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श्रीमद्राजचन्द्र की वैष्णव दीक्षा
"गांधी
का जीवन अपार और अथाह रहा, उनके मार्गदर्शक श्रीमद्राजचन्द्र जी पर यहाँ
लेख हर भारतीय के लिए ललित और बोधगम्य है। उस पर अंबर की लेखनी से निसृत
हुआ हो तो फिर बात और गहरी हो जाती है।"
– संपादक (महात्मा गाँधी के मार्गदर्शक श्रीमद्राजचन्द्र की वैष्णव दीक्षा का प्रसंग, राजचन्द्र जी जैन दर्शन के अन्यतम विद्वान थे) अंबर पांडे फिर रात को एक अचम्भा घटा। आधी रात बीत चुकी थी। मानकबाँ अमीचंद काका के संग घर जा चुकी थी। पुनर्नवा पण्डित भी धर्मशाला चले गए थे। उस रात देर तक जंबूद्वीप की विभिन्न रियासतों की दुर्दशा पर बात होती रही। हकूमत में दया-माया का कमी है। रैयत फाके करके सोती है। मानकबाँ और पुनर्नवा पण्डित को इस बात से ज्यादा इसकी चिन्ता थी कि फिरंगी छोटे छोटे फिरकों को पहले ख्रिस्तानी बनाएँगे फिर पूरा भारतवर्ष माता मरियम की भक्ति करेगा, ईसा की मसीही मानेगा। अधर्म फैल जाएगा। नानोराय ने गुजराती बाइबल पढ़ी थी और उसमें ऐसा कोई इरादा नानोराय ने नहीं पाया था। जब उसने यह बात सबके आगे प्रकट की और भारतवर्ष को ख्रिस्तानी बनाने के फिरंगी इरादे को अफवाह बतलाया तब पुनर्नवा पण्डित ने उसे आँकड़ाशास्त्र का ज्ञान दे डाला और कहा कि गाँव के गाँव ख्रिस्तानी धर्म ले चुके है। जगत में हिंदू मुट्ठीभर बचे है। मानकबाँ का नानोराय को सबके सामने बालबुद्धि कहने से नानोराय का मन व्यथा से भर गया। वह चुपचाप भीतर आकर रोने लगा और जब देवबाई ने उसे पुकारा तो अपने कण्ठ को भरसक सामोद बनाकर उसने कहा कि वह तपस्या कर रहा है। देवबाई हँसकर चुप रही। यों कहना भले झूठ हो कि तप कर रहा हूँ तप ही है। कोई तप क्यों करता है? जीवन के तापों से निस्तार पाने के लिए और जब कोई तप कर रहा हूँ ऐसा झूठ कहता है तब भी तप की इच्छा उसमें जन्म ले चुकी होती है। वह इतना तो जानता ही है कि तप से ही शान्ति सम्भव है। मुमुक्षा कभी असत् नहीं होती भले भलामानुष उसका ढोंग भी करे। थोड़ी देर पश्चात् जब नानोराय बाहर आया। सभा निशेष हो चुकी थी और अतिथि अपने अपने ठाँव लौट गए थे। भीषण वर्षा के तुमुल से धरा भरी थी और पक्के भवन का आँगन जल से भरकर पोखर की भाँति उत्तरंग हो रहा था। उदन्य दादुरमण्डल जीभर जल पीकर उत्पात कर रहा था और उनकी आँखें अँधेरे में रह रहकर चमक जाती थी। शेष जीव जंतु सर्वथा मौन थे। शीतल पवन और छींटें पड़ने के कारण नानोराय दादी के संग खटोले पर सोने आ गया। दोनों की संग सोने की अटल रीति थी। दादी भी नानोराय की प्रतीक्षा कर रही थी। कमरे में कहीं छुपकर भृंगीकीट भनभन कर रहा था। उसके कारण दादी पोते की निद्रा में अड़चन होती थी। नानोराय उठकर भृंगीकीट को ढूँढने लगा, “दादी, उसे उठाकर बरोठे में छोड़ आता हूँ।” प्रत्येक अंतर गन्धसारसुवासित था और भृंगीकीट का शब्द दसों दिशों में ध्वनित होता लगता था। देर तक नानोराय ढूँढता रहा जब न