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ये रात
कितनी लंबी
है
आज स्कूल का वार्षिक फंक्शन है,
सुबह सात बजे से मैं यहीं
हूं...
सारी तैयारियां अपने चरम पर
हैं। रिहर्सल जितनी होती थी,
हो चुकी। पिछले महीने तो
मैंने पांच-पांच,
छ:-छ: घंटे रिहर्सल करवायी है,
जब तक बच्चे थककर चूर नहीं हो
जाते। सुबह सात से शाम
छ: बजे तक...। आज तो बस बारी-बारी तैयार कर इन्हें स्टेज पर
भेजना है। मैं नहीं
चाहती, मेरी क्लास के
बच्चे किसी से भी पीछे रहें। पीछे रहने की
सजा मैं अभी तक भुगत रही
हूं...। हम मेकअप रूम में हैं... चारों तरफ बच्चों का शोर,
नये कपड़ों की जगमगाहट और ढेर
सारी खुशबुएं हैं...। कुछ कत्थक की रिहर्सल कर रहे
हैं,
कुछ क्लासिकल सिंगिंग की...।
क्लास सिक्स की बच्ची अजीत कौर गा रही है... `मधाणियां,
हाय... ओ मेरे डाडेया रब्बा
कीनां जम्मियां किनां ने ले जाणीयां,
हाय।
`मेंहदी लगदी सुहागणं नु नहींयो
मरदे दमां तक लहंदी।'
मैं उसकी तरफ
प्यार से देखती हूं,
यह तो ठीक-ठाक जानती ही नहीं,
इन शब्दों का अर्थ...। यह गीत
इसकी मां ने तैयार
करवाया है, मैंने सिर्फ
रिहर्सल करवायी है।
`वाहे गुरु,
जे
मेरा ए कम ठीक-ठाक हो
गया, तां मैं तेरे दर ते
मथ्था टेकणं आवांगी।'
मैंने मन
में कहा। सब कुछ
अस्त-व्यस्त... किसी को कुछ नहीं मिल रहा,
किसी को कुछ...। मेरी
बेटी अपर्णा भी क्लासिकल
डांस में है, मात्र दस
साल की है अभी, बार-बार
कुछ न कुछ
पूछने चली आती है। भीड़ में उसे
अपने खो जाने का अहसास होता है। इतना अच्छा
परफार्मेंस वह पिछले तीन साल से
दे रही है, जब मैं उसे
अपने साथ इस स्कूल में ले आई
हूं। पुराने स्कूल की प्रिंसिपल
का हर शनिवार फोन आता, `आपकी
बेटी को क्या कोई
मेंटल प्राब्लम है?
सारे दिन में एक भी शब्द नहीं
कहती। न हंसती है, न
रोतीज्ञ् बस
टक लगाकर एक तरफ देखती रहती है।
कुछ पूछो तो सिर झुका लेती है। आप कृपया इसे कहीं
और ले जाइये।'
मेरे भीतर कुछ सुलगने लगता...
जी चाहता कहूं...हां है,
सभी को
होती है। आपको भी है,
मुझे भी। अपनी तो कमी पता ही
नहीं चलती, दूसरे की चल
जाती है। `कहीं और'
से क्या मतलब है आपका?
आखिर मैं उसे निकाल लाई। स्कूल
से भी, उससे
अपने भीतर से भी। आसान
नहीं होता कुछ भी, करना
पड़ता है आसान, मानना
पड़ता है कि
आसान है,
इसमें क्या है?
`मम्मा... मम्मा...। मुझे
देखो...।' वह तैयार होकर
आई
है,
विभिन्न मुद्राआें में खुद को
दिखा मेरी आंखों में अपना वजूद ढूंढ़ती है...।
मुझे उस पर लाड़ आता है,
पास खींचकर उसका माथा चूम लेती
हूंज्ञ् `आज अपने आप
करो।
आज मम्मा को और भी बहुत काम हैं
ना' मैंने पंजाबी में
कहा।
जब सारे तैयार हो गये
तो प्रोग्राम शुरू होने
में बस एक घंटा बाकी था। मैंने बारी-बारी सबको बुलाया सबके
ड्रेसेस ठीक-ठाक किये,
उन्हें उनका काम फिर से याद
दिलाया, पीठ थपथपाकर
हौसला
बढ़ाया,
सिर पर हाथ फेरा। वे मुस्कराने
लगे। एक स्पर्श और आपके भीतर जाने कितने
दरवाजे खुल जाते हैं। यह मैंने
बहुत देर से जाना, जब
अपने सभी दरवाजों को बारी-बारी
बंद होते देखा।
`तुसी उना नूं जादा प्यार करदे
हो, मैनूं घट करदेहो।'
अपर्णा
शिकायत करती है तो मुझे
हंसी आ जाती है। मैं सब बच्चों को प्यार करती हूं। सब अच्छे
हैं,
पर...?
दुनिया उतनी अच्छी नहीं है,
जितनी हम चाहते हैं कि हो। मेरी
स्टुडेंट्स
पर इतनी मेहनत भी सबको अच्छी
नहीं लगती। उन्हें लगता है,
ऐसा मैं जान-बूझकर करती
हूं,
उन्हें नाकाबिल टीचर सिद्ध करने
के लिये। बाहर से कभी कुछ नहीं आता,
सब हमारे
भीतर है,
यह भी मैंने बहुत देर से जाना।
हम सब जैसे आज हैं, उससे
अच्छे और बेहतर हो
सकते थे यदि हम पर हमारे
मां-बाप और टीचर्स ने और ज्यादा ध्यान दिया होता। किसी को
हमेशा के लिए उसके हाल
पर छोड़ देना, सिर्फ
अपने काम से काम रखना,
यह क्या हमारी
अपनी कुंठा नहीं?
हम कर सकते थे,
हमने नहीं किया। मैं सेवेंथ और
एर्थ के बच्चों को
पढ़ाती हूं,
डांस और म्यूजिक के लिए मेरे
पास सातवीं, आठवीं,
नवीं,
दसवीं के बच्चे
होते हैं। बच्चों से तो
मैं हमेशा घिरी रहती हूं। वे मुझे पसंद करते हैं,
मैं
उन्हें...। बच्चे हमसे
पर्सनल प्रश्न नहीं पूछते,
वे जैसे हम हैं,
स्वीकार कर लेते
हैं। वे भी हमसे यही
चाहते हैंज्ञ् अपना स्वीकार्य...।
जब सब तैयार हो गया,
मैंने शांति की सांस लीज्ञ्
सबको बुलायाज्ञ्
`देखो बच्चो,
तुम लोग चाहते हो न कि
हमारी मेहनत सफल हो,
तो तुम्हें अपने पूरे मन से
करना होगा, तुम सब मुझे
खुश देखना
चाहते हो,
है न?'
बच्चों ने तुरन्त अपने
मुस्कानों भरे चेहरे हिलाये। मैं जानती
हूं,
वे मुझे उदास नहीं देख सकते।
प्रोग्राम शुरू हुआ... मैं
बारी-बारी सभी
क्लासेस के बच्चों को भेजती।
दूसरों के पास समय नहीं होता कि वे बच्चों की तैयारी
करवा सकें। मेरे पास और
क्या था समय के अलावा...। `जब
आपके पास जीने के लिए अपनी
ज़िन्दगी नहीं बचती,
आप दूसरों के लिए जीने लगते
हैं।' ये सब कहते
हैंज्ञ् कभी
घुमा-फिराकर,
कभी सीधे।
बारी-बारी से सारे बच्चे गये और
मेरी खुशी का ठिकाना न
रहा,
जब लगभग सभी क्लासेस के बच्चों
ने अच्छी परफार्मेंस दी और वापस आकर दौड़ते हुए
मुझे घेर लिया,
मैंने उन सबको अपनी आंखों में
भर लिया, मेरी आंखों में
खुशी के आंसू
थे। यहीं आकर लगता है,
हम हैं,
हम हैं।
फिर सबने अपने-अपने हिस्से का
भाषण दिया।
कुछ बच्चे पुरस्कृत किये गये।
मेरी हैरानी की सीमा न रही,
जब प्रिंसिपल साहब ने
मुझे `बेस्ट
टीचर' के अवार्ड से
नवाजा और मुझसे स्टेज पर आने का आग्रह किया। वह पल
अपूर्व था। मेरे भीतर
कुछ कांप रहा था,
शिराआें में सनसनी थी। सबसे नालायक घोषित
हुई थी अपने घर में,...
सबसे निचली सीढ़ी...,
जिसे ऊपर जाने के लिए इस्तेमाल
किया
जाता है,
यह सहसा इतनी ऊंची सीढ़ी पर
अपना होना, मैं स्टेज तक
गयी, सिर्फ ज़रा सा
रास्ता पार करते-करते
मैं समूची बदल गयी...आश्र्चर्य,
अब न मेरे पैर कांप रहे हैं,
न हृदय... मेरा चेहरा और मेरी
कनपटियां गर्म थीं... हो सकता है,
मैं लाल भी हो गयी
होऊं... पर फिर मैंने
खुद पर पहली विजय पायी,
मैंने अपने `ना कुछ'
होने के अहसास को
अपने भीतर से गिर जाने
दिया और मजबूत कदमों से वहां तक पहुंच गई। तालियों की
गड़गड़ाहट के बीच एक ने
आगे बढ़कर मुझे फूलों का गुलदस्ता दिया,
दूसरी ने मुझ पर
शॉल ओढ़ायी... प्रिंसिपल
साहब ने कांच का एक बड़ा-सा मैडल दिया,...
तस्वीरें खींची
गयीं। सबका अभिवादन करने
के बाद मैं माइक तक आई। मैंने अपने सामने देखा,...
जहां तक
नज़र जाती लोग ही लोग,...
हमारे स्कूल के बच्चों के
पैरेंट्स, अन्य स्कूलों
के आये
डेलीगेट्स।
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने
क्या कहा, सार यह कि
मेरे संपर्क में
आने वाला कोई भी बच्चा मुझसे
उपेक्षित नहीं होगा,
चाहे वह किसी भी क्लास का हो।
कहते हुए मेरी नज़र उस महिला पर
पड़ी, जो खड़ी होकर
तालियां बजा रही थी,...
