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मैं हूं...
मुस्कुराहट पर लरजती
आहटों पर खनकती हूं
सपनों सा सुहाना राज हूं
मानस का गुनगुनाता साज हूं
कविता का रंगमय नभ
बिरखा की तान बरतती हूं
मंदिर में दीपों की दीपिका
आस्था के मन की आरती हूं
कृष्ण में राधा की झांकी
मीरां के मन की बांसुरी हूं
रात का ताना प्रीत का
पिया के प्रेम की ओढनी हूं
चांद रात तारों की खिलखिल
नव सृष्टि की अठखेली हूं
नीरव निशा की आगम आशा
जुगनू सी दिप दिप रोशनी हूं
अरुणोदय की नितिला मैं!
नव कलरव संग उगती हूं
 

होता है....................

होता है....................

वर्तमान पल भर का होता है
शेष भूत भविष्य में बंटा होता है
मनुष्य तो वह पल भर होता है
शेष इर्ष्या दुख क्रोध का पता होता है
रंग प्रसन्नता का सुहाना होता है
दुख में हर रंग गहरा काला होता है
 
हर गीत की धुन लुभाती है
प्रतीक्षा घन के गान की होती है
सृष्टि का ध्रुव कोमल स्त्री  है
हर नारी का त्याग उर्मिला होता है ...

किरण राजपुरोहित नितिला

खिताब
ह लौट आई है आजे
फिर इसी पिंजरे में
जहां कुछ वर्ष पूर्व फेंक दी गई थी
कन्यादान करके
सौभाग्य पाये थे वे
भर भी हलका हुआ था काफी
उसे उसके अपने घर भेजकर
उससे पहले उसको खूब पिलाये गये
संस्कारों के घूंट
उस अपने घर के लिये
जैसे चिड़ियाघर भेजने से पहले
जानवर को वहां के अनुरुप ढाला जाता है
क्या पहनना चाहिये
कहां जाना चाहिये
किससे बात करनी चाहिये
ज़रें नीची रखी चाहिये
कम और धीरे बोलना चाहिये
सवाल नहीं पूछना चाहिये
आज्ञा माननी चाहिये
सवालिया चेहरा ही लिये रही
वह पूछना चाती रही
क्या उसे जीवित रहना चाहियेद्य
पर पूछ ना पा
वर्जित हे खुद की सोच रखना
लेकिन जवाब हो था
हां पति परमेश्वर की चाकरी नामक पुण्य के लिये
उसका मरना अनगिनत सवाल खड़े कर देता है
दोनों वंशों के लिये
उसकी नींव पर ही तो खड़ा होगा नया वंष और कंगूरे हंसते रहेगें उसकी बलि पर
अच्छी गउ बिटिया का खिताब पाये वह अपने घर के खूंटे से बांध दी गई
और मजबूरी रिवाजों की कुंडी लगा दी गई फिर खटने लगी वह
अच्छी बहू के खिताब के लिये
खुद के लिये सोचना उसका उन लोगों को पसंद नही है
और पसंद नही है
बजती पायल पहनना
पढना
लिखना
खिलखिलाना
खुल कर सांस लेना
आसमां
देखना
उनकी पसंद का खयाल रखना
यही उसका परम धर्म है
पसंद है केवल उन्हें
उसके धोये प्रेस किये कपड़े
उसका बनाया खाना
चमचमाता घर
नीची नजरें
कम जरुरतें सब कहते है अच्छी
बहू पाहै आपने
कितना अच्छा काम करती है
अपनी मिट्टी की एक कतरा हवा भी हवा पाती है कुछ वर्शों में अनेक षर्तें पर पिता का निरीह चेहरा देखकर वो भी नही चाहती अब तो
उसके बेजान से हुये रीर को देखकर
मां की वह घुटी घुटी रुला सह नही पाती
लौट जाती है वहीं
‘खु हूं का आश्वासन देकर
डसी पिंजरे में ताउम्र खटने के लिये
बदले में पाती है
‘अपने घर में
दो जून रोटी व
अच्छी बहू का खिताब!!

किरण राजपुरोहित नितिला

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