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कानम की
दिनचर्या अनोखी थी।
पूर्व परिवेश से भिन्न।
उसने गांव - बेड क़ी सीमाओं में अपने आप को नहीं बांधा।
वह सुबह दूसरे दिन गांव के प्रख्यात मंदिर में अवश्य गई थी।
वह देवी चंडिका का मंदिर था।
जिसके आंगन में जाने - अनजाने पता नहीं कितना बचपन गुजरा
होगा।
मां भी उसके साथ थी।
मंदिर की दीवार के बाहर गंभीर सी कई पल खडी रही।
पुजारी विस्मयी आंखों से उसे निहार रहा था।
मां ने उसकी शंका दूर की थी। ''
पहचाना नहीं पुजारी जी। मेरी कानम है कानम।''
कानम ने मंदिर की दहलीज पर जाकर हृदय से देवी मां को प्रणाम
किया।
कुछ पैसे और पुष्प चढाए और लौट आई।
पुजारी की समस्या का समाधान भी हो गया था।
पुजारी यही सोच रहा था कि इस कुलच्छणी को कैसे आशीर्वाद दे।
मां गंभीर थी।
कई तरह के विचार मन में कौंध रहे थे।
मंदिर से थोडा दूर आकर कानम ने मां को खेत में अपने साथ
बिठा लिया।
मां ने मंदिर की तरफ हाथ जोद क़र पुन: माथा टेका था।
कानम ऐन तडक़े उठ जाती।
दांत साफ करती।
नहाती और दूर - पार दौड लगा कर लौटती।
फिर आंगन में आकर कुछ देर व्यायाम करती।
मां के मन में अब उसके लिये कोई डर नहीं रहा था।
वह कानम की तरफ से निश्चिन्त - सी हो गयी थी।
कानम अधिक समय मां के काम - काज में हाथ बंटाने लगी थी।
वह जानती थी,
मां इस घर में मशीन की तरह काम
करती रही है।
उसके काम में कोई हाथ तक नहीं बंटाता।
मां सुबह साढे तीन - चार के आस - पास उठ जाती।
सबको चाय पिलाती।
गोशाला में जाकर गाय - भैंसें दुहती।
बकरियां दुहती और उन्हें घास - पत्ती डाल कर फिर घर का काम
निबटाती।
उसके बाद घास और पत्तियों की पांच - छ: गड्डियां जंगल से
लाकर रख देती।
फिर दोपहर का खाना पकाती।
इसे निपटा कर पशुओं को जंगल चराने भी ले जाती।
शाम ढले लौटती तो पशुओं का काम निपटा कर फिर घर के भीतर काम
शुरु हो जाता।
कानम इस बात से अवश्य हैरान थी कि रोज शाम को बडे पिता के
साथ कई दूसरे गांव के लोग चले आते थे।
खूब शराब पी जाती और आधी रात तक मां उनकी आवभगत में बैठी
रहती।
जब सभी खा पीकर निपट जाते तो मां रोटी खाती।
उस पर मां को दो - दो पतियों का ख्याल रखना पडता।
इसके अलावा मौसमी फलों को
पेडों
से
निकालना,
उन्हें सुखाना और सर्दियों के
लिये जमा करना।
इनमें बेमी - चूली और सेब प्रमुख होते।
दूर पार कण्डे से अनाज और आटा पिसा कर लाने का जिम्मा भी
मां का ही था।
फिर उत्सवों - त्यौहारों में भाग लेना।
गांव की औरतों के साथ रात - रात में नाटी में नाचना और गाना।
मां काफी
कमजोर
हो
गयी थी।
उस पर इतना काम करना आश्चर्य था।
कानम सोचती मां पर अवश्य देवी मां की कृपा रही होगी जो इतना
सब कुछ झेल पाती हैं।
यही नहीं मां को सप्ताह में दो बार अंगूर की शराब भी
निकालनी पडती।
पर उनकी आंखों में कानम ने कभी गुस्सा नहीं देखा।
चेहरे पर शिकन नहीं देखी।
उन्हें कभी थका हुआ महसूस नहीं किया।
