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नीली स्याही का सच

“माँ” दुखों का गजरा बनाकर अक्सर बालों में लपेट लेती और घर के पीछे वाले बागीचे में पेड़ों को घंटों निहारते हुए न जाने क्या बुद्बुदाती रहती थी.मैं दबे कदमों से उनके पीछे खड़ा सुनने की कोशिश करता कि आखिर माँ कहती क्या हैं..लेकिन पक्षियों की चहचहाहट और हवा की सरसराहट के बीच उनकी भाषा को कभी समझ नहीं पाया..माँ का स्कूल से लौटना फिर मुझे खाना देने के बाद पीछे बगीचे में ज़रूर जाना..मैं अनुमान ही लगाता कि पापा से जुड़ी कोई याद होगी,जिससे माँ को वहाँ सुकून मिलता होगा..अपना कहा-अनकहा दुःख दर्द वो पौधों में पानी देकर बहा देती थी..

आज मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें कभी न छोड़कर जाने के किये गये वादे पर....इस नियुक्तिपत्र को देखकर क्या प्रतिक्रिया होगी?
नियुक्तिपत्र कभी दराज़,कभी किताबों के बीच रखता मैं, किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा था..मेरी कश्मकश चेहरे पर उतर आई थी,जिसे दूर खड़ी माँ ने पढ़ लिया था.
“क्यूँ परेशान हो..क्या है तुम्हारे हाथ में?”किताब से निकालकर बेड में छिपाते हुए माँ ने पकड़ लिया था.
“मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा,यहीं कहीं कोई नौकरी तलाश कर लूँगा”एक ही सांस में मैं बोल गया था..नियुक्तिपत्र मेरे हाथ से छूटकर नीचे गिर गया.
माँ की नर्म हथेलियाँ मेरा माथा सहलाने लगी..उनके एक हाथ में मेरा नियुक्तिपत्र था..दूसरे हाथ से मेरी उलझन का सिरा मजबूती से पकड़े,अपनी उँगलियों को मेरे बालों में घुमाने लगी.
उन्होंने आँसुओं को आँखों में और हिचकियों को गले में ही रोक रखा था...उनके होठों का कम्पन किसी आश्वासन की भाषा गढ़ रही थी और मैं इस बार समझ पा रहा था..
पापा के जाने का दुःख उन्होंने कभी भी उन परिस्थितियों में व्यक्त नहीं किया,जब मेरी कोई उपलब्धि हो, ख़ुशी हो...माँ के हाथ का स्पर्श मेरे सर पर धीरे-धीरे हल्का होता गया..इस हल्के होते स्पर्श में मौन स्वीकारोक्ति थी.
माँ बिना बोले अपने निर्णय में स्पष्ट थी...पहली बार माँ के साये से दूर किसी अनजान जगह पर जा रहा था..मैंने अपनी घबराहट समेटी और माँ ने अपनी बेचैनी ...एक दूसरे को मुस्कराहट के साथ तसल्ली देते विदा हुए....

चेहरे पर पड़ते पानी के बौछार और हवा के झोंकों से अहसास हुआ कि मैं झरने के तट पर आराम करता हुआ सो गया था..मुझे शोघी आये 1 महीना हो रहा था .सोलन के पास का शोघी गाँव अपने आप में बहुत खूबसूरत जगह थी लेकिन लोग यदा-कदा ही दिखाई देते थे..

ऑफिस ख़त्म होने पर, सन्नाटों से उबा हुआ मैं, घाटियों को देखता हुआ,झरने के पास आकर अक्सर आकर बैठ जाता था.सूरज की कम होती रौशनी देख मैं गेस्टहाउस की तरफ चल पड़ा.पतली-पतली पगडंडियाँ तमाम मोड़ों को खुद में समेटे थी..मैं हल्की ढलान पर अपने को रास्तों के हवाले कर चल रहा था अचानक कानों में साइकिल की घंटी की आवाज़ ने मुझमें उत्साह भर दिया..मैं अपनी चाल को साधता हुआ घंटी की आवाज़ को खोजने लगा..तभी न जाने किस मोड़ से पोस्टमैन मेरे सामने देवदूत सा खड़ा हो गया..


