार्थक जियो।
यह क्षण भंगुरता का बोध दुबारा हाथ न आ पाने का बोध हमारे जीवन राग को
सघन करता है। जीवन में जो कुछ हो जाये उसी का अर्थ है। कबीर इसे समझते
हैं। जीवन के बाद स्वर्ग मिलेगा कि बैकुण्ठ मिलेगा यह सब बेकार की बात
है।
सत्त कहै, सतगुरु का चीन्हें। सत्त नाम विसवासा। यह सत्त नाम क्या है ?
शब्द ही तो है। शब्द पर भरोसा करने का मतलब है मनुष्य पर भरोसा करना।
मनुष्यता पर भरोसा करना। मनुष्य के पास ही शब्द हैं। शब्द मनुष्य होने की
पहचान है। कबीर की काव्य साधना मनुष्य की इसी पहचान को स्थापित करने की
साधना है। कबीरदास का एक प्रिय शब्द है बिगूचन। बिगूचन माया भी है,
विभ्रम भी है। इसी बिगूचन की वजह से हम अपनी मनुष्यता को गवां बैठे हैं।
सारी गड़बड़ी इस बिगूचन के कारण है। केदारनाथ सिंह की कविता है ‘बुनाई का
गीत’-
उठो
झाड़न में/मोजों में/टाट में/दरियों में दबे हुए
धागों ! उठो !
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर से बुनना होगा
उठो मेरे टूटे हुए धागों
उठो !
कि बुनने का समय हो रहा है।
कहीं कुछ गलत हो गया है दुनिया का समूचा कपड़ा फिर से बुनना होगा।
केदारनाथ सिंह की इस कविता में कबीर की अनुगँज सुनायी पड़ती है। यह जो
गड़बड़ हुआ वह बिगूचन की वजह से हुआ है, गलत समझ की वजह से हुआ है। कबीर की
बेचैनी के मूल में यही बिगूचन है। कबीर की साधना इसी बिगूचन को दूर करने
की साधना है। कबीर हमें यह भी बताते हैं कि इसे दूर करने कोई नायक नहीं
आयेगा। हम नायकों का इन्तजार करते रहते हैं कि सपनों के देश से कोई नायक
आयेगा और सब कुछ ठीक कर देगा। नायक तो हमारे भीतर ही सोया हुआ है। फकीर
इस सोये हुए नायक को शब्दों से मारकर जगा रहा है। बुद्ध ने कहा अप्प दीपो
भव। इस जागने अर्थ ही दीपक होना है। कबीर की कविता और हमारे बीच यह
बिगूचन आ खड़ा होता है। इसीलिए मुझे लगता है कि कबीर की कविता तक पहुँचने
के लिए हमें बहुत कुछ भूलना पड़ेगा। सीखे हुए को अनसीखा करना पड़ेगा। ज्ञान
के साबुन और साफ पानी से धोकर समझ की स्लेट को साफ करना पड़ेगा। समझ के
कम्प्यूटर में वाइरस भर गया है। उसे साफ करना होगा। तभी हम कबीर की कविता
तक पहुँच पायेंगे।
कबीर की कविता बे पढ़े लिखे आम आदमी तक पहुँच जाती है, केदारनाथ सिंह जैसे
संवेदनशील कवि के पास भी सहजता से पहुँच जाती है। हमारे पास नहीं
पहुँचती। क्योंकि कबीर को कवि सिद्ध करने के दंभ में जुटे हुए हैं। कबीर
को कवि होने न होने का प्रमाण पत्र देने में लगे हुए हैं। यही बिगूचन है।
इस बिगूचन से मुक्त होना यानी स्वयं में कबीर की कविता को समझने की
पात्रता अर्जित करना है। इसके लिए जरूरी है कि हम शब्दों से मारकर जगाने
वाले इस फकीरवा की आवाज को ध्यान से सुने।
1. चलन चलन सब कोइ कह है।
नं जाँनौं बैकुण्ठ कहाँ है।। टेक।।
जोजन एक परमिति नहिं जानैं, बातनि ही बैकुण्ठ बखानैं।
जब लग मनि बैकुण्ठ का आसा, तब लग नहिं हरि चरन निवास।
कहे सुने कैसे पतिअऐ, जब लग तहाँ आप नहिं जइऐ।
कहै कबीर यह कहिऐ काहि, साध संगति बैकुण्ठहि आहि।।
2. साधो भाई जीवत ही करो आसा।
जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा।
जीवत करम की फास न काटी मुए मुक्ति की आसा।
अबहूँ मिला तो तबहू मिलेगा नहिं त जमपुरवासा।
सत्त कहे सतगरु का चीन्हें सत्त नाम विसवासा।
कहै कबीर साधन हितकारी हम साधन के दासा।
3. ऐसा भेद बिगूचनि भारी।
बेद कतेबदीन असदुनिया, कौंन पुरिख कौन नारी।। टेक ।।
एक रूधिर एक मल मूतर, एक चांम एक गूदा।
एक बूंद हैं सृष्टि रची है, कौन बांह्यन कौन सूदा
माटी का पिंड सहज उतपनां, नाद अरु बिंद समाना
बिनासी गया तैं का नांव धरि हौ, पढ़ि गुनि मरम न जांना।
रह गन ब्रह्मां तम गुन संकर, सत गुन हरि हैं सांई।
कहै कबीर एक रामं जपहुरे, हिन्दू तरुकन कोई।।
-सदानन्द शाही
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