मिला तब दादी ने कहा, “वह भृंगीकीट है, नानोराय। उसे कान पर लगाकर यदि तूने सुना तो तू भी भृंगी बन जाएगा”। चन्दन घिसने की पाटी सरकाकर देखते नानोराय ने पूछा, “तब क्या हम रातभर में मकोड़ा बन जाएँगे!” दादी ने दुलाई से अपने कान ढँक लिए बस नासिका खुली रहने दी और कहा, “शायद हम दोनों मकोड़े के रूप में जागे” और हँसते हुए आँखें मूँद ली। नानोराय कुछ देर भृंगीकीट ढूँढता रहा तब तक दादी खर्राटे भरने लगी थी। उसने दादी को जगाने का बहुत प्रयास किया। उसका प्रस्ताव था कि बाहर बरोठे में या रसोई में जाकर वे दोनों सो जाए किन्तु दादी जिन्हें निशाकाल की निद्रा दुर्लभ थी आज वर्षा के कारण अचानक शीतल हो उठी ऋतु में गाढ़ सुषुप्ति में पड़ी थी। नानोराय के आगे धर्मसंकट उत्पन्न हो गया। वह दादी को मकोड़ी बनने के लिए छोड़कर कैसे अकेला मनुष्य बना रह सकता है। वह भी दादी की दुलाई में घुस गया। भृंगी शब्द कर रहा था। फिर दूसरा भृंगी भी आकर शब्द करने लगा, तो क्या इसका अर्थ है कोई अन्य जाति का कीट भृंगी का शब्द सुनकर भृंगी बन गया है और प्रभात होते होते वह भी भृंगी बन जाएगा? उसने अपने कान अंगुलियाँ डालकर कसकर बंद कर लिए। थोड़ा समय बीतने पर अंगुलियाँ हटाकर सुना तो भृंगीकीटों का शब्द और तेज था। वर्षा कम होने पर शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था। दादी के शब्द सत्य प्रतीत हुए और उसे लगा सूर्योदय हुए बहुत देर बीत गई है। उसकी माँ उसे रसोई से पुकार रही है। दादाजी दादी को ढूँढ रहे है। उसके पिताजी दो बार उन्हें कमरे में ढूँढकर गए है किन्तु वे दोनों कहीं नहीं है। थोड़ी देर तक उन्हें न पाकर घर के सभी जन चिन्तित हो जाते है। उसकी माँ देवबाई “नानोराय नानोराय, नानोराय को किसी ने देखा?” कहती ववाणिया में भटक रही है। “नानोराय कहाँ है तू। माँ ओ माँ” कहते उसके पिता रावजीभाई समुद्र तक पहुँच गए। “अवश्य ही पुनर्नवा पण्डित ने उनका हरण किया है। उनकी बलि होगी। साला डायन का पूत!” कहकर उसके दादाजी पचाणभाई अपने इष्टदेवता लड्डूगोपाल के सम्मुख औंधे पड़े है। मानकबाँ भी अपनी लकुटी से धरा पीटती नानोराय को ढूँढती घूम रही है। गुरुजनों की ऐसी दुर्दशा नानोराय को प्रत्यक्ष दिखाई देने लगी। उसे रोना आ गया। नानोराय को फिर विचार आया कि क्या उसकी माँ, पिता और दादा इतने संशयमना है? क्या दादा जी को अपनी ही भगवदीयता पर विश्वास न होगा कि क्रोध में आकर वह पुनर्नवा पण्डित को गालियाँ देंगे और मान बैठेंगे कि पुनर्नवा पण्डित के आगे उनके लड्डूगोपाल निर्बल है! पिता को ईश्वर उनके सदाचार का यह फल देगा तब उन्हें अपने सदाचार पर संशय न होगा! और माँ? माँ तो नास्तिक है यह नानोराय ने कल ही जाना था। वह तो इसे निश्चय ही नानोराय के अपकर्मों का फल मानेंगी। वह अपकर्म जो उसने पूर्वजन्मों में किए थे। यह सोचकर नानोराय को लगा उसके कण्ठ में कोई शिला फँस गई और कण्ठ उसे बाहर फेंकता है। बाहर आते आते वह जल में बदल जाती