मेरी
नज़रें उससे टकरायीं,
उसने अपने सीने पर हाथ रख झुककर
मेरा अभिवादन किया, मेरी
आवाज़ भीग गई। उतनी दूर
से भी मैं उन आंखों में आंसू देख सकती थी।
आंसुआें और
औरत का रिश्ता बडा अजीब
है। जैसे पानी हमेशा नीचे की तरफ बहता है,
आंसू भी औरत की
छाती के खाली गड्ढे में
इकट्ठे होते जाते हैं। ये गड्ढा कभी सूखता नहीं। जब भी
इन्हें निकासी का कोई
रास्ता मिल जाता है,
भूल-चूक से,... बाहर आने
शुरू हो जाते
हैं। न मिले तो अपना फार्म
बदलते रहते हैं। कभी सख्त बर्फ से भीतर जम जाएंगे,
आप
कितना भी सरकाओ,...
न नीचे होंगे,
न ऊपर,...
कभी धुएं की मानिंद आपकी आंखों
में
उड़ा करेंगे,...
तब आपको कोई भी रास्ता ठीक-ठीक
दिखायी नहीं देगा।
अपने छोटे से
भावात्मक भाषण के बाद
मैं परदे के पीछे आ गई,...
मेक'प
रूम में बच्चों की ड्रेसेस
उतरवाने में उनकी मदद करने लगी,...
पर मैं सहज नहीं थी,
एकाएक मुझ पर बहुत सारी
चीज़ों ने हमला कर दिया
था।
प्रोग्राम खत्म होने के बाद वह
महिला अपनी बेटी को
लेने आई। उसकी बेटी दूसरे
बच्चों के साथ खिलखिला रही थीज्ञ् वह कुछ पल उसे देखती
रही फिर मेरे निकट आ
मेरे दोनों हाथ पकड़कर चूम लिये।
`आज मैं रब अगे अरदास कर
दीयां कि रब तुहाडी सारी
मुराद पूरी करे।'
मैं मुस्करा दी। मैंने उसके हाथ
थपथपा
दिये। वे अपनी बच्ची को लेकर
चली गयीं।
अभी तक अपर्णा को कत्थक का
जुनून उतरा
नहीं था,
वह अपनी ड्रेस तक उतरवाने को
तैयार नहीं थी।
मैं तनिक
सांस लेने कुर्सी पर बैठ गयी। बच्चों को हंसते-बोलते-लड़ते देखती
रही।
मुझे उनका अपने हाथों पर स्नेह
से चूमना देर तक याद आता रहा। मुझे याद नहीं
आता,
कभी मेरी मां ने मुझे इस तरह
चूमा हो। क्या करते हैं,
जब आप किसी को चूमते है?
अपना समूचा प्रेम,
समर्पण, समूचा आह्लाद,
खुशी,
कुछ अप्रतिम सा,
जिसे शब्द देने में
आप सबसे ज्यादा असमर्थ
हों आपके थरथराते होंठों से बाहर आता है,...
उस दूसरे की
त्वचा में समा जाता है।
वह कहीं जाता नहीं,...
वहीं रहता है हमेशा। गहरी काली रात
के अंतहीन अकेले पलों में उस एक
पल की जगमगाहट को अपने सीने में भींच आप रात
गुजारने की कोशिश करते हैं।
वर्डबेस कम्यूनिकेशन। आज पहली बार जी किया,
मैं अपनी
तन्हा आत्मा को चूम लूं।
ऐसा क्यों होता है,
जब कोई तुम्हें प्यार नहीं करता,
तब
तुम भी खुद से नहीं कर
पाते। पर जब कोई दूसरा तुम्हें प्यार करने लगता है,
तुम भी
करने लगते हो। क्यों
?
वे सत्र के मध्य में आई थीं,
अपनी आठ वर्षीय बच्ची को
लेकर। उनका कहना था,
उनकी बच्ची पहले जिस स्कूल में
पढ़ती थी, वहां किसी चीज
में
अच्छी नहीं थी,
न पढ़ने में,
न किसी और ऐक्टिविटी में। हमेशा
गुमसुम खामोश, डरी
हुई,
नींद में रोने व चीखने के
अलावा। जब कोई टीचर किसी और बच्चे को डांट रही
होती,...
तो वह पीली पड़ जाती- उसके
हाथ-पैर ठंडे हो जाते। उन्होंने प्रिंसिपल साहब
से रिक्वेस्ट की कि उनकी
बच्ची को इषिता कौर मैम की क्लास में डाला जाये। वजह पूछने
पर उन्होंने बताया कि
मैंने उनकी बहुत तारीफ सुनी है। उन्होंने बहुत से बिगड़े और
डरे हुए बच्चों को ठीक
किया है। उनकी क्लास में बच्चे बहुत खुश रहते हैं। मेरी कलास
में ऑलरेडी बहुत बच्चे
थे। आखिर जैसे-तैसे उन्होंने प्रिंसिपल साब से `हां'
करवायी
और उनकी बच्ची मेरी
क्लास में आ गई।
जैसा कि आमतौर पर होता है,
मेरी क्लास के
बच्चे बिल्कुल शांत और
अनुशासित होकर नहीं बैठते। उन्हें छूट होती है कि वे बातें
कर सकें,
शोर भी कर सकें। मैं उन्हें उस
तरह नहीं पढ़ाती, जैसी
दूसरी टीचर्स। मुझसे
हर बच्चा अपनी प्राब्लम शेयर कर
सकता है। कोई खाना नहीं खाता तो मैं उसे खिला देती
हूं। उनकी जेब में पड़ी
हुई सारी चीजें बस मेरी ही क्लास में बाहर आती हैं उनके
भीतर दबी बातों और आवारा
इच्छाआें की तरह। कोई नाराज हो तो गुदगुदा कर हंसा देती
हूं,
रूठे हुआें की दोस्ती करा देती
हूं।
पहले पहल जब मैंने उनकी क्लासेस
लेनी
शुरू की तो उन्होंने मेरे
स्वभाव का बहुत फायदा उठाया,...
इतना शोर,
इतनी
अस्त-व्यस्तता कि मैं
खीझकर रो पड़ीज्ञ्
`तुम्हें जो करना है,
करो। अब मैं
तुम्हें नहीं पढ़ाऊंगी।'
मैं उठकर बाहर जाने लगी। सारी
क्लास। एकदम
चुप।
`सॉरी मैम,
अब हम शैतानी नहीं करेंगे।'
पीछे से आवाज़ें आइंर् और मैं
मुस्कराती हुई लौट पड़ी।
इन्हें हमेशा नहीं पढ़ाया जा सकता। न ही ये हमेशा एक ही
ढंग की मांग करते हैं।
जब इन्हें पता नहीं होता कि इन्हें पढ़ाया या लिखाया जा रहा
है,
ये जल्दी सीख जाते हैं। स्पर्श
इन्हें राहत देता हैज्ञ् सिर पर हाथ फेरना,
पीठ
थपथपाना,
एप्रिशियेट करना महज आंखों से
छूकर, गाल पर हल्की-सी
थपकी देना इनके भीतर
काफी कुछ बदल देता है। स्पर्श,
लगाव,
स्नेह,
प्यार,
केयर,
किसी को सुनना-समझना।
इनका अपार भंडार होता है,
हमारे भीतर,
आप कितना भी दो,
कम नहीं होता। फिर भी जाने
क्यों लोग ये सब देते
नहींज्ञ् घट जायेगा जैसे देने से...।
`तुसी मेरे वल तां
नहीं तकदे,
सारयां वल तकदे हो।'
अपर्णा ने आकर मुझे हिलाया।
मैंने उसे अपने गले
से लगा लिया,
वह शांत हो गयी।
सत्र के अंत में जब उस महिला,
परमजीत नाम है उसका,
की बच्ची सेकेण्ड डिवीजन में
पास हुई तो वे खुशी के मारे रो पड़ी। मेरे आग्रह पर
उसने बताया कि वह अपने
फादर से बहुत डरती है,
मुझे कई बार मार खाते देख चुकी है। एक
बार वे पीकर आये,
उनसे सब्र नहीं हो रहा था,
उन्होंने बच्ची को उठाकर बाहर
फेंक
दिया और दरवाजा अंदर से बंद कर
दिया। घंटे भर वह बाहर ठंड में बेहोश पड़ी रही,...
मैं भीतर। बेहोशी में जीना आसान
होता है, आपको पता ही
नहीं चलता, आपके ऊपर से
क्या-क्या गुजर गया। होश
सब याद दिला देता है। सारे दर्द होश के दर्द हैं।
आपने
किसी महिला को छत पर
बड़ियां बनाते, सुखाते,
उतारते,
रांधते देखा है?
अपने ज़ख्मों
के साथ भी वे यही करती
है। आंसुआें को घूंट के साथ गले के नीचे उतारने का काम।
बाहर ग्राउण्ड में भीड़
धीरे-धीरे छंटने लगी। अपने बच्चों के साथ सब अपने-अपने
घर लौट रहे हैं,
उनकी उंगली पकड़े। मैं अपर्णा
का हाथ पकड़े उन्हें जाते हुए देख
रही हूं।
न किसी ने मेरी उंगली पकड़ी,
न कभी मेरा घर बन सका। औरतों का
क्या
सचमुच में कोई घर होता है या वे
दिखावा करती हैं, दूसरे
की चीज़ जबरदस्ती अपनी
मानने का दिखावा।
हम दोनों मां-बेटी भी घर वापस
लौटने लगे। अपनी मां और नानी मां
के घर। मैंने मां से इतना कहा
कि वे भी आकर प्रोग्राम देखें हमारा। उनका पेटेंट
जवाब थाज्ञ्
`मैं जाके की करांगी।'
जिन्हें अपने बच्चों को देखने
की फुरसत
नहीं मिली,
वे किन्हीं और बच्चों को देखने
क्यों जायेंगी?
आज उन्हें देखती
हूंज्ञ् बूढ़ा,
नाटा,
झुका हुआ शरीर,
झुर्रियों से अटा बेजान चेहरा,..
