|
कर्ण का राज्याभिषेक
होने को था भव्य प्रदर्शन अस्त्र–शस्त्र विद्याओं का।
रण रचना का‚ शर चालन का दूसरी और विधाओं का।
हुआ व्यवस्थित हर प्रबंध‚ अद्भुत इस आयोजन का।
शुरू हुआ फिर करना प्रस्तुत तकनीकों के धारण का।
कर्ण भीड़ में बिन्दु मात्र सा दर्शक दीर्घा में बैठा।
नामहीन‚ पहचानरहित हर कला निरीक्षण करता था।
जब–जब घोष उठा करता था अद्भुद ! जैसे शब्दों का।
ललक कर्ण का मन उठता था खेल दिखाने शस्त्रों का।
एक एक कर शस्त्र–विशारद दिखा गये कितने कौशल।
अर्जित विद्या के प्रयोग व अपना – अपना बुद्धि‚ बल।
कर्ण सोचता अवसर मिलता तो दिखला मैं भी देता।
किन्तु‚न अवसर आने देंगे ये सज्जन हैं और विजेता।
एकलव्य की कथा ध्यान कर विचलित होता जाता था।
और विवशता अपने पर भी क्रोध बड़ा ही आता था।
एकलव्य से‚ दिया इन्होंने जिसे न शिक्षा दान।
विद्या अर्जित किया‚ धुरन्धर हुआ‚ गुरू बस मान।
छल कितने हैं किये पार्थ को रखने हित विद्वान।
किया द्रोण ने है गुरूपद का हा! भीषण अपमान।
शर्मच्युत हो एकलव्य से लिया अँगूठा माँग।
श्री हीन करते नहीं कहते दे दो मुझको प्राण।
अध्यवसाय से अर्जित विद्या‚ उसका तो बस दोष यही था।
छात्रत्व उसको दे न सके थे‚अथम वंश में जन्म लिया था।
कैसा युग‚ कैसा विचार‚ कैसा विवेक‚ व्यवहार‚
विद्या और परिश्रम को क्यों चाहिये नृप परिवार?
क्यों समाज पर रहे समष्टि का न मात्र प्रभुत्व‚
राजाओं या राजपुरूष का क्यों हो इसपर सत्त्व
और अन्त में अर्जुन ने जब अपने कौशल दिखलाये।
‘अजब‚अचंभा’ कोई न दूजा जन समाज सब चिल्लाये।
सह न सका अब और प्रशंसा ईष्र्यावश फुत्कार उठा।
“बच्चों के ये खेल‚ युवाओं के मुझसे” चीत्कार उठा।
“अभी सिखा सकता हूँ इस शिशु को ढेरों कौशल और नये।
रच सकता हूँ शर कितने ही अभी तुरत मैं नये–नये।”
सभा ज्वार के बाद शांत सागर जैसा स्तब्ध हुआ।
कौन अहंकारी व्यक्ति यह‚ कैसा यह अपशब्द नया?
राजपुरूष सब ठगे हुए से क्षण को हो गये मौन।
आँख – आँख में पूछ रहे वे – शठ आखिर है कौन?
तभी कृपा दुत्कार उठा –" रे‚ अन्तज्य की संतान।
किस साहस से कर बैठा तू राज का यह अपमान‚
बोल रे शठ‚ कुलनाम बता‚ गोत्र बता‚ कोई वंश बता।
राज बता‚सम्राट बता तू किसका है एक अंश बता?
राजपुरूष से द्वन्द्व करे वह जो हो राजकुमार।
तुझ जैसे कोई अन्य पुरूष से हो न सके ललकार।"
अन्तःपुर में तभी हृदय में कुन्ती के एक दर्द उठा।
और ग्लानि से मलिन सूर्य का मुख जैसे हो सर्द उठा।
"बता न सकता पिता‚ पुरूष मैं‚ पौरूष का विश्वास मुझे।
राजपुरूष मैं नहीं‚ वीरता का किन्तु‚ अहसास मुझे।
जो सच्चे हो वीर पुरूष तो आता हूँ मैं आने दो।
धनुर्धरों के सच्चे कौशल आज मुझे दिखलाने दो।"
" सूत पुत्र प्रतियोगी कोई राजपुरूष का हो न सकेगा।
नहीं धरा नीचे नभ उपर जिसके मुझसे लड़ न सकेगा।"
अर्जुन के दो नयन क्रोध की ज्वाला जैसे उगल उठा।
और कर्ण लज्जित‚ क्षोभित हो रंगशाला से अलग हटा।
" अगर चाहिए राजमुकुट ही पौरूष को तो देता हूँ।
अंगदेश मैं सौंप रहा और मित्र बनाये लेता हूँ।"
दुर्योधन आसन त्याग सभा के मध्य आके उद्घोष किया।
सच मानवता हेतु खड़ा वह हुआ तथा परितोष दिया।
दुर्योधन का यह कृत्य नहीं क्यों स्वर्णाक्षर में लिखा गया?
क्यों कलंक सा दुर्योधन के सिर पर इसको टिका गया?
कर्ण अचंभित‚ स्तंभित और पुलकित हो कृतज्ञ हुआ।
विनय‚ हर्ष‚ आह्लाद भाव हर मुखमंडल पर भव्य हुआ।
अश्रु छलक आये नयनों में विगलित स्वर में बोला वह।
" सम्मानित कर मुझे आपने यश का पन्ना खोला यह।
सखा आपकी कीर्ति फैले सूर्य जहाँ तक है जाता।
हैं महान‚ हैं उच्च आप इतने‚ स्वर में नहीं कहा जाता।
कर्ण आपका अनुचर होकर शरण आपके आता है।
इतना सुख यह हर्ष आपने दिया दबा सा जाता है।
ऋणी नहीं ही मात्र कर्ण‚ है प्राण‚वचन‚मन सभी समर्पित।
और अकिंचन अपना सब कुछ सखा आपको करता अर्पित।
धरती की सौगंध‚ विसर्जन कभी करूँगा प्र्राण आप हित।
इस जीवन को अर्थ दिया है‚मुझे किया है एवम् पुलकित।
वीरोचित है कर्म आपके‚ आपने जो सम्मान दिया।"
और हुआ नत कर्ण सभा में दुर्योधन कह उठ "सखा"।
और अंक में भरकर उसको सिंहासन आरूढ़ किया फिर।
तथा तुरत राज्याभिषेक तो पाण्डव मन – मन हुए अस्थिर।
भरा अंक में दुर्योधन ने कर्ण तो जय–जयकार हुआ।
सच सम्राटों की भाँति कुरूपुत्रों का यह व्यवहार हुआ।
" श्रेष्ठ‚ आपने आज वंश का तोड़ दिया है मर्यादा।
जितने हैं दुर्वचन क्षतिपूत्र्ति न सकेंगे कर आधा। "
दहक उठा अर्जुन अन्तर तक दुर्योधन के इस कृत्य पर।
कसा धर्नु पर कर उसके तत्काल यहीं लें निर्णय कर।
अर्जुन के हों वचन सत्य पर जो मैं वाणी पर लाऊँ।
जब तक होवे मैं इस रण को दूर हटाता ही जाऊँ।
उठे पितामह त्याग सिंहासन जैसे रवि ले उठे प्रभा।
क्षीण हो गये सभी वीर हो गयी शांत व पूर्ण सभा।
(राज्याभिषेक नामक यह वर्णन कर्ण के अँगदेश का राज्य
ग्रहण के साथ सम्पन्न हुआ)
—अरुण कुमार प्रसाद
|
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|