है और आँखों से वह जल गिरता है। मनुष्य का ईश्वर में विश्वास कितना अज्ञातगाध है। सम्भव है कि यह गम्भीर हो और यह भी हो सकता है कि वर्षा में जो डबरा जल से भरा दीखता है किन्तु उथला होता है वैसी यह आस्तिकता हो। दो दिन की धूप में जिसका उथलापन उजागर हो गया। मनुष्य का मनुष्य से प्रेम भी इसी प्रकार का है। कोई नहीं जानता कि दूसरा हमें कितना प्रेम करता है। करता है भी नहीं? अब जैसे दादी को छोड़कर दूसरे कमरे में जाए या न जाए यह निर्णय नानोराय स्वयं नहीं कर पा रहा था। यह प्रेम ही तो है किन्तु ऐसा करके वह अपनी दादी को भृंगी मकोड़ा बनने से क्या रोक सकता है? तब तो यह मोह हुआ जिससे बचने का प्रवचन पुनर्नवा पण्डित भी देते है और स्थानक में चातुर्मास करनेवाले मुनि भी। मोह से रक्षा नहीं होती। मोह से हमारे मोहपात्र का अनिष्ट ही होता है, यह सोचकर नानोराय ने अपनी माँ और पिता के कमरे जाना निश्चित किया। उसकी योजना पिता और माँ के संग आकर सोती हुई दादी को भृंगीकीट से दूर किसी दूसरे कमरे में उठाकर ले जाने की थी। उसने दुलाई से मुँह निकाला, भृंगी अब भी चिल्ला रहा था। खटोले से पाँव नीचे धरा और पाँव के नीचे मकोड़ा न आ जाए इसलिए फूँक फूँककर पाँव बढ़ाता अपने पिता के कमरे की ओर चला। वर्षा रुक गई थी हालाँकि दिगंतव्यापी घटा का एक छोर नानोराय के गाँव के भाग को छूता हुआ दिखाई देता था। वह घटा गर्भ में चन्द्रमा धारण करने से काली होने पर भी भासमान थी। आँगन पार लगे आम्रवृक्ष पर बैठा एकाकी चकवा कुछ बोल रहा था किन्तु दूसरे परेवें निशब्द सो रहे थे। दूर एक पपीहा अवश्य निरन्तर कुछ कहता जाता था। झींगुरों और दादुरों की मण्डली ऐसी ऋतु में कब चुप होनेवाली थी! उनके कोलाहल से कमरे में अंदर बोलनेवाले भृंगी का शब्द यहाँ पहुँच न पाता था। किवाड़ पर भीतर साँकल चढ़ी थी। नानोराय के धक्का देने से किवाड़ खुला नहीं पर किवाड़ के दोनों पल्ले अलग हो गए और साँकल दिखाई दी। भीतर दूर से दीपक का थोड़ा थोड़ा प्रकाश आ रहा था। तिमिर में देवबाई की नकबेसर का हीरा चमकता था। खूब देर तक आँख गड़ाकर देखने पर नानोराय को माँ की आँखें दिखाई दी। माँ की बरौनियाँ कितनी घनी और लम्बी है, निमिष झुकाने पर आधे कपोल ढँक जाते है और तीसरे नेत्र के स्थान पर सिन्दूर से बना गोल तिलक गर्भगृह में विराजमान श्री मुकुंदमाधव जैसा लगता है। साक्षात् परात्पर जैसा पुनर्नवा पण्डित अपने प्रवचन में बताते है। चोटी ढीली हो गई थी और कान ढँके थी। लाल साड़ी का आँचल माँ के स्तनों पर पड़ा था। माँ अभी तक सोई नहीं और दीपक भी जल रहा है। माँ तो जैन मतालम्बी होने के कारण सायंकाल ही सबके रोटी खाने के दीपक बढ़ा देती है। कितने कीट, पतंगे, सूक्ष्म जीव दीपक में जलकर मर जाते है। कितने जीव तो ऐसे अल्पप्राण होते है कि प्रकाश देखकर ही उनका काल आ जाता है। तब आज माँ दीपक के प्रकाश में क्या कर रही है! माँ नास्तिक है और नास्तिक तो निर्दय होते है, बात बात पर