समय अपनी छाप
छोड़े बिना कहीं से नहीं
गुजरता। क्या देखा है,
उन्होंने अपने जीवन में?
क्या वे
सचमुच उतनी ही दोषी हैं,
जितना उन्हें मैं समझती हूं।
मेरे भीतर रक्तरंजित
लोथड़े हैं,
ऐसा विनाशकारी दृश्य जैसे किसी
जंगल में तीका आंधी आने के पश्र्चात
होता है। हर वृक्ष अपनी जगह से
उखड़कर ठूंठ में तब्दील हो चुका,
हर घोंसला मिट्टी
हो चुका,...
हर तिनका राख।
मुझे अपने पापा की बहुत याद
नहीं है। हम तीन बहने।
मैं सबसे छोटी,
सबकी आज्ञाकारी। सब मुझ पर हुकम
चला सकते हैं, मैं किसी
पर नहीं,... मैं सिर्फ
उनसे बचने के तरीके सोचती,...
नाकामयाब तरीके,
क्योंकि हर बार धर ली
जाती। पापा मनमाड में
रहते थे, हम पटियाले में
अपनी नानी मां के एक पुराने घर में,
जिसे वे `कोठी'
कहती हैं। नानाजी डॉक्टर,...
मां स्कूल में टीचर। बीजी हमें
मनमाड
भेजने को राजी नहीं होती थी।
`तुसीं सारे उथे जाके की करोगे,
उथे स्कूल वी चंगे
नहीं हन।'
हम सिर्फ छुटि्टयों में उनके
पास जाते थे। मुझे याद है,...
मैं छठवीं
में थी,
जब हम वहां आखिरी बार गये थे।
वे मुझे अपने स्कूटर पर सामने खड़ाकर घुमाने
ले जाते,
खूब अच्छी-अच्छी चीजें खिलाते।
मैं सबसे छोटी थी, शायद
इसलिए सबसे ज्यादा
लाड़ आता था उन्हें मुझ पर। कभी
दो, कभी डेढ़ महीने वहां
रहकर हम लौट आते। उन दिनों
भी वे एक-दूसरे से खूब झगड़ते।
मुझे कभी समझ में नहीं आता कि वे झगड़ा क्यों कर रहे
हैं?
मां ने बताया था कि शादी के
वक्त वे फौज में थे। एट्टी फोर में उन्होंने फौज
की सर्विस छोड़ दी,
कहा,
मैं बिजनेस करूंगा। अब एक बार
फौज में रहने के बाद कोई
बिजनेस कर सकता है?
कई बिजनेस बदलने के बाद भी
उन्हें सफलता नहीं मिली। असफलताआें
ने उन्हें बुरी तरह तोड़ दिया।
वे बेतहाशा पीने लगे,
उन्हें डिप्रेशन के दौरे पड़ने
लगे। एक बार ऐसे ही दौरे में
उन्होंने घर की कांच की खिड़कियां तोड़ डालीं। मनमाड
में रह रही उनकी बहन ने
उन्हें नासिक के एक अच्छे हॉस्पीटल में भर्ती कराया। मां
कभी इधर,
कभी उधर,
हम बीजी की कृपा पर...।
एक बार जब
वे हॉस्पीटल में ही थे,
आधी रात को उन्होंने एक नर्स को पकड़ लिया,
अपनी
ड्यूटी पर थी वह। उसने
बहुत शोर मचाया। उसी समय आधी रात को मनमाड उनकी बहन के पास
फोन आया कि `आप
अपने पेशेन्ट को ले जाइये। हम उसे इसी वक्त बाहर करते हैं।'
बहिन
जाकर उन्हें ले आई वापस
मनमाड... वहीं उनकी मृत्यु हो गयी।
हमारे पास जब समाचार
आया,
मां स्कूल गयी हुई थीज्ञ् खत
उर्दू में था। हमें तो आता नहीं था उर्दू पढ़ना।
नानाजी ने पढ़ा,
फिर बीजी से कुछ कहा। वे बस
उदास हो गयीं। दोपहर को मम्मीजी घर
आइंर्... उन्हें कुछ बताया गया,
वे छोटी-सी कोठरी में गयी,
अपनी बिंदी उतार दी और
रोने लगीं। उनकी
देखा-देखी मेरी दोनों बहनें भी रोन लगीं,
फिर मैं भी...।
फिर हम
उन्हें भूल गये। हम
धीरे-धीरे बड़े हो रहे थेज्ञ् गालियां सुनते,
मार खाते,
दिन भर
क्लेश झेलते। मां के पास
हताशा थी, निराशा थी,
डर था। वही हमें देती। घर में
मेरी
मंझली बहिन का राज चलता। कभी
मैं मां के हाथों पीटती,
कभी मंझली बहिन के। बचपन में
ही हर बात सहने की आदत ने काफी
लंबा साथ निभाया। मेरे पास मेरा कुछ नहीं था। हर चीज
मुझसे छीनी जा सकती है,
ये सभी जानते हैं।
बहुत से दोस्त बनें,
बनकर बिछड़ गये।
मैंने खुद को बड़ा होते
हुए देखा, अपने शरीरिक
परिवर्तनों को पहले आश्र्चर्य से फिर
आदतन देखा।
घर में हम औरते थीं। मम्मीजी
कपड़े धोते मातम करतीं।
`हॉय रब्बा,
सारियां फ्राकां ही धोणियां
पैंदिया ने - कोई तां पैंट-कमीज धुवांदा इना हथां उे
नाल'।
मैं पढ़ने में सबसे होशियार थी।
कोई मुझ पर ध्यान नहीं देता था,
पर मैं
हर बात में आगे थी।
सुन्दर तो खैर थी ही। सुन्दरता औरत के लिए अभिशाप और वरदान
दोनों ही होती हैज्ञ् यह
मैंने बाद में जानाज्ञ् बहुत कुछ अपने जीवन से,
बहुत कुछ
खूबसूरत औरतों की
ऑटोबॉयोग्राफी पढ़कर।
बीजी अक्सर बीमार रहती हैंज्ञ्
या तो
उन्हें कब्ज हो जाता है या
दस्त..। या तो उनकी टट्टी साफ करो या उन्हें एनीमा दो।
वे सारे काम जो घर में
कोई नहीं करता, मुझे
करने पड़ते। वे अपना पास्ट इस तरह
बड़बड़ाती जैसे वे किसी बार-बार
देखी फिल्म के याद रह गये दृश्यों को दोहरा रही
हों। पगड़ियों के रंगों
को लेकरज्ञ् घर में मौजूद सामान तक। उन्हें बाहर से कम
दिखता है पर भीतर के
दृश्य वे अब भी काफी साफ देख लेती हैं। कभी-कभी गड़बड़ा जाती
हैं,
तारीखें इधर-उधर हो जाती हैं।
हम अपने भीतर ठीक कर लेते हैं। उनके टुकड़े हर
उस वक्त मेरे कानों में पड़ते,
जब वे किसी अजनबी को अपनी
दास्तान सुनातीं पंजाबी
में।
`हम तो यहां आकर बस फंस गये
जी... बारह साल से रह रहे थे बैंकाक में,...
बच्चों के साथ। वहां इनका
प्राइवेट हॉस्पीटल था,
पेशेन्ट का इलाज वे ठेके पर करते
थे। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा
था, सुभाषचन्द्र बोस
कलकत्ता में नज़रबंद थे,
वहां
से फरार होकर १९४१ में वे
बर्लिन (जर्मनी) पहुंचे। वहां वो रेडिया पर भाषण देते थे।
उनके भाषण की शुरुआत इस
तरह होती थीज्ञ् `मैं
सुभाष बोल रहा हूं।'
उनके भाषण बड़े
भावप्रवण हुआ करते थे।
`जर्मन पनडुब्बी और फिर जापानी
पनडुब्बी पर सवार होकर २
जुलाई १९४३ को वे सिंगापुर में
प्रकट हुए और आज़ाद हिन्द फौज का पुनर्गठन हुआ।
इनमें वे भारतीय सिपाही
थे, जो ब्रिटिश सेना के
झंडे तले युद्ध करने जाते और
जापानियों के बंदी हो जाते।
इसमें मलाया, सिंगापुर,
हांगकांग,
रंगून,
बैंकाक के भी
भारतीय होते। इनका
मुख्यालय दो जगहों पर थाज्ञ् रंगून और सिंगापुर। यहीं पर
उन्होंने `दिल्ली
चलो' का विख्यात नारा
दिया।
`२१ अक्तूबर १९४३ में `आज़ाद
हिन्द
सरकार'
की घोषणा हुई। नेताजी उसके
प्रेसीडेंट थे ही। मार्च १९४४ को `आज़ाद
हिन्द
फौज'
इम्फाल के नजदीक पहुंची।
जापानियों की हार और पीछे हटने के साथ ही आज़ाद हिन्द
फौज भी पीछे हटी। नानाजी
भी सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर `आज़ाद
हिन्द फौज' में
शामिल हो गये थे अपना
काम छोड़। सुभाषचंद्र बोस के हिसाब से जीत लगभग तय थी,
पर वे
हार गये। कहते हैं,
इस दु:ख की वजह से उन्होंने
अपना जहाज खुद गिरा दिया।
`हम
अपना सारा पैसा और
कागज-पत्तर लेकर बैंकाक से कलकत्ता आ गये... फिर ट्रेन से अपने
घर अपने गांवज्ञ् घोटा,
जिला रावलपिंडी। मार्च ४७ तक
पाकिस्तान बनना कांग्रेस
द्वारा स्वीकृत कर लिया गया।
हमें वहां आये दो महीने ही हुए होंगे कि मुसलमानों ने
बुरी तरह हमला किया,
आग लगा दी घरों में। बच्चे पानी
को तरस रहे थे। हम घरों से
निकल के बाहर सड़कों पर आ गये।
उन्होंने फोन के तार भी काट दिये। मिलिट्री वाले
ट्रक लेकर घोटा आए,
उन्होंने कहाज्ञ् `सब
ट्रक पर चढ़ जाओ तो जान बच सकती है।'
हम
सब ट्रक में चढ़कर
रावलपिंडी के कैम्प में आ गये।
`किरपाल सिंह के कारण एक गाड़ी
रावलपिंडी आई लाहौर से।
हम सारे जो हिन्दुस्तान जाने वाले थे,
चढ़ गये। न हम बैंकाक
जा सकते थे,
न हमारे पास पैसा था। मजबूर
होकर हमने पंजाब गवर्नमेंट की सर्विस ली।
दोनों मामे पढ़-लिखकर वहां चले
गये, वहीं सेटल हो गये।
मौसी की शादी भी वहीं हो गई।
बचे हम,
किस्मत के मारे...।'
कभी वे एक दृश्य का वर्णन खूब
विस्तार से करतीं, कभी
पूरी एक घटना एक वाक्य में खत्म कर देतीं। समझो तो ठीक,
न समझो तो ठीक। जब तक
हम छोटे थे,
समझने की कोशिश नहीं की। बड़े
हुए, समझने को कुछ रहा
नहीं। अपने ही
जीवन के धागों को सुलझाने में
बीतता समय।
आपको पता है,
आम की पपड़ी (अमावट) कैसे
बनती है?