खिचड़ी होते बाल,अधपकी दाढ़ी,आँखों पर चढ़ा चश्मा चेहरे पर किसी तनाव का न दिखना,मुझे सुखद लगा.
“काका”अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया.उनके चेहरे पर आये भाव से स्पष्ट था कि मेरे अपनत्व भरे शब्द के अर्थ से वो खुद को जोड़ नहीं पा रहे हैं.शायद उनके लिए ये शब्द नया था.मैं उन्हें नेह की भाषा में काका शब्द का अर्थ बता पाता उसके पहले ही उन्होंने निर्विकार भाव से अपने बैग से एक पत्र निकाला और मुझे थमा दिया.
“आप मुझे पहचानते हो?”पत्र उलटते-पलटते हुए मैंने पूछा.
“यहाँ लोग ही कितने हैं”यह प्रश्न था या जवाब मेरे उलझने से पहले ही वो बोल उठे “आजकल चिठ्ठियाँ लिखता ही कौन है?”
“माँ लिखती हैं न..वो फोन का प्रयोग सिर्फ कॉल अटेंड करने के लिए करती है” बातचीत बढाने की ग़रज़ से मैंने कहा.
“चलता हूँ अँधेरा होने से पहले घर पहुंचना है”कहते हुए पोस्टमैन ने अपनी साइकिल मोड़ ली.बातचीत का इतना छोटा सिलसिला मुझे थोड़ा दुखी कर गया..अकेलेपन से डरा मैं ढेर सारी बातें करना चाहता था..लेकिन उन्हें इस बात का अनुमान कैसे होगा? अपने आप को समझाते हुए मैं गेस्टहाउस की तरफ चल पड़ा.
गेस्टहाउस के बाहर लैम्पपोस्ट की पीली रौशनी इतना उजाला कर रही थी कि मैं दरवाज़े का लॉक खोल सकूँ.चिठ्ठी माँ की थी..आराम से पढनी थी..किचेन में जाकर चाय बनाई और खिड़की पर बैठकर पढने लगा..पूरी चिठ्ठी में माँ ने कहीं ज़िक्र नहीं किया था कि मेरे वहां से आने के बाद उन्हें कोई कष्ट भी है..मैं दो लाइनों के बीच छोड़ी जगह में तलाशने लगा, माँ का आँसुओं से भरा चेहरा लेकिन मुझे उनका जूड़े में लिपटा हुआ गजरा ही दीखा .दर्द को इतने कस कर कैसे लपेटकर रख पाती है माँ...मेरी भींगी आँखें फोन की तरफ चली गयी,कॉल मिलाया लेकिन नेटवर्क की वज़ह से बात नहीं हो पाई..कल ऑफिस से फोन कर लूँगा यही सोचता हुआ मैं बिस्तर पर लेट गया.

एक दिन जब मैं ऑफिस से लौट रहा था,सब्जी-भाजी साइकिल पर लादे हुए पोस्टमैन काका दिखे..मेरी चाल धीमी हो गयी.मेरा ध्यान साइकिल के कैरियर में रखी सब्जियों के बीच फंसी किताब पर गया..किताब हिंदी की थी.इस पहाड़ी क्षेत्र में किसी के पास हिंदी की किताब देखकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ.
“ये किताबें कौन पढ़ता है काका?”मैंने जानबूझकर उन्हें काका बुलाया क्यूंकि मुझे वो इस सम्बोधन के हक़दार लगते थे.
“मेरी बेटी पढ़ती है न” स्टैंड पर साइकिल खड़ी करते हुए काका बोले.
“आसपास कोई लाइब्रेरी है क्या..मेरी बोरियत को कुछ तो सहारा मिलेगा”मैंने पूछा.
“हाँ हाँ आपके ऑफिस के पीछे ही छोटी सी है....वैसे मेरी बेटी के पास भी किताबों का कलेक्शन है”
मैं हाँ हूँ करता रहा लेकिन मेरी नज़र किताब के पर टिकी रही.
“अगर अभी पढ़नी हो तो इसे ले लीजिए”वो मेरी उत्सुकता समझ गये थे.उन्होंने कैरियर से निकाल कर किताब मुझे पकड़ा दी.मैं आज के उनके आत्मीय व्यवहार से समझ नहीं पा रहा था कि कुछ दिन पहले मिला इन्सान और आज के इन्सान में,इतना परिवर्तन कैसे आ गया.मैं उन्हें ध्यान से देखने लगा.
मेरे माथे पर पड़े बल को भाँपते हुए उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई और मेरी आँखों में आँखें डालकर बोलने लगे “काका...काका मतलब चाचा...चाचा मतलब पिता का भाई...है न ?”वो हँसते हुए मुझे समझा रहे थे...मैं इतना तो समझ रहा था कि काका पिछले दिनों के अपने रूखे व्यवहार पर परदा डाल रहे थे...लेकिन
थोड़ी देर ही सही..मेरे आत्मीय शब्दों को उनके स्नेह का सम्बल मिल गया था.अनजान जगह पर किसी एक का भी क्षणिक साथ मिल जाना,ईश्वर की नियामत ही होती है.