झूठ कहते है ऐसा मानकबाँ ने बताया था तो क्या नानोराय की माँ भी झूठी है? नहीं, नहीं, नहीं, माँ कभी झूठ नहीं कहती। ले, अपनी आँखों से देख ले रायचंद मेहता उर्फ नानोराय तेरी माँ आधी रात को दीपक जलाकर बैठी है। नानोराय ने देखा देवबाई की चिबुक को दो अंगुलियों और अँगूठे के बीच कसकर उसके पिता रावजीभाई अपने मुख की ओर कर रहे है। उसके पिता ऐसा करते कितने हिंसक दिखाई देते है। उनकी पकड़ क्रूर है, माँ का मुख लाल हो गया है। उनके नेत्रों में ज्योति मिश्रित जल झलमला रहा था। “माँ माँ माँ” नानोराय चिल्लाया। बाहर की साँकल खड़काई। देवबाई ने तुरन्त अपना माथा अपनी लाल साड़ी से ढाँक किया और उनकी धवलप्रतिमा साड़ी के नीचे हाँफने लगी, हाथ काँप रहे थे। रावजीभाई निश्चिन्त रहे और सीध में किवाड़ की ओर देखा, गरजे, “कौन है?” “पिताजी मैं हूँ नानोराय” सुनकर रावजीभाई किंचित मुस्कुराए जैसे मन से बोझ उतरा हो। उन्हें लगा था नानोराय के संग उनकी माँ या पिता भी है। धोती की गाँठ कसते उन्होंने किवाड़ खोल दिया। नानोराय दौड़कर अपनी माँ से लिपट गया। देवबाई अभी काँप रही थी। बेटे का परस पाकर थोड़ी कल पड़ी। “क्या हुआ नानोराय? सोते नहीं इतनी देर हुई” रावजीभाई ने पूछा। मूछों में पिताजी कैसे गुंडा मानुष लगते है, नानोराय ने सोचा। देवबाई भी पति को देखकर हँस पड़ी, मान्मथ लीला में विघ्न पड़ने से थोड़ा थोड़ा खीजा हुआ पति का मुख कितना मोहक लगता था। “पिताजी, दादी मकोड़ा बननेवाली है” नानोराय ने पिता की छपरखट पर पाँव पसारते हुए कहा। “मनुष्य जाति जीते जी मकोड़ा कैसे बन सकती है?” रावजीभाई ने बालक की बात से अधीर होकर कहा। “भृंगीकीट हमारे कमरे में घुस आया है और वह जोर जोर से बोल रहा है। दादी ने बताया भृंगीकीट जीवजंतुओं के कान में अपना शब्द बोल बोलकर उन्हें भी भृंगी बना देता है। दादी खर्राटे लेकर सो गई है अब सूरज उगने तक वे भी मकोड़ा बन जायेंगी” नानोराय की पुतलियाँ ऐसे मटक रही थी जैसे कहते समय अम्बाबाई के भृंगी देहधारण को वह साक्षात् देख रहा हो। बात पूरी करके अपना ध्यानाभिभूत मुँह दोनों हथेलियों के बीच रखकर नानोराय बैठा रहा। देवबाई और रावजीभाई कुछ देर यों ही खड़े रहे। देवबाई को रावजीभाई ने आँखों ही आँखों में कुछ संकेत किया और देवबाई ने उन्हें ढाँढस बँधाया। नानोराय से देवबाई ने कहा, “दादी मकोड़ा नहीं बन सकती नानोराय। वह तो गाढ़ी नींद में मगन है। नींद में कुछ सुनाई भी देता है क्या! फिर भृंगी चाहे कितना भी बोले तेरी दादी को मकोड़ा नहीं बना सकता”। नानोराय को अपनी माँ की बात उचित लगी। नींद में यदि शब्द सुनाई देता तो दादी उसकी बात सुनकर उत्तर न देती। जब नानोराय का कहा नहीं सुन सकती तो भृंगीकीट के शब्द कैसे दादी के कानों में पड़ सकते है इसलिए नानोराय ने कहा, “ठीक है तब। मैं यहीं सोता हूँ क्योंकि मुझे भृंगीकीट के कारण वहाँ नींद नहीं आती और न सोने पर मैं मकोड़ा बन सकता हूँ”। कहकर पास पड़ा दोहर ओढ़कर