बोरों पर आम का खट्टा-मीठा रस
फैलाकर धूप में सुखाते हैं। जब उनकी मोटी
परतें सूखकर जम जाती हैं,
काट कर रख लेते हैं। इसके बाद
खाइएज्ञ् छोटे-छोटे
खट्टे-मीठे रेशे आपकी दांतों और
जीभ के बीच फैलते रहेंगे। यह आमों का `पास्ट'
है।
हमारा `पास्ट'
भी हमारे रेशों में बिल्कुल इसी
तरह होता हैज्ञ् यह बात नानी मां को
देखने के बाद समझ में आयी। वे
दिन भर इन रेशों को चुभलाती रहींज्ञ् अपने पोपले मुंह
में। न निगलने का जी करे,
न फेंकने का। वे कहती हैंज्ञ्
`जिन्होंने एक दिन जेल
काटी,
वे आज तक पेंशन ले रहे हैं।
हमने दो साल सेवा की,
हमें कुछ न
मिला।'
बहिनें बड़ी हो गयी थीं। उनके
लिये लड़कों की तलाश शुरू हो गयी। जो भी
उन्हें देखने आता,
मुझे पसंद कर लेता। बाद में मां,
किसी के भी आने पर मुझे कोठरी
में बंद कर देती। उसके
जाने के बाद निकालती। जो मेरे लिये खुशी का भी सबब होता,
दुख
का भी। खुशी इसलिए कि उस
तमाम वक्त मैं काम करने से बच जाती। दुख?
पता नहीं क्यों?
अपने `न
कुछ' होने का भाव तब तक
मुझमें जागा नहीं था। यह तो तब जगता,
जब पहले यह
जगे कि `कुछ'
हो। मैं तो कुछ भी नहीं थी,
न अपनी नज़रों में,
न किसी और की नज़रों
में। दुख और डर हमारा
स्थायी भाव था। मां को उनकी परेशानियों ने कभी मां बनने का
मौका ही न दिया। हम उनकी
जिम्मेदारी थीं, उनका
प्यार नहीं। हमें तो बस
निभाया-निबटाया जा रहा था। हम
भी चाहते थे, निबट
जायें।
पुरुष के अभाव में हमने
घर में खूंखार कुत्ता
पाल रखा है। बूढ़ी औरतें जब टहलने निकलती हैं,
तो उनके हाथ
में कुत्ते की ज़ंजीर
क्यों होती है, यह अब
जाके समझ में आता है। सात बजे तक हम
कहीं भी हों,
हमें लौटना होता ही होता। हम
अपना गेट लोहे की ज़ंजीरों,
मोटे तालों
से बंद करके रखते थे,
ताकि चोर को खोलने में ज्यादा
वक्त लगे, तब तक हम जग
जायें।
सारी रात बीच-बीच में नानीजी की
गुहार `वाहे गुरु'।
चोर कभी नहीं आया।
एक बार हम
डरे थेज्ञ् सारा घर बहुत
बुरी तरह,... थर-थर कांप
रहा था, हम भीतर से।
गुरु
अर्जुनदेव सिंह जी का शहीदी
पर्व था,... सारे
पटियाले में सबसे बड़ा। शहादत के
दूसरे दिन पंचमी होती है,
दिन भर लंगर चलता रहता है। उस
दिन कफ्र्यू लग गया सारे
पंजाब में,...
सारे गुरुद्वारे बंद हो गये,
कोई भी आदमी बाहर नहीं निकल
सकता था।
हजारों लोग जो गांवों से आये थे,
वहीं फंसे रह गये। उसी रात
हरमिंदर साहब पर अटैक
हुआ,...
पटियाले के `दुख
निवारण साहब' पर भी।
लगभग सारे गुरुद्वारों में एक ही
समय।... हम सब छत पर सोये थे।
फायरिंग की आवाज़ आती रही `बचाओ-बचाओ'
की चीख-पुकारें
भी,...
छत पर इतनी तेज़ रोशनी कि जैसे
दिन हो। गोलियों की,
ट्रकों की, लागों की
चिल्लाने की आवाज़ें। हम
तुरंत नीचे भागे। हमारे दिल ऐसे धड़क रहे थे,
मानो अभी
छातियां फाड़कर बाहर आ
जायेंगे। अगले दिन कोई गुरुद्वारे नहीं गया। मास्टर त्रिलोचन
सिंह वहीं थे। उन्होंने
सबको एक हॉल में बंद कर उनकी सुरक्षा की।
मास्टर
त्रिलोचन सिंह की बड़ी इज्जत है हम सबके मन में। पंजाबी टीचर,
अपनी आधी
तनख्वाह गरीबों की
सहायता में लगा देते हैं। `दुख
निवारण' में रोज़ शाम
पानी पिलाते
सबको,
त्यौहारों में चाय। वहीं
`फर्स्ट एड'
का प्रबंध बीस साल से चल रहा
था। कोढ़ी, मंगते,
गरीब,
रिक्शेवाले,
सबके लिये मुफ्त दवा। कुष्ठ
रोगियों की पटि्टयां भी बदलते
अपने हाथों से। शहर में कोई भी
बुलाता, मुफ्त में
कीर्तन करते। गरीब लड़कियों की
पढ़ाई,
शादी का खर्च उठाते,...
मेडिकल कैम्प लगाते,...
औरतों की बीमारियों का भी
इलाज करवाते। पटियाले
में ऐसा कोई न था, जो
उनकी इज्जत न करता। उन्होंने बाद में हब
सबको बताया कि मिलिट्री वालों
ने पहले ही सारा खाका बना लिया था। उन्हें ये रिपोर्ट
मिली थी कि सराय के अंदर
आतंकवादी रहते हैं। उन्होंने टंकी पर चढ़कर सराय का नक्शा
लिया। हवाई जहाज पर आये
थे वे। उनके पास बत्तीस आदमियों की फोटो थी,
जिन्हें वे
आतंकवादी समझते थे,
बाद में एक भी नहीं पाया गया।
वे बताते हैं रात बारह एक बजे के
करीब एक लाल गोला आसमान में
चलाया, जिसने दिन जैसी
रोशनी कर दी। मिलिट्री वालों ने
पोजीशन ले ली। पांच-छ: ग्रुप
बनायेज्ञ् एक ने सराय पर हमला किया सबसे बड़ा,
जहां
लोग बंद थे। एक ने सरोवर
पर, एक ने गुरु गं्रथ
साहेब पर। बाकी हमले पीछे से हुए।
किसी ने कहाज्ञ् `वाहे
गुरु!' उसे गोली मार दी
गई। सराय में कोई नहीं बचा। लंगर में
भी बहुत से लोग मारे गये। एक
हजार के करीब सरोवर के ऊपर थे,...
हमने सबको लिटा
दिया। हमने कहाज्ञ्
`हम सरेन्डर करते हैं।'
उन्होंने छ: सात सौ लोगों को
पकड़ लिया।
सात दिन उन्होंने न किसी को
अंदर आने दिया, न बाहर
जाने दिया। न लाशों को किसी को
दिखाया। उन्होंने ट्रकों में
लाशें डालीं और मॉडल टाउन क्रिमिनेशन ग्राउण्ड में ले
जाकर फूंक दीं।
जब उनकी याद में अखंड पाठ साहब
करवाया गया, तो मिलिट्री
वाले
उन्हें पकड़ कर ले गये।
बोलेज्ञ् कहो कि `जो
मारे गये गलत आदमी थे। इन्होंने
हिन्दुआें को मारा है।'
मास्टरजी ने साफ इंकार कर दिया।
उन्हें बहुत मारा-पीटा कि
पाठ मत करो। पाठ फिर भी चलता
रहा। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। इसके पांच महीने
बाद इंदिरा गांधी की
हत्या हो गयी। इसके बाद जो हुआ,
सब जानते हैं। जिस-जिस ने भी
हमला किया,
एक सौ साठ दिन से ज्यादा कोई
जिंदा नहीं था ये उनका मानना है। वे वही
मानते हैं,
जो मानना चाहते हैं। हम उनसे
बहस नहीं करते।
मैं अभी भी उनसे मिलती
हूं,...
गुरुद्वारे में अक्सर। एक ऐसे
बुजुर्ग, जो सिर पर हाथ
रख दें तो लगे नहीं, सब
ठीक है, सब ठीक हो
जायेगा। आदमी को सहना आना चाहिए। पर क्या सचमुच?
ये सब इसलिए
तो नहीं हो रहा है कि
हमें सहना आ गया है।
हम अच्छी तरह जानते हैं कि
हमारी शादी
ही मां की समस्याआें का समाधान
है। जब वे किसी बात पर हमें मारतीं,
हिटलर की आत्मा
उनमें प्रवेश कर जाती।
हमारे बाल पकड़कर कभी वे हमें दीवार से टकरा देतीं,
कभी लोहे
के पलंग की पाटी से।...