कानम अब गांव की लडक़ियों और औरतों से काफी घुलमिल गई थी।
गांव - परगने में वह अब चर्चा का विषय थी।
पर खुलकर बातें करने में सभी सकुचाते थे,
इसलिये भी कि वह परधान की बेटी
है।
बरसों से उनका ही बोलबाला है।
कानम सादे सलवार कुर्ते पर उन की सदरी पहने रखती।
यहां आकर उसने हरी पट्टी की टोपी पहननी भी शुरु कर दी थी जो
उस पर गज़ब की फबती।
वैसे भी उसकी प्रतिभा विलक्षण थी।
उसका सौंदर्य बेजोड,
अनुपम और अतुल्य था।
जब वह गांव से आती - जाती तो सभी उसको देख कर सन्न रह जाते।
गांव - परगने के कई लडक़ों की निगाहें उस पर लग गई थीं
।
एक दिन वह सुबह बिना बताये उस गांव में चली गयी जहां की
लडक़ी और अभिभावकों ने अदालत में केस किया था।
वहां कोई भी कानम को नहीं पहचानता था।
वह पूछती हुई उसी घर में पहुंची।
उसे देखकर परिवार के लोग हैरान थे।
जब उसने अपना परिचय दिया तो उसे प्यार से भीतर बिठाया और
खूब बातें भी कीं।
कानम जब उस लडक़ी को मिली तो परेशान हो गयी।
वह सूख कर कांटा हो गयी थी।
न किसी से बोलती न पेट भर खाना खाती।
कानम ने उसी के पिता से पूछा था,
'' आपने तो अदालत में केस करके
हमारी इज्जत बख्शी है।
मैं उसी के लिये आप लोगों का आभार करने आई थी।''
कानम सारी स्थिति जान चुकी थी।
उसने स्नेह से पास बुलाया,
बिठाया।
उसका नाम पूछ लिया।
उसे दिलासा दिया।
उसे देखती रही।
मन ही मन सोचा
-
कैसे हैं ये रिवाज।
चुपचाप मान जाती तो पत्नी हो जाती।
अन्यथा बलात्कार का कलंक माथे पर लिये घुट - घुट कर मर रही
है।
उसे अपने समाज पर घिन आई।
जैसे यह सब कुछ उसी के साथ हो रहा हो। ''
मैं इसे अपने साथ ले जाती हूँ। आप इसकी फिक्र मत करें। यह
ठीक हो जायेगी। पहले जैसी।''
कानम ने बिना स्वीकृति लिये जैसे अपना फैसला सुनाया हो। कोई
इंकार भी न कर सका।
कानम के साथ जब उस लडक़ी को बडे पिता ने देखा तो आग - बबूला
हो गये।
उन्हें पता चल गया कि यह वही लडक़ी है।
कानम से कुछ नहीं कहा।
उसी के सामने मां से झगड ग़ये।
मां ने कुछ नहीं कहा था।
इस बात की चर्चा दूर - दूर तक होने लगी थी।
वह लडक़ी थी भी निचली बिरादरी की।
घर में जैसे तूफान मच गया हो।
कानम के बडे पिता को अब आते - जाते सभी टोकने लगे थे।
आज तक किसी ने उनके आगे कहने की हिम्मत नहीं जुटाई।
और आज अपनी बेटी के कारण इज्जत जाती रही।
उनका मन करता कि कानम की बांह - टांग तोड देते।
उनके लिये वह आफत हो गयी थी।
पर इसके बावजूद उनकी कभी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी बेटी से
आंख मिला कर बात कर लें।
कानम ने कई बार प्रयास भी किया पर वह सफल नहीं हुई।
कानम ने उस लडक़ी को समझा कर उसका खोया आत्मविश्वास वापस
लाने का जो प्रयास किया उसमें वह कामयाब हो गयी।
कानम को अब लगता कि वह लडक़ी उसकी अपनी बहन है जो बरसों पहले
उसने खो दी थी।
कुछ दिनों बाद फूलों का त्यौहार शुरु हो गया।