नानोराय सोने का उपक्रम करने लगा। “नानोराय, दादी की नींद बीच में टूटी तब क्या होगा? उनके पास तू सो। जैसे ही उनकी नींद खुले तो यहाँ लेकर आ जाना” रावजीभाई ने कहा और नानोराय के पास आ बैठे। दादी को मकोड़ा बनने नहीं दे सकता यह सोचकर नानोराय मन मारकर दादी के और अपने खटोले की ओर चला। रह रहकर गड़गड़ाहट हो रही थी। दामिनीगति से रावजीभाई उछले और किवाड़ लगाने लगे। देवबाई ने हाथ पकड़ लिया और स्वयं नानोराय को सास के कमरे तक छोड़ने आई। दादी खर्राटे ले रही थी। भृंगीकीट अब भी बोल रहा था। माँ खटोले के पैताने पर बैठी नानोराय को सुलाती थी। बाहर नानोराय के पिता बरोठे से दालान में चक्कर काट रहे थे। नानोराय ने निद्रा का अभिनय किया और देर तक अडोल रहा। देवबाई उठी, किवाड़ अटकाया और चली गई। भृंगीकीट ने सतत बोलने के कारण नानोराय को यह निश्चय तो ही गया था कि सूर्योदय होने तक वह मकोड़ा बन जाएगा। इस भय के कारण उसे नींद नहीं आती थी और भृंगी का भनभन सुनते रहने के कारण उसका मकोड़ा बनना और अधिक और अधिक निश्चित होता जाता था। यही हम मनुष्यों की दशा का प्रतीक है जो उस रात्रि नानोराय के जीवन में यथार्थ बनकर उपस्थित हुआ था। नष्ट हो जाने का भय हमें स्वार्थ और पाप के तिमिर में तब तक धकेलता जाता है जब तक कि हम नष्ट न हो जाएँ। नानोराय अपनी आसन्न दशा का जैसे अपरोक्ष अनुभव करता था। बीरबहूटियों, खटमल, गुबरैलों की भाँति वह पीठ के बल खटोले पर पड़ा है। वह जागा हुआ है किन्तु उठ नहीं पा रहा। उसका धड़ बहुत भारी है और हाथ-पाँव दुबले, वह किसी भी प्रकार पलट नहीं पाता। वह प्रयास करते करते स्वेद से भीग चुका है और उसका मकोड़े का शरीर उसे स्वयं इतना बीभत्स लगता है कि वह इस शरीर को शीघ्रातिशीघ्र त्याग देना चाहता है पर वह मरना भी नहीं चाहता। ऐसा घृणित जीव बनकर भी उसमें जिजीविषा शेष है। तब तो उसकी माँ जिसे वह नास्तिक समझता है उचित ही कहती है कि किसी जीव पर हिंसा नहीं करना चाहिए। सभी जीव जीते रहना चाहते है और सभी जीव अपने जीवन के लिए दूसरे जीवों पर निर्भर है। दादी अपना प्रभातकालीन वैष्णव पाठ कर रही है। माँ भोजन की व्यवस्था में जुटी है। दादा जी मंदिर और पिताजी पेढ़ी के लिए सिधार चुके है। इस जनसंकुल जगत में किसी को उसकी चिन्ता नहीं है। यदि चिंता होती तब उसकी माँ उसे यहाँ भृंगीकीट के हल्ले में मकोड़ा बनने को छोड़कर पिताजी के निकट जाती! यदि चिंता होती तो दादी यों खर्राटे भरकर सोती यह न विचारती कि कहीं उनका नानोराय मकोड़ा न बन जाए! पिताजी ऐसा व्यवहार न करते यदि उन्हें नानोराय की चिंता होती! वे उसे अपनी खाट पर हृदय से लगाकर न सुला लेते! मनुजयोनि में नानोराय की अंतिम रात्रि है और उसने कभी ईश्वर का स्मरण नहीं किया। खेल-खिलौने, पुस्तकें, कथानक, प्रेत-पिशाच, इंद्रजाल आदि कौतुकों में पड़ा रहा। ध्रुव और प्रह्लाद की भाँति उसे बैकुण्ठलोक से लेने गरुड़देवता न आएँगे। एक क्षुद्र जंतु की योनि में पड़कर