हम ज़ख्मी थे, अन्दर से
भी, बाहर से भी। इन सारे
दुखों की
हमें आदत थी। जिस दिन हंस लेते,
जो कि स्कूल में ही संभव था,
अपना आप नया-नया सा
लगने लगता। हैरत होती कि
ये छोटी सी चीज अभी भी हमारे पास बची हुई है।
आखिर
जैसे-तैसे बड़ी बहिन की
शादी हो गई। बैंकाक में रह रहे हमारे मामा लोग आये,
उन्होंने काफी आर्थिक मदद की।
नानाजी बेचारे तो इतने बूढ़े और दयनीय हो गये थे,
इतनी सारी स्त्रियों की
जिम्मेदारी उठाते-उठाते कि अक्सर वे हममें से ही एक लगते।
मामा लोग अच्छे हैं।
उनके आने से घर में काफी नयी चीजें और रौनकें एक साथ
आतीं।
मां ने चैन की सांस ली कि चलो
एक कहानी खत्म हुई पर कहानी,
वह चाहे किसी
की भी हो,
कभी खत्म होते मैंने तो देखी
नहीं। मामे चले गये,
हमारी कहानी आगे बढ़ती
रही।
दीदी और जीजाजी पहली बार आये थे
घर पर। मुझे अपना छोटा-सा कमरा उन्हें देना
पड़ा। कोई भी मेहमान आता,
मैं बेकमरा हो जाती। मैंने
बरामदे में फोल्डिंग पलंग डाल
दिया और सो गई। गर्मियों की
रातेंज्ञ् छत पर मरियल सा पंखा घूम रहा था। किसी तरह
मुझे नींद आई ही थी कि
लगा मुझ पर कोई बोझ है। चिल्लाने के लिए मैंने जैसे ही मुंह
खोला,
किसी ने मेरे मुंह पर हाथ रख
दिया। मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आपको सीधा
करते हुए उन्हें दूर फेंक दिया।
नाइट लैंप की रोशनी में देखा,...
जीजाजी थे। मैं
थर-थर कांपती उठकर खड़ी
हो गई।
`जीजाजी,
आप,
आप यहां क्या कर रहे हैं?'
उनके
मुंह से आवाज़ नहीं
निकली, उन्होंने अपने
दोनों हाथ आगे बढ़ाये,...
शायद मुझे
पकड़ने के लिये।
`आप अंदर जाइये,
नहीं तो मैं शोर मचा दूंगी।'
गुस्से में मेरी
आवाज़ ज़हरीली हो गयी
थी।
`जाता हूं,...जाता
हूं,...लेकिन छोडूंगा
नहीं।' लड़खड़ाते हुए
भीतर चले गये। मैंने कांपते हाथों से अपना तकिया उठाया और जिस कमरे
में मां और मंझली दीदी
सो रही थीं, उसी कमरे
में फर्श पर जाकर लेट गइंर्,
अंदर से
कुंडी लगाकर। वह रात
भयावह सपनों वाली रात थी। सारी रात मुझे नींद नहीं आई। सारी
रात मैं मारे डर के रोती
रही।
अगली सुबह मैंने किसी से कुछ
नहीं कहा। घर में
पहले ही क्या कम क्लेश थे?
अगले दिन जीजाजी चले गये,
मैं सारा दिन उनके सामने पड़ी
ही नहीं।
अभी मैंने १०वीं पास की थी कि
हम कुल्लू गये थे घूमने।...बहुत सारी
सहेलियां थीं। एक लड़का जाने
कहां से चला आया पीछे-पीछे,...हमारे
ही शहर का। अकेला
पाया,
घेरा,
कहा-`प्यार
करता हूं तुमसे, शादी
करनी है।' उस वक्त तो डर
के मारे मैं
भाग खड़ी हुई। घर आकर खुशी-खुशी
सबको बताया तो मां का एक करारा झापड़ पड़ा गाल
पर,...सिर
घूम गया। गालियां अलग पड़ीं। अगले दिन लड़के को घर बुलवाया गया,
खूब
सुनाया गया,
भेज दिया गया।
हिम्मत नहीं हारी उसने फिर भी।
मेरी दोस्त से दोस्ती
कर ली। उसने मुझे समझाना शुरू
कियाज्ञ् बहुत अच्छा लड़का है,
तुझे बहुत प्यार करता
है,
तू सिऱ्फ फ्रेडशिप के लिए
`हां'
कर दे। मैंने सोचा,
फ्रेंडशिप में क्या है,
`हां'
कर दी पर डरते-डरते। फोन पर
बातें होती रहीं। फिर कहा,
मिलना है। मिलने लगे
छुप-छुपकर। तब तक भी
मुझे नहीं लगा, कुछ
प्रेम-कोम जैसा है मेरे भीतर...।
कुछ
खास किस्म की चिड़ियायें
होती हैं न, जो हर शाख
पर नहीं बैठतीं। वे कैसी चुनती हैं,
मुझे नहीं मालूम। मुझे तो कभी
चुनने का मौका मिला ही नहीं। मेरे दिल पर लगी खरोंचों
में इधर यह एक नयी खरोंच
और शामिल हो गयी हैज्ञ्`हाय,
मैंने कुछ नहीं चुना,
न हंसी,
न खुशी,
न अपने जीवन में आया कोई आदमी,
न बाज़ार में बिकने वाली कोई
चीज। जो भी
मिला,
स्वीकार कर लिया। जो किया,
वक्त की जरूरतों,
उसकी मांग और अपनी बेवकूफियों
के
चलते। जिनका खामियाजा आज तक
भुगत रही हूं।' तो प्रेम
की यह चिड़िया भी कभी मेरी शाख
पर नहीं बैठी। दूसरों की शाखों
पर इसे बैठा देखती,...अपने
रंगीन पंख
फड़फड़ाते,...तो
मन ही मन दुआ करती,...`वाहे
गुरु, ये ऐसे ही बैठी
रहे। कम-अज़-कम
देखती ही रहूं इसे।'
मां को मुझसे बहुत उम्मीदे थीं।
उन्हें लगता था, मैं
बहुत
खूबसूरत हूं,
टेलेन्टेड हूं,
किसी बड़े घर के रिश्ते के
लायक। आ भी रहे थे काफी
अच्छे-अच्छे रिश्ते। अपना
ग्रेजुएशन मैं कर चुकी थी। एम.ए. करना था अब,...
हो कुछ
और गया।
मेरा बर्थ-डे आने वाला था और वह,
दर्शन सिंह नाम है उसका,
मुझे कोई
अच्छी सी चीज गिफ्ट करना
चाहता था कुछ सूट वगैरह,...चिलचिलाती
गर्मियों के दिन थे, शाम
का वक्त और हम एक सूट ढूंढ़ रहे थे तभी किसी काम से आयी मम्मी ने हम दोनों को
एक साथ देख लिया। वे
जैसे सकते में आ गयीं,
फिर उनका चेहरा लाल पड़ गया। हमने
एक-दूसरे को देखा और सड़क पर
तेज़ी से दौड़ते हुए जाने कितनी गलियां फलांगते दूर
निकल गये। थक के चूर हो
गये, हांफ रहे थे।
`अब?'
दर्शन ने कहा।
`मैं वापस घर
नहीं जाऊंगी।'
मैंने अंतिम फैसला सुना दिया।
जानती थी, अब मां पूरा
मार कर ही दम
लेंगी।
`तो क्या करेंगे?'
उसने पूछा।
`शादी करेंगे और क्या करेंगे?'
मालूम
ही नहीं था,
क्या करने जा रही हूं। भीतर
सिर्फ डर था, भयावह डर।
मेरे पास मां
ने फीस जमा करने के लिए
दो सौ पच्चीस रुपये दिये थे,
वह थे। मैं अपने दोस्त के घर
गयी,
उसे सारी बात बतायी। उसने अपने
माता-पिता को राजी कर लिया। वे राजी हो गये,
जबकि उनकी अपनी पांच लड़कियां
थीं। काश, उस दिन कुछ और
हुआ होता। मैंने मार खाने
लायक हिम्मत जुटा ली होती,
खाती भी तो रही न आने वाले
दिनों में, किसी ने
समझा-बुझाकर घर भेज दिया
होता। कुछ भी होता, पर
वह न होता, जो हुआ...।
मुझे कई
बात लगता है, नियति आपको
नियत पथ पर ले जाती है। बस चलने से पहले हम उन
निशानों को पहचान नहीं पाते,
जो पहले ही लगाये जा चुके हैं,
तभी हर रास्ता हमें नया
लगता है,
जो होता नहीं है। आप अपने
अनजाने वहां-वहां पैर रखते हैं,
जहां-जहां की
ज़मीन आपको चुंबक की तरह
अपनी तरफ खींच लेती है।
उसके मां-बाप मेरे लिये किराये
का लहंगा ले आये।
जल्दी-जल्दी थोड़ा सा सजा दिया...। फिर जैसे गुड्डे-गुड़िया का
खेल होता है,
गुरुद्वारे में फेरे ले लिये,
हो गई शादी।
घर में सब परेशान हमें
ढूंढ़ रहे हैं। मुझे
अंदाजा ही नहीं था कि मैंने क्या किया है?
हम दर्शन के
दोस्त के घर चले गये।
रात भर डरते रहे कि अब क्या होगा?
फिजिकल रिलेशनशिप?
जो हुआ,
उसे यही नाम दिया जाना चाहिये,...एक
बेस्वाद, बेमज़ा अनुभव,
पेनफुल। हर सेकेण्ड यह
चाह कि खत्म हो तो चैन
की सांस लूं। इसकी सुंदरता तो मैंने कभी जानी ही नहीं। हां
पढ़ी जरूर है। पर क्या
पढ़ी हुई सारी बातें सच ही होती हैं?