कानम मां के साथ दिन भर घर की सफाई में व्यस्त रहती।
घर का काम निपटा कर गांव की लडक़ियां और औरतें टोलियों में
कण्डे जाया करतीं।
फूलों को तोडतीं और हार बनातीं।
अब उन्हें फूल लाने का ही ज्यादा काम रहता।
एक दिन कई झुण्डों में लडक़ियां और औरतें फूल तोडने जा रही
थीं।
कानम कुछ लडक़ियों के साथ बहुत पीछे रह गई थी।
गांव के नीचे से सडक़ थी।
वे सभी जैसे ही सडक़ पर पहुंची कानम की नजर दूर सफेद मारुति
पर गई।
पर किसी ने उस तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया।
लेकिन पल भर में तीन - चार युवकों ने उनकी टोली को घेर लिया।
साथ की लडक़ियां निकल गईं और उन्हें किसी ने नहीं छेडा।
स्पष्ट था कि वे सभी कानम के लिये आए हैं।
कानम को समझते देर नहीं लगी।
शायद कानम के घर रह रही लडक़ी ने युवकों की मंशा भांप ली थी।
वह कानम से लिपट गई।
पर एक लडक़े ने उसे बांह से खींच कर अलग कर दिया।
फिर उनमें से एक ने कानम का बाजू पकडा और देखते - देखते सभी
ने कानम को मारुति रक घसीटना शुरु कर दिया।
जिसने सबसे पहले कानम का बाजू पकडा था शायद वही कानम को
अगुवा करना चाहता था।
कानम किस तरह उनकी गिरफ्त से अलग हुई किसी को पता नहीं चला।
उसके बाद लातों,
घूंसो और सिर से कानम ने उनकी जिस तरह पिटाई की,
वह किसी के लिये भी हैरत में डाल
देने वाली बात थी।
शोर सुन कर दूर - पार गईं लडक़ियां और औरतें भी सडक़ के
किनारे पहुंच गईं थीं।
कानम उनसे लड रही थी।
उसने अब उस लडक़े को गले से पकडा था जिसने सबसे पहले उसे छुआ
था।
किसी को यह पता नहीं चला कि कानम ने उठाकर उसे कैसे कई फुट
दूर फेंक दिया था।
वह अधमरा - सा उठने की कोशिश करता और फिर वहीं गिर जाता।
कानम ने दूर से ही उसकी तरफ थूक दिया।
इससे पहले की दूसरों की यह हालत होती,
सभी मारुति में भाग लिये।
अब वही अकेला वहां पडा था।
दूसरी औरतों ने कानम को न पकडा होता तो क्या पता वह उसे जान
से ही मार देती।
कानम में इतनी ताकत कहां से आई,
यह लडक़ियों और औरतों के लिये
हैरानी की बात थी।
इस झगडे में उसके एक कान की बाली अवश्य कान को चीरती हुई
निकल गई थी जहां से खून बहने लगा था।
उसकी छाती पर से भी कमीज़ फट गयी थी।
उसी लडक़ी ने अपना शॉल कानम को ओढा दिया था।
दूसरी सहेली ने उसकी दूर गिरी टोपी उठाकर उसे पहना दी।
कानम पूर्वरत सहज और खुश थी जैसे कुछ भी घटा न हो।
लेकिन वह झुण्ड के बीच में से उस लडख़डाते चले जा रहे युवक
को कनखियों से अवश्य देख लेती।
उसे जरा भी वक्त मिलता तो वह उसकी पिटाई कर देती।
कण्डे कोई भी फूल लाने नहीं गया।
सभी कानम के साथ गांव लौत आईं।
शाम को पूरे गांव,
पंचायत और परगने में यह खबर हवा
की तरह फैल गई।
जब कानम के बडे पिता को यह पता चला कि उनकी बेटी ने ऐसा
किया है तो वह जैसे पागल हो गये हों।
कई दिनों तक का गुस्सा जहर की मानिन्द बाहर निकल गया।
पहले कानम की मां से लडने लगे।
जो मन में आया वह कह दिया।