किसी अधीर मनुष्य के खड़ाऊँ के नीचे आकर मरना ही उसका भाग्य होगा। ऐसा होता भी क्यों नहीं? क्या वह स्वार्थी नहीं? वह भी दादी को अकेला मकोड़ा बनने के लिए छोड़कर माँ और पिताजी के पास गया था। यदि दादी को वह स्वार्थी मानता है यदि माँ, पिताजी, दादाजी, मानकबाँ, पुनर्नवा पण्डित संसार का प्रत्येक जन स्वार्थ का पुतला है तो वह भी स्वार्थी है ऐसा सोचते सोचते नानोराय को कब निद्रा आई और कब वह स्वप्न देखने लगा कोई नहीं जानता। स्वप्न में वह भृंगीकीट बनकर दूसरे मकोड़ों के कानों में भृंगी होने के मंत्र फूँक रहा था। अर्धरात्रि कड़वे तैल की चिमनी जलाकर पुनर्नवा पण्डित धर्मशाला के कमरे में बृहदरण्यकोपनिषद की खण्ड खण्ड हो चुकी प्रति निकालकर बैठे थे। ख्रिस्तानी धर्म की निंदा, ख्रिस्तानी धर्म को शत्रु बनाकर हिन्दू जीवन की परिभाषा वह बहुत कर चुके थे और अब उस बालक द्वारा हरिपीठिका में हँसी का पात्र बनने के पश्चात् वह जानना चाहते थे हमारे शास्त्र, हिन्दू दर्शन और भारत का लोक हिन्दू होने के विषय में क्या कहता है। नानोराय के घर पर उन्होंने अपनी आदत के कारण पुनः ख्रिस्तानी पादरियों के हिंदुओं को विनष्ट करने के षड्यंत्र की बात दोहराई थी और नानोराय के बाइबल शास्त्र लाने पर भी कोई ध्यान नहीं दिया था जबकि वह उसके गृह गए ही थे कि उससे क्षमा माँग सके पर उनका बड़े होने का अहंकार आड़े आ गया था। चिमनी के प्रकाश में उन्होंने पढ़ा, ‘स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस् तु कामाय जाया प्रिया भवति। न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्तियात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति। न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति। न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति। न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति। न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति। न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्ति। आत्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति। न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति आत्मनस् तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति। न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद सर्वं विदितम्॥’ न पति के प्रयोजन से पति प्रिय होता है। न स्त्री, पुत्र, धन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, लोक, देता, सभी प्राणियों के प्रयोजन से वे प्रिय होते है। हमारी आत्मा के प्रयोजन से हमें सब प्रिय होते है। इसी आत्मा का दर्शन, श्रावण, और चिंतन करना करना चाहिए क्योंकि इसके ज्ञान से सबका ज्ञान हो जाता है। कामक्रीड़ा के समय केवल बाह्यभुवन ही लुप्त नहीं होता बल्कि जो संसार हम अपने अंतर में धारण करते है वह भी विलुप्त हो जाता है। रावजीभाई देवबाई के आलिंगन त्रिभुवन बिसार नयन मींचे सो रहे थे। दम्पत्ति के वस्त्र उलटपुलट हो रहे थे। रावजीभाई की पीठ देवबाई के मुष्टिप्रहारों के कारण रक्ताभ हो रही थी और देवबाई के कंधों में नखाघात की रेख रावजीभाई को हाथ फेरने पर स्पष्ट अनुभव होती थी। निद्रा में ऐसा करने पर देवबाई ने कुररी सी धीमी ध्वनि की और पुनः सो गई। ‘शरीरस्थितिहेतुत्वादाहारसधर्माणो हि कामाः। फलभुताश्च. धर्मार्थयोः॥’ भोजन की भाँति प्रिय का दैहिक साहचर्य भी शरीर की स्थिति के लिए अवश्य है। शरीर ही क्यों संसार की स्थिति के लिए भी यह अनिवार्यता है। सृष्टि मैथुनी है, चलती रहे इसलिए अविद्या की सँकरी बाट पर पकड़ती है जहाँ इसके पहिए कीचड़ में धंसते है, जहाँ पग पग पर इसकी गति अवरुद्ध होती है पर इसे छोड़ इसके पास कोई और मार्ग भी तो नहीं होता। सृष्टि का यह रथ इतिहास में कई बार चलते चलते ज्ञानमार्ग पर आ जाता है। अविद्या की पगडंडियाँ और ज्ञानमार्ग इन्हीं में हम जीवन भर विचरण करते है। अविद्या की बाट भीड़ है और ज्ञानमार्ग जनशून्य है। यहाँ एकाकी ही चलना है। दूसरे दिन जागते ही नानोराय ने वैष्णव सन्त से दीक्षा लेने की रट पकड़ ली। जलपान तक नहीं लिया और किसी वोपदेव का सटीक मुक्ताफल नामक ग्रन्थ लेकर भण्डार के कोने में जाकर बैठ गया। कलियुग में प्राणों का आवास अन्न है, दोपहर चढ़ आई पर नानोराय भोजन की ओर देखता तक नहीं था। श्रावण मास था सो अपने ससुराल ग्राम जेतपर से नानोराय की बड़ी बहन शिवकुँवरबाई आ गई। देवबाई की बड़ी बहन गणेशीबाई नानोराय की पीठ पर हुई मीनाबेन को अपने संग ले गई थी। उनके बेटे ही बेटे थे पुत्री का अभाव उन्हें खटकता था। वे अपने सबसे बड़े आत्मज द्वारिकाधीश, दो और छोटे भाई और पाँच वर्षीय मीनाबेन को लेकर चली आई थी। घर अतिथियों से भर गया। आते ही गणेशीबाई ने नानोराय के मुख में संग लाई सुखड़ी ठूँस दी। पहले वह खाता रहा। भूखे को मीठा अधिक ही सुहाता है फिर उपवास टूट जाने के कारण रो पड़ा। उधर दूसरे बच्चे टंटा करने लगे। देवबाई चौकसी के लिए वहाँ भागी। नानोराय ने उठकर कुल्ला किया और घूँटभर जल पीकर हाथपाँव धोए और पुनः आकर ग्रंथमुक्ताफल पढ़ने लगा। “सांद्रम्बुदाभं सुपिशंगवाससं प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम्। महामणिव्रातकिरीटकुण्डलत्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम्।।” थोड़ा अर्थ पल्ले पड़ा फिर सटीकमुक्ताफल में अन्वय देखा। अब निश्चय किया कि इसका वह भाषा में अनुवाद करेगा ताकि वे भी समझ सके जो पाठशाला नहीं जाते जैसे मानकबाँ, गणेशी मौसी, शिवकुँवरबेन, मीनाबाई तो बहुत छोटी है। वह तो अभी रोटी और साग का अन्तर नहीं जानती श्रीमन्नारायण के कुन्तलों का वर्णन और सांद्रमेघों के समान उनके कलेवर की शोभा क्या समझेंगी। उधर सुतरफेनी का बँटवारा हो रहा था। द्वारिकाधीश छकड़े में बैठे बैठे ही सबसे आँख बचाकर सुतरफेनी खाता आ रहा था। गणेशी मौसी ने यहाँ आकर जब डलिया खोली तो आधी सुतरफेनी ही शेष थी। मौजमजे के बीच केशाकेशी होने