सुबह मेरे पति की
बहिन हमें अपने घर ले
गयी। उसने मेरी मां को फोन करके सारी बात बातयी। मां ने धमकी
दी,
हम पुलिस की मदद लेंगे। बहिन ने
कहा-`पर शादी तो हो गयी
है।' उन्होंने
कहा-`हमारी
लड़की अगर हमारे सामने आकर कह दे तो हम मान लेंगे।'
मुझे वहां ले
जाया गयाज्ञ् आह,
इषिता कौर,
बड़े नरक से छोटा नरक चुनना फिर
भी बेहतर होता है, तुमसे
उतना भी न हुआ। वहां मेरे नानाजी,
मंझली दीदी,
मां और नानी मां बैठे हुए थे।
तब तक मंझली दीदी की भी
शादी हो चुकी और वो गर्मियों की छुटि्टयों में वहां आयी हुई
थी। मैंने सबके सामने
दिलेरी से कहा दियाज्ञ्`हां,
शादी मैंने अपनी मर्जी से की
है।'
मां ने हमें वैसे का वैसा घर के
बाहर जाने को कह दिया। हम उठकर बाहर आ गये।
दर्शन मुझे अपने घर ले गये।
उसके मम्मी पापा ने मुझे बहुत प्यार से स्वीकार
किया। शादी के दो-तीन
दिन बाद ही दर्शन ने मुझसे मेरे गले में पड़ी सोने की चेन
मांगी,
जो मेरी मां ने मुझे स्कॉलरशिप
मिलने पर बनवा कर दी थी। मैंने एक बार भी
नहीं पूछा कि वो चेन उन्हें
क्यों चाहिए? चुपचाप
उतारकर दे दी।
तीन महीने लगभग
ठीक-ठीक गुजरे। कभी-कभी
हम लड़े भी, पर कोई बहुत
बड़ी घटना नहीं हुई। एक महीने के
बाद ही मैं प्रेगनेंट हो गयी।
मुझे नहीं मालूम था,
प्रेगनेंसी इतनी जल्दी हो जाती
है।
उन्हीं दिनों दर्शन के तायाजी
आये हुए थे। वे एक कमरे में मेरे ससुर और
दर्शन के साथ बैठे बातें कर रहे
थे कि मैं बिन दुपट्टे के उधर से गुजर गई।
उनके
जाने के बाद दर्शन ने
कमरे में आकर थप्पड़,
घूसों, जूतों से मुझे
मारा। यह उसका
फर्स्ट अटैक था मुझ पर,
जो मेरी समझ में नहीं आया। उस
वक्त मैं बुरी तरह रो रही थी,
चिल्ला रही थी। मैंने चीखते हुए
कहा-`तुम्हें शर्म नहीं
आती। मैं प्रेगनेंट हूं,
तुम मुझ पर चढ़कर सिर्फ इसलिए मुझ मार रहे हो कि दुपट्टा मेरे सिर पर नहीं
था।' वह
गालियां बकता हुआ बाहर
चला गया।
जब मैं रो-रो के थक गई,
तो कमरे से बाहर निकली।
मेरे ससुरजी ने मुझे देख
लियाज्ञ्`क्या बात है
बेटा?'
`कुछ नहीं पिताजी,
मेरे
पेट में दर्द हो रहा
हेै।' मैंने झूठा बहाना
किया।
`तुझे डॉ. के पास ले चलूं?'
उन्हें शायद विश्वास नहीं हो
रहा था।
`नहीं पिताजी,
अब ठीक है,
ठीक हो जाऊंगी।'
फिर भी वे तुरन्त बाज़ार गये और
मुझे दवा लाकर दी। यह मेरे मार खाने के दिनों
की शुरुआत थी।
इधर मां ने मुझे माफ कर दिया था,
वापस बुला लिया। गयी कि चलो,
कुछ
दिन चैन की सांस लूं।
चैन? नानी मां ने सबसे
पहले पूछाज्ञ् `तुझे
वहां तीनों वक्त
खाना मिल जाता है?'
`ये तूने क्या किया?
अपने आपको देख,
उसको देख। क्या है उस घर
में?'
एक बार,
दो बार,
तीन बार,
हर बार यही सुनना पड़ता। ठीक है
उसमें बहुत
कमियां हंै,
लेकिन फिर भी वह मेरा पति है।
मुझे लगता था, एक दिन सब
ठीक हो जायेगा
यह जाने बिना कि ठीक माने क्या?
हर त्यौहार पर हम तीनों को कुछ
न कुछ मिलता था, दोनों
बहनों को उनकी वजह से मिलता था। मुझे इसलिये कि मेरे पास नहीं है। मेरा पति
नहीं कमाता। मैं बेचारी
हूं।
फिर मेरे ससुर की मौत हो गयी,
शादी के तीन महीने
बाद मेरी सास नेे उनकी
चादर का एक धागा निकालकर मेरे अंगूठे पर बांध दिया। मुझे
नहीं मालूम था,
क्यों बांधा है?
बाद में पता चला,
प्रेगनेंट लेडी को बांधना जरूरी
होता है,
मां ने पूछाज्ञ्`क्या
तू प्रेगनेंट है?'
मैंने धागा उतार दिया,
कहा...`नहीं।'
`देख,
प्रेगनेंट मत होना। अभी तुझे और
पढ़ना है।' शायद वे ठीक
कहती थीं,
पर तब तक बहुत देर हो चकु थी।
मैंने सात महीने अपने पेट को दुपट्टे से
बांध कर रखा-सास भी इस बीच मुझे
बेसहारा छोड़ चल बसी थी। बच्चा कभी मेरी दायीं तरफ
चला जाता,
कभी बायीं तरफ। मुझे डर लगने
लगा, कहीं बच्चे को कुछ
हो न जाये। सात
महीने बाद मुझे अपनी बड़ी बहिन
को बताना पड़ा। उन्होंने मां को बताया। वे बहुत
गुस्सा हुई थीं।
जब मैं घर वापस आयीज्ञ्अपना घर,
जिसे कहते हैज्ञ्दर्शन के साथ
उसकी कजिन रह रही
थी-उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिये। वह दिल्ली में रहती थी,
तलाक हो चुका था,
उसी वक्त मुझे जब तब दर्शन का
दिल्ली जाने का राज़ समझ में
आया।
वह मेरे आने की पहली रात थी,
जब मेरे सामने दर्शन ने उसे
अपने साथ बिस्तर
पर आने को कहा। वह हंसती हुई
मेरे सामने मेरे ही बिस्तर पर लेट गई।
विवाद का
मतलब था,
एक और मार और वह भी लड़की के
सामने। मैं दुख और गुस्से से विक्षिप्त होकर
कमरे से बाहर भागी। उस रात मेरे
सहने की सभी सीमाआें का अतिक्रमण हो गया।
मैंने
खुद को सामान रखने की
कोठरी में बंद किया और दीवारों से सिर टकरा-टकराकर दहाड़ें
मार-मारकर रोती रहीज्ञ्
मैं ज़ख्मी थी, अंदर से
भी, बाहर से भी। घरों
में सामान
रखने की भी एक ठीक-ठाक जगह होती
है, औरत की उतनी भी
नहीं।
पेट धीरे-धीरे बड़ा हो
रहा था। सातवें महीने के
बाद मैंने पेट पर दुपट्टा बांधना छोड़ दिया था। मेरी
डिलेवरी में दो महीने
बाकी थे, मुझे पैसों का
प्रबंध करना था। वैसे भी मैं
धीरे-धीरे अपनी ज्वेलरी बेच रही
थी, वह भी जो मुझे मेरी
सास ने दी थी। दर्शन के पास
कोई काम तो था नहीं। वह सारा
दिन सोया रहता, रात नौ
बजे से दारू के साथ जो टी.वी.
के सामने बैठता तो ढाई-तीन तक
बैठा रहता। उसे अपनी शराब के लिये पैसे न मिलते तो वह
कभी घर की चीजें तोड़नी
शुरू कर देता, कभी मेरे
हाथ-पैर। उस वक़्त मैं कोई रिस्क
नहीं ले सकती थी। जो मांगता,
चुपचाप दे देती।
मेरे पास मेरे आखिरी इयर रिंग्स
बचे थे। सत्रह सौ में
बेचकर मैंने अपनी डिलेवरी के पैसों का इंतजाम किया।
आखिर
वह दिन आ गया-लेबर पेन
का वह वक़्त। दर्शन शराब के नशे में धुत सो रहा था। मैंने
अपनी पड़ोसिन की मदद ली,
जिसके बच्चे को मैं पढ़ाया करती
थी। पिछले कुछ महीनों से
मैं छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन
पढ़ाया करती थी। एक बार इसी के हसबैंड से बात करने
पर दर्शन ने मुझे मारा
था। मैं किसी भी पुरुष से बात करती तो वह पूछता, `तेरा
उससे
क्या रिश्ता है?'
जबकि वह सब मेरे काम का ही
हिस्सा था। कोई अपने बच्चे की बावत
पूछने आता तो मैं क्या कहतीज्ञ्
`मुझे आपसे बात नहीं
करनी।'
हम सरकारी अस्पताल
पहुंचे। वह मुझे एडमिट
कराकर अपने घर लौट गयी,
उसने मेरी मां को फोन करके बता दिया।
मां दो घंटों के बाद पहुंची,
जबकि मैं वहां सदियों से छटपटा
रही थी, नर्सों और
दाइयों की उपेक्षा का
शिकार हो रही थी। उन्हें यह अच्छी तरह मालूम होता है कि कहां
से क्या मिलेगा,
वे उसी तरह व्यवहार करती हैं।
यह बात मुझे कभी समझ नहीं आयी कि
औरतें अपने दर्द को साझा क्यों
नहीं समझती? जबकि हम सब
कमोबेश एक जैसा दर्द जीते
हैं,
फिर भी ऐसा दिखाते हैं,
जैसे दूसरे से बेहतर हैं। अपनी
किसी काबिलियत की वजह
से नहीं,
सिऱ्फ इसलिए कि इत्तफाकन उनके
पति अच्छा कमाते हैं,
उनके पास पैसा और
दूसरी सुविधाएं होती हैं।
जब वे आयीं,
मैंने आंसुआें और कराहों से
भीगा चेहरा
उनकी तरफ कियाज्ञ् उन्हें थामने
को अपना एक हाथ आगे बढ़ाया। वे मेरे सामने रखे
स्टूल पर बैठ गयींज्ञ् `देखा,
कैसे होता है दर्द?
ऐसा ही दर्द मुझे भी हुआ था,
जब
मैंने तुझे पैदा किया था
और तूने मुझे क्या दिया?'