शराब का नशा भी था।
अब बारी कानम की थी।
पूरे जोर से कानम के मुंह पर चांटा जड दिया।
कानम चाहती तो रोक सकती थी।
पर नहीं रोका।
चांटे की मार्फत बडे पिता का स्पर्श स्नेह कम नहीं लगा।
चेहरे पर वही विश्वास और मुस्कान रही।
कहने लगी,
'' बडे पिता! मैं सुनम नहीं
हूँ
कि दो -
चार गुण्डे आये,
पीठ पर उठाया और खूंटे से बांध
लिया।''
उनकी आंखें लाल हो गईं थीं।
गुस्से से कांपने लगे थे।
मां दरवाजे पर सहमी,
डरी हुई खामोश थी।
कानम को काटो तो खून नहीं।
पांव के नीचे से जमीन ही खिसक गयी।
सिर पर जैसे किसी ने पानी के कई घडे उंडेल दिये हों।
कभी सोचा भी न होगा उसने कि उसके अपने पिता भी ऐसा करवा
सकते हैं।
मां के चेहरे पर से डर गायब हो गया था और गुस्सा चेहरे पर
साफ दिखाई दे रहा था।
पता नहीं कब सदरी का कॉलर पकड लिया था मां ने।
चिल्लाई थी,
'' तो यह सब तुम्हारी करतूत थी।
अपनी बेटी को ही दांव पर लगा दिया।
धन्य हो रे ऐसे पिता।
धन्य हो।''
कानम न संभालती तो मां आंगन में पत्थरों पर गिर जाती।
कानम को आज लगा था कि वह उनकी बेटी नहीं है।
न कभी थी।
होती तो ऐसा कभी नहीं करते।
सोचा कि क्या पता उसके पिता बडे हैं या कि छोटे।
अपने आप पर ही लजा गई।
आज किसी गहरे दर्द को महसूस करते हुए रोई थी कानम।
मानो मां - बेटी आंगन को ही आंसुओं में बहा देंगी।
बडे पिता अब भी ऊल - जलूल बके जा रहे थे।
आस पास के घरों से भी लोग ऊपर नीचे इकठ्ठे होकर तमाशा देख
रहे थे।
लेकिन कानम ने अपने आप को संभाला।
भीगी आंखों से एक नजर उन पर दी तो जैसे बिजली गिरी हो।
सभी अपने - अपने घर चले गये।
मां रोई जरूर थी पर मन - ही - मन खुश थी कि उसने दूसरी बेटी
बचा ली है।
एक डर जो बराबर मन के कोने में दुबका रहता,
आज चला गया।
आज कानम को छोटे पिता बहुत याद आये।
मन - ही - मन उनके पांव छू लिये।
छोटी मां के भी।
उसे याद आया था कि किस तरह जबरदस्ती उन्होंने मार्शल आर्ट
में उसे प्रवेश दिलाया था।
ज़ैसे इसी दिन के लिये शिक्षा दिलाई थी।
दूर - दूर तक यह बात भी फैल गई है कि कानम ने एम एल ए साहब
के लडक़े को अधमरा कर दिया।
गांव - परगने के बडे - बुजुर्ग और उनकी औरतें जहां इसे अपने
रीति -
रिवाजों
और
परम्पराओं के खिलाफ समझते हैं वहां युवा लडक़े और लडक़ियां उसे मन - ही - मन
शाबासी भी देने लगे हैं।
कानम जिनके संपर्क में जहां - कहीं भी रही,
उनके मन में उसके प्रति पहले से
कहीं ज्यादा आदर हो गया है।
पर कानम के लिये यह आदर और स्नेह शून्य सा है।
वह इसे अपने घर के भीतर महसूस करना चाहती है।
शायद अपने बडे पिता से या अपने मंझले पिता से,
पर वह उसे कभी नहीं मिल सकेगा
मां का अथाह स्नेह उसके साथ है।
मां का साथ जैसे सभी लडक़ियों और औरतों का साथ उसके साथ है।
पंचायत के इलैक्शनों का जोर शुरु हो गया है।
घर - बाहर यही बातें हैं।
यही पंची हैं।
कानम हैरान है कि शहर से गांव में प्रपंची राजनीति कैसे घुस
गई है?