किताब हाथ में लिया तो खुश्बू सी महसूस हुई..अक्षर भी महकते हैं क्या अपने आप से प्रश्न था मेरा.“हाँ..हाँ क्यों नहीं..अक्षर महकते हैं,शब्द नाचते हैं..वाक्य मनुहार करते हैं” मेरा आत्मालाप,मुझे अलग दुनिया में ले जा रहा था.चाय की तलब गायब हो चुकी थी..किताब देख मुझसे रहा नहीं जा रहा था.मैं बिना खाना खाये उसको पलटने लगा..कहानियों का संग्रह था..एक के बाद एक कहानियां पढ़ता गया.मेरी रूचि कहानियों से ज्यादा उसमें लिखे रिमार्क में थी..लगभग हर पन्ने के दो लाइनों के बीच में कुछ न कुछ ऐसा लिखा होता था,जिसे पढ़कर मैं,कुछ न कुछ सोचने को मजबूर हो जाता.

“प्यार एक अबूझ सी चिड़िया है जो समय रहते समझ में न आई तो उड़ जाती है”
नीली स्याही से लिखी ये इबारत बहुत देर तक आँखों में टिकी रही,कब पलक झपक गयी पता ही न चला.
सुबह की ठंडी हवा खिड़कियों के काँच पर बूँदों से नक्काशी करती हुई दिख रही थी ..दरवाज़ा खोलकर देखा तो हर फूल हर पौधे खुश लग रहे थे.उन्हें देख मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी..तभी दूर से पोस्टमैन काका आते हुए दिखे मेरे चेहरे की ख़ुशी चमक में बदल गयी.