यह उनके आने के बाद का पहला
वाक्य था। मैंने बाहर
आती अपनी हिचकियों को अपने अंदर खींच लिया। हवा में झूलते हाथ
से लोहे के पलंग की पाटी
पकड़ लीज्ञ् मैं अपने मन में `पाठ'
करने की कोशिश करने
लगी। शब्द मेरे होंठों
तक आते-आते बिखर जाते। या तो उन पर हिचकियों की मार
पड़ती या
वे आंसुआें में बह जाते।
मेरे पास सिर्फ ज़ख्म थेज्ञ् मेरे नंगे शरीर पर,
नंगी आंत
पर,
नये-पुराने,
ताज़े,
उधड़े,
सिये,
हर किस्म के ज़ख्म,...
किस्म-किस्म के
ज़ख्म।
वह पूरी रात,...
कयामत की रात गुजर जाने के बाद
सुबह मैंने एक बच्ची को
जन्म दियाज्ञ् मां ने उपेक्षा
से उस मांस के जीवित लोथड़े को देखाज्ञ् `वाहे
गुरु, फिर लड़की?
किन पापों का दंड दे रहा है तू?'
उन्होंने उसे मेरी बगल में लिटा
दिया,
उपेक्षा से। मैंने उसके सिर पर
अपना हाथ रखा, `वाहे
गुरु, इसे ऐसा एक भी दिन
मत दिखाना,
जैसे मैंने देखे हैं।'
मैंने उसके माथे पर अपने होंठ
रखे और उसे चूम
लिया। वह मेरे `मैं'
का हिस्सा थी। अभी तक मैं अकेली
थी, उसने आकर मेरा हाथ
थाम
लिया।
तीन दिन रहे हम वहां। कोई मेरे
लिये न अच्छा खाना लाया,
न कोई मिलने आया।
मैं उधार की रोटी खा रही थी।
मैं लौट आयी फिर उसी दुनिया में,
फिर उसी तरह जीने
के लिये।
कभी-कभी जहर के आखिरी प्याले की
तरह मैं इस दुनिया को पीती। मुझे लगता,
अब यह खत्म हो जायेगा और मुझे
इस यातना से मुक्ति मिलेगी। पर ऐसा होता नहीं और मुझे
हर बार यही प्याला पीना
पड़ता। मनुष्य को कोई भी यातना नहीं मार सकती,
वह हर बार
लौट आता है,...
फिर नयी तरह से शुरू करने की
चाह में,... जानते हुए
भी कि कुछ भी नई
तरह नहीं होगा,
हम अभिशप्त हैं बार-बार वही
जीने के लिये।
घर लौटे
तो क्या था वहां? मैंने
तीन महीनों के लिए पढ़ाना बंद कर रखा था। खर्च कैसे
चले?
मेरी छातियों में दूध नहीं उतर
रहा था। बच्ची जितनी देर जागती।... रोती
रहती,...
उसके होंठ नीले पड़ जाते। तब
मैं पानी में चीनी डालकर उसे पिलातीज्ञ् `ले
दूध पी ले,
दूध पी ले'।
कहना पड़ता है बार-बार,
अगर वह चीज जो आप दे रहे हैं,
न हो
आपके पास। कुछ भी तो
नहीं था मेरे पास। वे दिन,...
जब समय भूखे खूंखार कुत्ते की
तरह आप पर टूट पड़ता है,
आपकी बोटियां चबाने लगता है। आप
सोचते हैं, आधे में न
फेंक
दे,
पूरा ही खा ले एकबारगी तो
मुक्ति मिले। मुक्ति?
दर्शन अपनी हरकतों की वजह से
इतना बदनाम था कि कम ही
लोग आते हमसे मिलने। जो भी आता,
मेरी वजह से। मैं बच्चों को
प्रिय थी। उनकी मांयें
कभी-कभी आकर कहतींज्ञ् `जो
हम सालों में न कर पाते,
आपने
महीनों में कर दिया। हमारा
बच्चा आपको छोड़कर कहीं जाना ही नहीं चाहता।'
सोचती,
क्या किया है मैंने?
अपने लिए तो कभी कुछ नहीं कर
पायी, इतने सालों बाद
भी। कोई
पांच रुपये दे जाती तो सोचती,
चलो दो वक्त की दाल का प्रबंध
तो हो ही गया। सारे
डब्बे खाली पड़े थेज्ञ् दाल के,
चावल-आटे के।
ग्यारह दिन बाद मां ने बुला
लिया, गई। घर में पंजीरी
बनी जो डिलेवरी के बाद औरत को खिलाते हैं। खुशी हुई कि कोई पहली
बार मेरे लिए कुछ कर रहा
है। पर वह मेरे लिये नहीं थे,
डिब्बा भर के मंझली दीदी को
भेज दिया गया। उसने
कहलवाया था, मां सर्दी
बहुत है और मेरा मन पंजीरी खाने का कर
रहा है।
घर में बच्ची को कोई नहीं उठाता
था। कहते, ये रोती बहुत
है, हम नहीं
उठायेंगे। मुझमें ताकत
नहीं थी। फिर भी सबेरे जल्दी उठकर मैं घर के सारे काम करती,
वहां रहने की कीमत जो चुकानी
थी। आखिर एक महीने के बाद मैं वापस आ गयी। जैसे गई थी,
वैसी। नहीं,
कुछ खरोंचें और लगवाकर।
दर्शन बड़े मज़े से उस लड़की के
साथ घर पर
रह रहा था कभी उसने मुझे
बुलवाने की कोई कोशिश नहीं की। पता नहीं वे क्या
बनाते-खाते होंगे,
घर में तो कुछ है नहीं। मुझमें
न विद्रोह की ताकत बची थी उस समय,
न इच्छा। मैं चुपचाप बच्ची को
लेकर अपनी कोठरी में चली गई। जितने दिन वह रहती,
मैं
उनकी नज़रों में अदृश्य
रहने की कोशिश करती।
अगले ही दिन से मैंने ट्यूशन
शुरू
कर दिये। जो पहला एडवांस मिला,
घर का राशन और बच्ची के लिए दूध
ले आयी। मैंने डांस
और क्लासिकल म्यूजिक में भी
डिप्लोमा किया था। मेरी आवाज़ में कुछ था जिसे मैं दुख
कहती थी,
दूसरे कशिश। डांस तो मैं इतनी
जल्दी कर नहीं सकती थी,
काफी कमजोर थी।
म्यूजिक सिखाना शुरू कर दिया।
जब मैं गाती सारे बच्चे मंत्रमुग्ध हो जाते। मेरा
पसंदीदा गीत था शिवकुमार
बटालवी का जिसे जाने कितनी रातों मैंने रो-रोकर गाया था,
सिर्फ अपने लिएज्ञ्
`गमां दी रात लम्मी ऐ जां मेरे
गीत लम्मे एें। ना भैडी रात
मुकदी ऐ,
ना मेरे गीत मुकदे ने।'
(गमों की रात लम्बी या मेरे गीत
लम्बे हैं। ना
यह खौफ़नाक रात खत्म होती है,
न मेरे गीत खत्म होते हैं।)
खैर,
इस तरह से मैं
तीनों वक्त खाने का और
बच्ची के दूध का इंतजाम करने में सफल रही।
धीरे-धीरे मेरे
पास उन लोगों की कतार
आनी शुरू हो गई, जिनसे
मेरे प्रसव के दौरान दर्शन ने अपनी
शराब और रोटी के लिए कर्ज लिया
था। लोगों ने भी सोचा होगा,
कहां जायेंगे,
मैडम
पढ़ाती है। अब वे भी
चुकाने शुरू किये, महीने
के अंत में हाथ फिर खाली का खाली। तीन
ही महीनों बाद मैंने स्कूल में
नौकरी कर ली। मैं सुबह चार बजे उठती,
दोनों वक्त का
खाना बनाती,
छ: बजे घर से निकल जाती,
बारह बजे मुझे एक हॉस्टल में
ड्यूटी देनी
होती,
जिसका मुझे हजार रुपये अतिरिक्त
मिलता था। शाम छ: बजे घर आती तो ट्यूशन के
बच्चे इंतजार करते मिलते। आठ
बजे तक उन्हें पढ़ाती,
फिर रात का खाना, बच्ची
को
संभालना और दूसरे कई काम। दिन
में बच्ची को संभालने के लिए मैंने दस-ग्यारह साल की
एक गरीब लड़की को रखा
हुआ था जिसके खाने-पीने,
कपड़ों और घरेलू पढ़ाई का प्रबंध मैं
करती।
दर्शन दिन भर घर पर रहता। रात
नौ बजे से उसकी टी वी और दारू चालू हो जाते,
जो ढाई बजे तक चलते। टी वी के
शोर में मैं सो न पाती। डेढ़-दो बजे रात उसे अपनी
बेटी के लिये प्यार
जागता, वह सोई हुई बच्ची
को अपनी गोद में उठा जगा देताज्ञ् मेरी
पुत्तर,
मेरी जान! वह डिस्टर्ब होकर
रोने लगती। अब मुझे फिर सुलाना होगा। रात दो
बजे वह मुझसे कहताज्ञ् `उठो,
मुझसे बात करो।'
मेरे लिये सोने का समय ही कितना
होगा? सुबह चार बजे मैं
अपना टूटा बदन लेकर फिर उठती,
एक नई जंग के लिये।
हम दोनों के
बीच बहुत लड़ाइयां होती
थीं। जाने कितनी बार डिप्रेशन में मैंने अपने कपड़ों को
फाड़ा होगा,
जाने कितनी बार अपना सिर दीवार
से टकरा-टकराकर खुद को घायल किया होगा।
ज़मीन पर बैठकर,
चिल्ला-चिल्लाकर रोती थी
मैंज्ञ्
`मैंने गल्ती की है,...
हां,
मैंने गल्ती की है,
पर मुझे अभी और कितनी सजा
मिलेगी.. कितनी ?'