अपने घर में वह देखती है कि रोज
दस - बीस लोग जुड ज़ाते हैं।
बडे पिता के पैसे हैं।
बीडी - सिगरेट हैं,
शराब - बकरे हैं दावतें ही
दावतें हैं।
मां रात भर आवभगत में लगी रहती है।
कानम भी उनका हाथ बंटा लेती है,
पर इन कामों के लिये वह कतई राजी
नहीं है।
मां को भी समझाने लगी है।
जब मां कहती है कि वह एक मां नहीं पत्नी भी है,
तो कानम निरुत्तर हो जाती है।
उनका संसार यही है।
पर कानम का संसार दहलीज से बाहर भी है।
नामांकन भरे जाने हैं।
सबसे पहले कानम के पिता ने भरा है।
उन्हें विश्वास है पहले की तरह उनके विरोध में कोई नहीं
होगा।
होगा तो जीतेगा नहीं।
फिर वह देवता के भंडारी भी तो हैं पंचायत उनकी,
लोग उनके और देवता भी उनका।
कानम के साथ वही बाहर की बिरादरी की लडक़ी है।
दोनों देवी चंडिका के मंदिर जाती है।
लडक़ी दूर खडी रह जाती है।
जानती है बाहर के लोग देवता के आंगन नहीं जाते।
और उसे साथ ले जाकर मंदिर की दहलीज पर खडी होकर श्रध्दा से
मां के चरणों में प्रणाम करती है।
आज न उसके पास पैसे ही हैं,
न कोई पुष्प ही।
वह खाली हाथ है।
लौटने लगती है तो पुजारी आवाज देकर रोक देता है,
'' बिटिया! माता के चावल और फूल
तो लेती जाओ।''
कानम ठिठक गई।
मुडती है तो पुजारी आंगन में आकर ही दोनों के हाथों में फूल
और सिन्दूर में रंगे चावल दे जाता है।
कानम सहज है,
पर उस लडक़ी के लिये यह आश्चर्य
है।
मंदिर से लौट कर पाठशाला के प्रांगण में कदम रखते ही इधर -
उधर खडे लोगों के लिये कानम का आना विस्मय है।
कानम चुनाव अधिकारी के पास जाती है।
फार्म लेती है।
भर कर चली आती है।
सभी की निगाहें उसका पीछा कर रही हैं।
सभी हक्के - बक्के रह गए हैं।
घर पहुंचने से पहले ही यह खबर वहां पहुंच गई है।
घर ही नहीं,
गांव में दूर - दूर तक।
आंगन पहुंचते - पहुंचते दस - बारह लडक़ियां और औरतें कानम को
घेर लेती हैं।
सभी की बांहों का घेरा कानम को अकेला कर देता है।
किसी लडक़ी ने नाटी के बोल गुनगुनाए हैं।
सभी के चेहरों पर अप्रत्याशित प्रसन्नता झलक रही है।
बांहों के घेरे को लांघती कानम की नजरें चूल्हे के पास बैठी
मां के चेहरे पर पडती हैं।
जलती लकडियों के प्रकाश में मां का गंभीर चेहरा
-
कानम के लिये भाव पढना अगम्य नहीं है।
पास अभिभूत से बैठे बडे पिता को देखकर कानम अनबूझी आंखों से
उन दोनों को देखने लगी है।
वह हाथ में चिमटा लिये जलती लकडियों से अंगारे छेड रहे हैं।
कानम ने पहली बार उन्हें मां के बगल में बैठे देखा है।
मायूस।
असहाय से।
नाटी के बोल बाहर - भीतर गूंज रहे हैं।
लडक़ियां उसी घेरे में नाचने लगती हैं।
दारोश : हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र के एक अंचल में
बोला जाने वाला एक शब्द जिसका अर्थ है
-
बलपूर्वक या जबरदस्ती।
उधर जो जबरन विवाह की रीत है उसे दारोश डबलब कहा जाता है
-
यानि बलपूर्वक व जबरदस्ती विवाह करना।
-एस
आर हरनोट |
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