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लाल डायरी ''मम्मी
मौसी भी क्या कैसियो बजाती थी?''
कैसे नाम लेते हम सब?
एक ही ठण्डी सी आग में जलते आये हैं अब तक।
उस नाम से जुडे सवाल भी
तो बहुत थे।
संसार ने पूछे वो अलग,
मन जो करता था वो अलग!
प्रश्न नहीं मरते अपने
पूरे तीखेपन के साथ लोगों के मनों में उगे रहते हैं।
जिन्हें उखाड क़र वे किसी को भी चुभा लेते हैं।
शादी की बात चली थी तो
सास ने मम्मी का मन कुरेदा था।
मुंह दिखाई के वक्त तो यह प्रश्न
चुभोया गया ही।
बाद में भी यदा -
कदा बहू की पढाई - सुन्दरता - सुघराई के तौल के दूसरे
पलडे पर रखे जाने में यह इस्तेमाल हुआ। ''
बताया न।''
फिर सालों बाद आज भी वही ... मन भीषण रूप से उदास है। ऐसी उदासी जिसे बहुत अपना भी नहीं समझ सकता। वह बहुत अपना इसे पी एम एस ( प्री मैन्स्ट्रुअल सिन्ड्रोम) या अकेलेपन की हताशा से ज्यादा कुछ नहीं समझ सकता। पर जाना ही है, ऑफिशियल! फौज में कुछ शब्दों को इस्तेमाल कर करके यूं चपटा कर दिया जाता है कि उन पर हंसी आने लगती है। वही मैस, वही बरसों पुरानी सजावट, वही लोग, वही लिबास, वही मेकअप, वही बातें, वही मजाक। द्विअर्थी जुमले, नये हैं तो एस एम एस जोक और मोबाइल फोन। बाकि आदिम प्रतिक्रियाएं तो वही हैं _ फ्लर्टिंग आजकल फैशन में है। अंग्रेजी क़ी महिलाउपयोगी पत्रिकाएं फैमिना और कॉस्मोपॉलिटन्स बाकायदा इसके गुर सिखाती हैं। विवाहितों - अविवाहितों दोनों के लिये स्ट्रेस रीलीवर का काम करती है फ्लर्टिंग। शादी के पेपरवेट के नीचे दबा कर रखी आदिमभावनाओं को जरा हवा देती है यह फ्लर्टिंग। सीधे सीधे तो आप अन्य स्त्री या पुरुष के साथ कुछ कर नहीं सकते यह हल्का फुल्का खेल ही सही, यह खेल एकतरफा नहीं होता शारीरिक भाषा के माहिरों का खेल है यह। हल्दी लगे न फिटकरी रंग तो है ही सुर्ख आकर्षण का। मेरी अन्यमनस्कता का ग्राफ नीचे ही नहीं आ रहा। पति को देख रही हूं बाकायदा उछल उछल कर बेसुरे स्वर में गाते। '' सोए गोरी का यारऽ बलम तरसे'' फ्लर्टिंग जारी है, मेरी ही सहेली आंखों के मंच पर लघुनाटिका चल रही हैं अजीब सी स्क्रिप्ट है फ्लर्टिंग की समझ सको तो समझ लो समझना चाहो तो! नहीं तो उपेक्षा कर दो। अंताक्षरी का बेसुरा खेल खत्म हो चुका है। कहीं एनाउन्स हुआ है मेरा नाम। मेरे दिमाग पर शैलजा ही छाई है। वह लाल रैगजीन के कवर वाली डायरी याद आ गई है। शेरो - शायरी और फिल्मी गीतों से भरी। सरगम के नोट्स भी उसमें लिखे रहते थे। एक किशोरी का छोटा सा संसार। एक सांवली लडक़ी की दबी - कुचली भावनाएं। मुझे कुछ गाना है। क्या? मैं मंच पर अपनी झीनी उदासी लिये हतप्रभ खडी हूं। क्या गाऊं? पति को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती हूं। वह ग्लास लेकर बार के पास खडे हैं। सब उन्हें मुडक़र देखते हैं। एक खीज भरी है उनकी आंखों में। अभी कुछ वक्त पहले की मस्ती, हुल्लड मेरे नाम पर घनेरी ऊब और खीज से भरा है। वही डायरी कहीं जहन में खुली है लाल डायरी जिसके पहले पेज पर साहिर का कोई बारहा सुना जा चुका शेर लिखा था मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे। अगले पर अमृता प्र्रीतम की कोई नज्म। फिर कुछ फुटकर शेर। फिर फिल्मी गीतरेडियो पर सुन कर उतारे हुए।
वह गाना बीच के किसी पेज पर था
वही पेज जिसके सामने वाले पेज पर आंधी फिल्म का गाना लिखा था
'
तेरे बिना जिंदगी से कोई
मैं ने गुनगुनाना शुरु किया
हैउसी पेज पर मोतियों जैसे शब्दों में लिखा गाना।
वह बहुत सुन्दर गाती थी
यह
'
चम्बल की कसम' फिल्म का गाना पता नहीं मैं ठीक से गा
सकूंगी कि नहीं।
मैं ने कभी यह गाना उसके
अलावा कहीं किसी से या रेडियो तक पर नहीं सुना है शब्द साथ देंगे स्मृति का कि
बीच में ही बुझ जायेंगे?
जब ढलक आए गाल तक आंसू तो गाना
बन्द करना पडा।
मैं ने कुछ थम कर अनाउन्स
कर ही दिया कि
-
यह गाना मेरी बहन गाया करती थी।
जो कि सत्रह साल की उम्र
में ही दुनिया से चली गई।
अपने गीत और लम्बे बालों
की स्मृति छोडक़र।
आज उसका जन्मदिन है।
बारह नवम्बर। -
मनीषा कुलश्रेष्ठ |
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