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स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं
स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं
हर दिन टांची लगते रहने से
उनकी देह मूर्ती बनने लगती है
दिन - ब - दिन.
बढती उम्र,
के साथ देह का सारा प्रेम
सिमट कर आ जाता है आँखों में
फिर फैलता है
सारी देह में.
छलकता है देह से रंग - रंग.
बढती उम्र,
की स्त्रियों की अंटी में
बिना टके भी होता है खजाना.
बढती उम्र,
की स्त्रियों के आँचल में होता है
भरपूर अमलतास और पलाश.
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
वसंत से पकते हुए बनती हैं फागुन
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
निखरती जाती हैं
दिन - ब - दिन
खूबसूरत होती जाती हैं
ठीक मेरी तरह !

सपना बुनती औरत
एक औरत आईने के सामने बैठ
देखती है, अपने को
भरपूर नज़र से.
ये खूबसूरती जो उसे आईने में दिख रही है
वो उसके सपने से बुनी है.
वो ऐसी खूबसूरती के सपने और, और बुनना चाहती है
वो ऐसी खूबसूरती के खूब – खूब स्वेटर बुनना चाहती है
जी भर कर पहनना चाहती है, उन्हें
कभी – कभी दुनिया में तिरते खूबसूरती के डिज़ाइन उसकी आंखों में आ कर रुक जाते हैं
वो उन डिजाइनों से फिर नए सपने बुनने लगती है
पर कुछ हाथ उसकी सलाईयां छीन लेना चाहते हैं
उसकी ऊन के गोले को छुपा देना चाहते हैं
जिससे नहीं बुन सके, वो कोई सपना
कुछ आँखें कहती हैं,
क्या स्वेटर बुनना ?
‘’बाज़ार में हर तरह का स्वेटर मिलता है,
जाओ और खरीद लाओ’’
पर वो जानती है कि,
जो सपना वो बुनेगी
वो किसी बाज़ार में नहीं मिलेगा
इसलिए वो बुनती है, सपने
वो फिर - फिर बुनेगी सपने
वो एक नहीं, अनंत सपने बुनेगी
वो इस प्रकृति की कृति को और आगे ले जाएगी आसमान तक.
वो जानती है
कि, वो कितनी खूबसूरत कलाकृति है और
कला ही कला को गढ़ सकती है .......
मटमैले हाथ क्या कला रचेंगे ?
वो रोक सकेंगे बस एक सपना बुनती औरत को.

मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
बहती हूँ, लय में
चाहती हूँ कि
छूती रहूँ किनारों को
बतियाऊँ उनसे
हिलोरे दे – दे कर
रम जाऊँउनमें,
सुनाऊँ संगीत अपना
जो तरंगित होता रहा है
मुझमें युगों से.
पर किनारे हैं
बिना मन के,
सिर्फ तन के.
वो रहे हैं हमेशा,
तटस्थ.
करते रहे हैं दोहन,
मेरे तन का
औरमेरे मन का
करते रहे हैं मुझे,
गहरे से उथला.
पर मैं नदी हूँ
बहती ही जाऊँगी
तुम्हारे साथ – साथ......
 

-अनुपमा तिवाड़ी

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