“अरे आप तो भीग गये हैं..अंदर आ जाइये काका..पंखे की हवा में आपके कपड़े सुखा दूँ” मेरे आग्रह में मेरा अपना सुख था लेकिन वो बरामदे में ही मोढ़ा खीचकर बैठ गये..
माँ की चिठ्ठी से पानी की बूँदों को झाड़ते हुए बोले-“बारिश की फुहार को मेरा शरीर पहचानता है चिंता न करो.अपने आप सूख जायेगा”
झुर्रियों की महीन दस्तक में जिजीविषा दिख रही थी.उनकी स्नेहिल मुस्करान का समर्थन अपनी मुस्कान से करता हुआ मैं,चाय बनाने के लिए अंदर चला गया.
“लीजिये काका गरम-गरम चाय” मैंने चाय पकड़ाई तो उन्होंने दूसरे हाथ से एक किताब मुझे पकड़ा दी.
ख़ुशी मेरी आँखों से टपकने लगी.इस चक्कर में चाय थोड़ी छलक गयी.
“एक बात बताइये काका,इन किताबों में लाइनों के बीच में अपनी लाइनें कौन लिखता है” मैंने ये पूछते हुए एक बार में ही पूरी चाय सुड़क ली.
मेरी इस जिज्ञासा पर उनकी आँखों में नमी उतर आई और बोले कि “मेरी बेटी लिखती है”
मुझे और भी सवाल करने थे उनसे लेकिन उनकी आँखों नमी ने इजाज़त नहीं दी. बाहर बारिश रुक चुकी थी..बादलों के कुछ फाहे अब भी आसमान में घूम रहे थे.
मेरा मन पोस्टमैन काका से और काका के बहाने उस लड़की से जुड़ता जा रहा था. आज की कहानी की पंक्तियों के बीच में उसने नीली स्याही से लिखा था..“ज़िन्दगी में हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता,हर रिक्त स्थान का विकल्प नहीं होता,हर छोड़ी हुई चीजों की प्राप्ति नहीं होती और हर बार प्यार के बदले प्यार नहीं मिलता”
इसे पढने के बाद मेरा मन उस लड़की का चेहरा गढ़ने लगा लेकिन अधूरी तस्वीर से वो,मेरी रेखाओं से निकल जाती थी...
रविवार का दिन छुट्टी का दिन मतलब आराम ही आराम...मैं फुर्सत में बाहर लान में बैठा..माँ की चिठ्ठियाँ का जवाब लिखने के बाद,रात में अधूरी रह गयी कहानी की किताब पलटने लगा...तभी मेरा ध्यान फिर नीली लाइनों पर अटक गया..”रंगों से वो इन्सान प्यार नहीं कर सकता,जिसे कभी किसी ने प्यार न किया हो..ऐसा इन्सान दो रंगों के बीच ही ठहर जाता है...सफेद और काला”
उसी क्षण मैंने निश्चय कर लिया कि आज तो काका की बेटी से मिलूँगा ज़रूर..मैं उठकर जाने को हुआ कि पोस्टमैन काका आते हुए दिख गये.
“बड़ी लम्बी उम्र है आपकी..छुट्टी के दिन भी आपको चैन नहीं”हंसकर मैंने उनकी साइकिल का हैंडल पकड़ लिया.
वो ज़ोर से हँस पड़े.इतने दिनों में पहली बार उन्हें खुलकर हँसते देखा था.
“मैं आपके घर ही आना चाह रहा था” बिना लाग लपेट के मैंने अपनी बात रख दी.
“लो अब तो मैं ही आ गया”कहते हुए सामने बैठ गये.
“दरअसल काका मुझे आपकी बेटी से मिलना है”..किताबों को सहेजते हुए मैंने कहा.
उड़ते पन्नों को बंद करते हुए उन्होंने लम्बी सांस ली और बोलना शुरू किया-
“यही तो मुश्किल है बेटा वो किसी से मिलना नहीं चाहती..किताबें पढ़ती है उसमें जहाँ उसे समझ आता है,लाइनें जोड़ती जाती है..इन सफेद काले अक्षरों को ही उसने अपना जीवन मान लिया है.” काका बोलते जा रहे थे और मैं उनके बोले गये शब्दों से,उसकी अधूरी तस्वीर मन में बनाता जा रहा था.किताबों की खिड़की पर खड़ी एक लड़की जिसने खुद को अक्षरों के काले रंग और पन्नों की सफेदी में अपने आप को कैद कर रखा है.
“मैं चलता हूँ बेटा..वो मेरा इंतज़ार कर रही होगी”अचानक काका उठकर खड़े हो गये.मैंने रोकना ठीक नहीं समझा.
पांच महीने पूरे होने को आ रहे थे.मेरी ट्रेनिंग में एक माह का समय रह गया था.काका के बहाने मैं काका की अनदेखी बेटी से जुड़ता जा रहा था.
कुछ दिनों से मैं इस बात को नोटिस कर रहा था कि किताबों में नीली स्याही का सुर बदलने लगा है..टिमटिमाते तारों जैसा ही सही कुछ तो है,जो बदल रहा है...अब लाइनों के बीच लिखी लाइनें कवितामयी होने लगी थी..आखिरी पन्ने पर कभी कभार चार लाइनों की कविताएँ दिखने लगी थी.