लगी, तीनों भाई एक दूसरे को कुतरा, गधेड़ा और सूवड़ला कहने लगे। द्वारिकाधीश ने अपने मँझले भाई से कहा, “छोटा होने के नाते तू मेरा चाकर है कुतरे”। इससे पहले कि मँझला उत्तर देता सबसे छोटा तुतलाया, “तू कुत्ता तेरा बाप पाजी”। शिवकुँवर गर्भ से थी, यात्रा से थकी वही विश्राम कर रही थी, हँसते हँसते लोटपोट हो गई। इतने में मँझला चिल्लाया, “हमारी सुतरफेनी खानेवाले हबशी की संतान”। सहोदरों को एक दूसरे को कुत्ता, पाजी और हबशी की सन्तान बताते हुए सब सर्वप्रथम ही देख रहे थे। देवबाई ससुराल में ठहाके न लगाती थी सो मुँह में आँचल ठूँसकर पेट पकड़ रही थी। गणेशीबाई और नानोराय की दादी अम्बाबाई की गल्पगोष्ठी में इस हल्ले से विघ्न पड़ा तो दोनों ने उस ओर देखा। “तू सेरभर सुखड़ी गप कर गया जब तो मैंने तुझसे एक शब्द नहीं कहा, चोट्टे” द्वारिकाधीश ने छोटे से कहा। “छी: थू। सड़ीसड़ाई सुखड़ी तो मेरा बाप भी न खाए” छोटे ने घोषणा की। गणेशीबाई तीनों को पीटने को दौड़ी। उसके पति श्रीमूरतलाल वोरा राजकोट में प्रसिद्ध महावीर मिष्ठान भण्डार चलाते थे और उनके हाथ की सुखड़ी जगतख्यात थी। घर घर बननेवाली सुखड़ी राजकोट में केवल श्रीमूरतलाल वोरा बनाते थे ऐसा उनके हाथ में स्वाद था और उनके बालक यहाँ सुखड़ी का ऐसा अपयश कर रहे है। तीनों को दो दो तमाचे मारे, “अंधाधूँधी मचाकर रखी है, तुम्हारे बापू के हाथों बनी सुखड़ी है यह”। नानोराय स्वाध्याय छोड़कर दौड़ा आया, “मौसी, तुम इन्हें मत मारो। बालबुद्धि है तीनों”। सुनकर घरभर हँसने लगा। नानोराय स्वयं गणेशीबाई के सबसे छोटे बेटे की वय का था और स्वयं से चार वर्ष बड़े द्वारिकाधीश और अन्यों को बालबुद्धि कह रहा था। “देखा, कैसे धीर मगज का बालक है और तुम! सुखड़ी-सुतरफेनी के वास्ते टंटा तो कभी गेंद-गुलेल के पीछे गाली” गणेशीबाई ने अपने बेटों को अंगुलि और आँख दिखाकर कहा। “अभी
उसकी किताब फाड़ता हूँ फिर देखना कैसी मिर्ची लगती है इस नानोराय मेहता को”
द्वारिकाधीश
भंडार की ओर चला जहाँ नानोराय ग्रंथ सटीकमुक्ताफल पढ़ रहा था,
“बहुत बोल
रहा है। मुझे बालबुद्धि बताता है कल का जन्मा छोकरा”।
मँझला भी पीछे क्यों रहता, “अकेला रहता है यहाँ जब जो जी में आता होगा भरपेट खाता होगा”। गणेशीबाई अपने पुत्रों के व्यवहार से अत्यंत लज्जित हुई और द्वारिकाधीश का हाथ मरोड़ दिया। नानोराय को अपने मौसेरे भाइयों के उसके प्रति व्यवहार से इतना क्लेश न हुआ जितना उन्हें जिह्वादास बने देखकर हुआ। उसका खेद इतना तीव्र था कि उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। गणेशीबाई ने उसे निकट खींचा और उसकी आँखें पोंछने लगी। जितना पोंछती उतने आँसू उमड़े आते थे। मानुषजीव इसी भाँति मकोड़ा बन जाता है। काया वही रहती है मन मकोड़ायोनि को प्राप्त हो जाता है, यह सोचते हुए उसने निश्चय कर लिया कि नामस्मरण की दीक्षा लिए बिन जल तक ग्रहण न करेगा। |
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