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सूर्यास्त
जैसे व्याप गया हो तेज – शैलेन्द्र चौहान |
डगर
पतली सी मौन कितना बोलता है बदगुमानी‚ तोलता है हर तरफ जंगल हरे हैं पेड़ कांटों से भरे हैं पगडंडी कोई गहो शूल बिखरे पड़े हैं हर दिन भेद नित नये खोलता है मौन कितना बोलता है कुआं है इस तरफ उस तरफ खाई बीच में इक डगर पतली सी भयातुर मन डोलता है मौन कितना बोलता है.. – शैलेन्द्र चौहान |
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