“यहाँ बारिश
वहाँ धूप
चलो न
इन्द्रधनुष पर
सपने टाँगते हैं”
मुझमें यह विश्वास जन्म लेने लगा कि काका की उदास बेटी अपने कैद से निकलना चाह रही है..शायद उसे स्वतंत्रता की बयार का स्वाद चखना है..
मेरे मन के ब्रश ने श्वेत-श्याम छवि से,लड़की को आज़ाद करते हुए,उसमें रंग भरना शुरू कर दिया.
ट्रेनिंग के आखिरी दिनों में व्यस्तता बढ़ गयी थी.पूरा हफ्ता भागमभाग में निकल गया.अचानक मुझे ध्यान आया इतने दिनों तक माँ की कोई चिठ्ठी नहीं आई.ऐसा तो हुआ नहीं कभी..चिठ्ठी से याद आया पोस्टमैन काका भी तो पूरे हफ्ते नहीं आये..मुझे चिंता होने लगी...
काका के इंतज़ार में पूरा दिन निकल गया,शाम होने लगी थी,लगभग रोज़ आने वाले काका इतने दिन कहाँ रह गये?

मुझसे रुका नहीं गया मैंने पूरे कपड़े पहने और टॉर्च लेकर बाहर निकल गया.. इतने दिनों में रास्तों का अनुमान तो हो गया था लेकिन पोस्टमैन काका के घर का पता मुझे नहीं मालूम था..घर–घर पते ढूँढ कर चिठ्ठियाँ पहुँचाने वाले इन्सान का पता कौन रखता है भला..मुझे अपने आप पर खीझ भी हो रही थी कि इतने दिनों से आ रहे काका का घर तक नहीं पता...रास्ते में कुछ लोग टहलते हुए दिखाई दिये.उन्हें रोककर पता पूछा तो उन्होंने इशारे से दूर टिमटिमाते टीले के पीछे का घर बताया.अब मुझे तसल्ली हुई कि काका का हाल मिल जायेगा.पास दिख रहा टीला वास्तव में घुमावदार रास्ते से पास आता हुआ लगता लेकिन उस तक पहुँचते-पहुँचते घंटे भर का समय लग गया.आज मुझे यह पक्का विश्वास था कि दरवाज़ा काका की बेटी ही खोलेगी..काका के बहाने ही सही,वो दिख तो जायेगी.खटखटाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था..तभी मेरी नज़र लटक रहे बड़े से ताले पर गयी.मेरा दिल बैठने लगा..इतनी रात में काका और उनकी बेटी गये कहाँ?