तकिये में मुंह
गड़ाकर मैं चिल्लाती थी,
रोती थी। वह सब असहनीय था। एक
बार मैंने अपने कपड़ों तक को
आग लगा दी थी,
फिर भी बच गयी,
सजायें बाकी थी न,
इसलिए। धीरे-धीरे मेरा डिप्रेशन
और
बढ़ने लगा,
मुझे दौरे पड़ने लगे गुस्से के,
रोने के,
चिल्लाने के। मुझे हर चीज से
नफरत होने लगा,
दर्शन से सबसे ज्यादा। अपने
आपसे और भी ज्यादा।
उसे बिजली का बिल
भरने को पैसे देती या
कुछ लाने को या राशन वाले को देने को,
वह अपने पास रख लेता।
उसके कर्ज तो मैं तलाक
के दो साल बाद तक भी उतारती रही। एक बार कहाज्ञ् `जीप
खरीद
दो,
किराये पर चलायेंगे तो कुछ मेरा
भी बोझ हल्का होगा। फायनेंस करा लेते
हैं...।'
उसने पता नहीं क्या किया?
मुझसे रुपये लेता रहा,
जीप कभी आयी नहीं। चार
साल,...
पूरे चार साल मैंने सहा वह सब
फिर जैसे हर चीज का अंत आ जाता है मेरे धैर्य
का भी अंत आ गया।
मैं छुटि्टयों में मां के घर
आयी हुई थी और उनसे अपनी बात कहने
के सही वक्त का इंतजार करने
लगी। नानीजी की लगातार बीमारी,
इस बीच नानाजी भी नहीं
रहे थे,
उनको हॉस्पीटल में एडमिट कराया
जाना, भागा-दौड़ी,
बाज़ार से सौदा सुलफा
लाना,...
रोज़मर्रा के काम,...
मां कबकी रिटायर हो चुकी थी।
उन्हें पांच हजार रुपया
महीना पेंशन मिलती। हम नानाजी
के ही बनाए हुए घर में रह रहे थे और उनकी मृत्यु के
बाद उनकी ही जमा पूंजी
खा रहे थे, जो धीरे-धीरे
खतम होती जा रही थी और दूसरी चीजों
की तरह। मैं यहां रहती तो हमेशा
की तरह सारे घर का बोझ मुझ पर आ पड़ता। अपर्णा अब
पढ़ने लगी थी,...
अपनी परेशानियों में मैं इतनी
उलझी थी कि उस पर ठीक से ध्यान नहीं
दे पा रही थी। वह मुझे कई बार
अजीबोगरीब हालत में देखकर डर जाती होगी।
आखिर एक
दिन मैंने मां से कह
दिया, मैं वापस नहीं
जाऊंगी वहां, मुझे तलाक
चाहिए। जाने
उन्हें मेरी जरूरत थी इसलिये या
दर्शन शुरू से ही उन्हें नापसंद था,
उन्होंने ज़रा
भी विरोध नहीं किया। मैं
अपनी रोटी तो खुद कमा-खा ही रही थी,
अक्सर उनकी भी मदद
करने लगी। उन्होंने
अमेरिका फोन करके अपने भाइयों को सारी बातें बतायीं...। उनका
जवाब था, `अगर
इषिता नहीं चाहती तो वहां मत भेजो उसे। इंडिया में यह बड़ी बात होगी
यहां आम बात है। लोगों
की मत सोचो, उन्हें
धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है।'
जैसे हमें
पड़ जाती है,
कैसे भी जीते चले जाने की,
उम्मीद न छोड़ने की।
और तलाक के लिये
पेपर तैयार कर लिये गये।
मैं एक साल से यहीं थी,
मां के घर। मेरे आने से उन्हें
काफी आराम हो गया था। रूटीन तो
अब भी वही था, अपर्णा अब
भी उपेक्षित,... जितनी
देर
घर में रहती,
नानी मां की डांट खाती रहती,
जितनी देर स्कूल में रहती,
अपनी टीचर की।
मैं घर में इतना कम वक्त
रहती कि उस पर ध्यान ही न दे पाती। इन सारी चीजों के अलावा
मुझे एम ए भी करना था,
आखिर कब तक उस छोटे से स्कूल
में टिकी रहती?
वे गर्मियों
के दिन थे। बहिनें आयी
हुई थीं। नया सत्र १५ जुलाई से था,
मैंने अपना एम ए का फार्म
भी भरना था,
फिर बी एड. भी करना था। मैं
आधी-आधी रात तक सारे काम निबटाने के बाद
पढ़ती,
जबकि वे सब आराम से बैठे बतिया
रही होतीं।
ऐसी ही कोई रात होगी
पढ़ते-पढ़ते मेरी आंख लग
गयी कि नींद में मुझे लगा,
मेरी कमर पर कुछ रेंग रहा है।
मैंने करवट बदलनी चाही,
बदल न सकी तो नींद खुल गयी,
झटके से उठकर बैठ गयी,...
मंझले
जीजाजी थे। हैरत से मेरी
आंखें फटी की फटी रह गयीं। मुझे उनसे यह उम्मीद नहीं थी।
बगल में मेरी बच्ची सो
रही थी।
`जीजाजी,
आपको शर्म नहीं आयी यहां तक आते
हुए।' मेरे मुंह से
सिर्फ इतना निकला। हमेशा की तरह मैं बुरी तरह डर गयी थी।
`तुझे एक
साल हो गया यहां रहते,
तुझे भी लगता होगा न,
इसलिए सोचा,...
जब मैं हूं ही
तो।'
बस,
मैं गुस्से से पागल हो गयी।
इधर-उधर देखाज्ञ् पीतल का फूलदान था पीछे-
बहुत पुराना,...
उठा लिया।
`आप बाहर जाइये,
नहीं तो दोनों में से एक ही
बचेगा।'
वे एक ही छलांग में बिस्तर से
नीचे गये, फिर बाहर। मैं
कमरा अंदर से बंद
कर लिया। सारी रात रोती रही।
मैं कुछ भी नहीं,... कुछ
भी नहीं। कोई भी आकर मुझे
रौंद सकता है। मेरी कीमत किसी
भी चीज से कम है।
सुबह मैंने पिछली बार की तरह
किसी से कुछ नहीं कहा।
दोपहर को मंझली दीदी मेरे पास आयी।
`चल,
अपने जीजाजी से
ज़रा भी बात कर लें। तू
बात करेगी तो उनका मूड ठीक हो जायेगा।'
मैं क्या कहकर
मना करती?
मैं उनके साथ गई। उनके सामने
बैठ गई। मझे देखते ही वे खुश हो गये। बस
इतनी ही उपयोगिता थी मेरी।
मुझे अपनी बहिन बड़ी निरीह सी
जान पड़ती। क्या है
हमारे पास?
आधे कटे चेहरे,
आधे कटे लिबास,
कटा-कटा डर,
दागदार जीवन और इसी को बचाने
हम अपने आपको लुटा देते
हैं।
क्या है हमारे जीने की
अर्थवत्ता? क्यों हैं हम?
मात्र किसी न किसी की जरूरत को
पूरा करने के लिए। ओ संसार की स्त्रियो,
कभी तुमसे
कोई प्यार के दो बोल
बोले तो सबसे पहले सोचना,
कहीं उसे तुम्हारी जरूरत तो
नहीं ?
जब अतीत की गठरी उठाना मेरे
लिये असहनीय हो गया,
मैंने उसे कागजों पर परत दर
पर जमाना शुरू किया। आसान नहीं
थी यह प्रक्रिया। हाथ जख्मी होते,
पोर निरन्तर रिसते
रहते। खून स्याही की जगह
ले लेता,... खुद को
विस्तार देता जाता। कभी-कभी कोई यातना
शब्दों से उठकर मेरा मुंह तकती,...
ज़ख्मी,
निरीह,...
नंगी यातना। जिसे फिर अपनी
हथेली से मैं उसी हिस्से
पर दाब देती, जिसके लिए
वह चुनी गयी है। हां, हम
यातनायें
चुनते हैं,
लिखने के लिये भी,
जीने के लिये भी। न लिख पाते
ठीक-ठीक, न जी पाते। रात
के अंधेरे में वे खूंखार
बिल्ली सी हम पर जम्प लगा देतीं और मरियल चूहे सा मुंह में
दाब अंधेरे में गायब हो
जाती।
बहुत वक्त लगा उसके मुंह से खुद
को छुड़ाने में।
अब वह जम्प लगाने की हिम्मत
नहीं करती, अंधेरे कोने
में बैठी टक लगाकर घूरा करती है
अपनी चमकती आंखों से। मैं भी
ढीठ,... उसकी तरफ उस तरह
देखती ही नहीं!
मैंने ये
बहुत देर से जाना कि मैं
हूं, कि मैं सुंदर हूं,
कि मेरे भीतर कुछ ऐसा है,
जो
दूसरों के पास नहीं है
कि मेरे पास अपने पैर है,
जिन पर मैं खड़ी हूं,...
मैं चल
सकती हूं,...
मैं चल रही हूं।
मैंने एम ए भी कर लिया,
बी एड. भी। दूसरे बड़े
स्कूल में आ गयी। वेतन
भी बढ़ गया। अपर्णा को भी अतीत के उन काले भयानक पंजों से
निकाल लायी। खुद को भी,...
पर पूरा नहीं। जो मेरे लहू-मांस
में खुद चुका, उससे किस
तरह अलग हुआ जा सकता है।
मैं बच्चों के बीच जीती हूं,
उन्हें खुश देखना चाहती
हूं,
उनके लिये एक ऐसी दुनिया रचना
चाहती हूं, जहां वे सब
चीजें न हो, जो मैंने
देखी हैं,
खासतौर पर लड़कियों के लिये।
हर रोज़ खुद को लिखना,
खुद को मिटाना,
खुद को ठीक करना,...
खुद को पाने का यह कैसा बीहड़
रास्ता है,... जहां
छूटती है
अपनी ही उंगली बार-बार,...
उसी आकांक्षा की टिमटिमाती लौ
में चलना लगातार।
मेरे
सामने एक काली अंधेरी
रात है, मेरे हाथ में
मेरी बच्ची का हाथ और हम उस सुबह तक
चलना चाहते हैं,
जो मेरे ख्वाबों में है।
जया जादवानी
5 नवंबर
2005
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