उम्मीद की हल्की सी लौ आती हुई एक महिला पर टिकी.वो पड़ोसी थी शायद.
“आपको पता है पोस्टमैन काका कहाँ गये?” टॉर्च की रौशनी ताले पर डालते हुए मैंने पूछा.
“वो शहर गये है कोई रिश्तेदार बीमार हैं उन्हीं को देखने”इतना बोलकर वो महिला अपने घर की ओर मुड़ कर जाने लगी.
“उनकी एक बेटी भी तो है वो कहाँ?”मेरी आवाज़ में थकन थी.
“बेटी?” ऊंह..उनकी तो कोई बेटी-वेटी नहीं है..वो तो सालों से अकेले रह रहे हैं”इतना बोलकर महिला ने अपने घर का दरवाज़ा भड़ाक से बंद कर लिया.मुझे लगा मेरा चेहरा दो पल्लों के बीच में जैसे दब गया हो.
”काका की कोई बेटी नहीं”मैं बार-बार दोहरा कर इस सच को अंदर उतारने की कोशिश कर रहा था.
गुस्से और क्षोभ से मेरे कदम उठ ही नहीं रहे थे.ज़िन्दगी में पहली बार छले जाने का अहसास हो रहा था.अपने आप को घसीटता हुआ किसी तरह मैं गेस्टहाउस पहुँचा.बिस्तर पर पड़ते ही रो पड़ा.इस तरह के झूठ से कभी पाला नहीं पड़ा था.
शरीर का दुःखना तो कुछ कदम चलने की अनुमति देता है लेकिन मन का दुखना तोड़ देता है...दो दिन मैं अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकला.तीसरे दिन कॉलबेल बजी तब बाहर निकला.देखा तो काका बाहर खड़े थे.
“आपने मुझसे झूठ क्यों बोला..आपको मैंने इतना मान दिया और आपने मुझसे इतना बड़ा झूठ बोला..क्यों काका बोलिए???मेरा गुस्सा मुझसे सम्भल ही नहीं रहा था.शरीर भी काँप रहा था.
काका चुप थे.उनकी चुप्पी मुझे अंदर तक चुभ रही थी.
“किताबों में उन नीली लाइनों का सच क्या था ये भी बता दीजिये?”उनको चुप देख मेरा लहजा तंज में बदल गया था.
काका आहिस्ता से उठे और मेरे कंधे को पकड़कर बोलने लगे-“जब तुमसे पहली बार मिला था तब ही मुझे तुम्हारे अंदर का अकेलापन दिख गया था.मुझे लगा मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा है..मैं अकेलेपन के इस मर्ज़ को जानता हूँ....मैंने अकेलेपन में गुज़ारी है ये ज़िंदगी.इस अकेलेपन में मेरे साथी सिर्फ ये किताबें हुआ करती थी.इस सफर में कोई एक किताब खत्म होती तो ऐसा लगता जैसे कोई मील का पत्थर है जहाँ पहुँच तो गया हूँ...लेकिन किसी का साथ छूट रहा है.हर किताब में अलग-अलग किरदार गढ़ता मैं, फिर उससे बिछड़ जाता. मैं चाहता था कि ये तुम्हारे साथ न हो..तुम्हें हर किताब में एक ही चेहरा दिखे और तुम्हारा छः महीने का सफर आसान हो जाए.इसलिए मैं किताबों में नीली स्याही से अपनी काल्पनिक बेटी का चेहरा उकेरता.मैं ही लिखता था वो बीच की नीली पंक्तियाँ”..
“आप...आप लिखते थे बीच की पंक्तियाँ...तो बताया क्यों नहीं?”मेरी आवाज़ मुश्किल से गले से निकल रही थी.मैं पलटकर उनके सामने खड़ा हो गया.
काका फीकी हँसी हँसते हुए बोले-“मेरा चेहरा किताबों में देखते तो कोई ख्वाब बनते क्या...सपने बनते? नहीं न..यहाँ तक की प्यार की बातें भी दिल तक नहीं पहुँचती.?”
मैं अब भी काका को घूरे जा रहा था.
“गलती हुई है मानता हूँ अगर माफ़ कर सको तो कर देना”इतना कहते हुए काका सीढियों पर सर झुकाकर बैठ गये.
फोन की घंटी लगातार बज रही थी.कमरे में गया तो देखा माँ का फोन था.
“कल आ रहा है न तू?”माँ की आवाज़ में चहक थी.मेरी ट्रेनिंग के दिन पूरे हो गये थे..मेरी पोस्टिंग संयोग से मेरे होमटाउन में ही हो गयी थी.

“कुछ दिन रुककर आऊंगा माँ, कुछ काम अधूरा है”इतना ही कह पाया था कि नेटवर्क की वज़ह से फोन कट चुका था..माँ के फोन की वज़ह से मेरा अशांत मन शांत हो चुका था.बाहर आया तो देखा काका जा चुके थे.
बिखरी किताबों के बीच मैं लेट गया...बीते 6महीने चलचित्र की भांति पंखे के डैनों पर घूमने लगे...मैं उठकर बैठ गया,मन ही मन निर्णय पक्का कर लिया कि अभी कुछ दिन रुकना है मुझे...मेरे अकेलेपन के लिए की गयी काका की कोशिश को दिल से माफ़ करना है..गले लगाकर समझना है उनको...घंटों साथ बैठकर उनके और अपने उस अभाव को भरना है जिसकी प्यास उन्हें बहुत दिनों से और मुझे बचपन से थी.
मैं सम्भावनाओं के टूटे अधूरे पुल को निर्मित करना चाहता था..जिससे माँ की बुदबुदाहट के स्वर स्पष्ट रूप से सुन सकूँ.

 - निरूपमा सिन्हा

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