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डायरी का आखिरी पन्ना
17 जुलाई 1991/रात 2 बजे


आज अम्मा की अलमारी में प्राची का पत्र मिला। डेढ़ साल पुराना पत्र।…और इन दिनों, मैं यही समझता रहा कि औरंगाबाद से लौटने के बाद सब खत्म हो गया, कुछ नहीं बचा हमारे बीच। मुझे लगा था वह अपनी उस बात पर क़ायम नहीं रह पाएगी जो उसने कही थी, औरंगाबाद में हुई हमारी आखिरी मुलाक़ात में। मैं जानता था वह नहीं भूल पाएगी मुझे।……पर आज लगभग डेढ़ साल बाद, जब मुझे यक़ीन हो चला था कि वह मुझे भूलकर आगे बढ़ गई होगी, तब उसका यह पत्र मेरे हाथों में है, जो मेरे घर तक पहुँचकर भी मुझ तक नहीं पहुँचा था।
क्यों किया अम्मा ने ऐसा?
जैसे आज अचानक यह मेरे हाथ लग गया, क्या पापा ने भी इसे ऐसे ही किसी दिन पढ़ लिया होगा?, या अम्मा ने ख़ुद ही उन्हें पढ़वा दिया होगा। क्या इस पत्र के बारे में मुझे छोड़कर घर के बाकी सभी लोग जानते रहे होंगे? फिर भी सब चुप्प, सौंठ, ख़ामोश…,…बने रहे अंजान, घर की हवा भी रही आई जस की तस। सब किस निर्ममता से देखते रहे मुझे-उदास, टूटा हुआ, भटकता यहाँ से वहाँ।
मेरे औरंगाबाद से लौटने के लगभग एक महीने बाद लिखा गया था यह पत्र। यह वही समय रहा होगा जिसके ठीक एक-डेढ़ महीने बाद ही हॉस्टल खाली कर देना पड़ा होगा उसे। पत्र में लिखा है वह वहाँ से वापस भड़ूच नहीं जाना चाहती थी। वह झाँसी आना चाहती थी, मेरे पास। वह इन्तज़ार करना चाहती थी, मेरा। मेरे औरंगाबाद से लौटने के बाद जब खूब रो ली होगी वह, तब लिखा होगा उसने इसे, इसमें जब उसने सारी बिनती,चिरौरी और माफ़ी लिख ली होगी, तब बिलकुल हल्का हो गया होगा उसका मन, जीवन के नए और अंजाने सफ़र के लिए तैयार,…फिर हॉस्टल खाली करने की आखिरी तारीख़ तक करती रही होगी, मेरे उत्तर की प्रतीक्षा।
उस दिन जब उससे मिलकर, मैं औरंगाबाद से झाँसी लौट रहा था, तब मैंने सोचा था कि यह हमारे प्यार का आखिरी दिन है और उसी रात भोपाल स्टेशन पर बैठकर लिखा था, अपने प्यार के उस आखिरी दिन का आखिरी पन्ना। मुझे लगा था सही थीं दोस्तों की नसीहतें,…कुछ नहीं होता है दुनिया में प्यार के जैसा, बस बेरहम जरूरतें होती हैं, जिनको पूरा करने के लिए लोग मिलते और बिछड़ते रहते हैं। उस दिन, उस आखरी पन्ने को लिखने के बाद, डायरी लिखना, डायरी क्या कुछ भी लिखना बन्द ही हो गया था।
……पर वह आखिरी पन्ना नहीं था,…और न ही वह प्यार का आखिरी दिन था। वह तो शायद पहला दिन था जब कसौटी पर कसा जाना था, प्रेम को।
आज डेढ़ साल बाद, उसका पत्र लिए बैठा हूँ, मैं। घर में, मेरे अपने सब सो रहे हैं, निश्चिन्त। वे तो भूल गए होंगे उसका नाम भी। अम्मा भूल गई होंगी इस पत्र को। तभी तो आज यह इतनी आसानी से मेरे हाथ लग गया। यह पत्र मुझे मिलना ही था। ताकि मैं सचमुच अपने पहले प्यार का आखिरी पन्ना अपनी डायरी में लिख सकूँ।
शायद वह भड़ूच चली गई होगी अपनी कजिन के पास, पर भड़ूच में कहाँ? आह! कैसा श्राप है मुझे? कितनी तरह से उत्तर लिख सकता हूँ, मैं इस पत्र का, पर उन्हें पोस्ट नहीं कर सकता, जो पता इस पर है, अब उस पते पर वो नहीं है, और इसके सिवा मेरे पास कोई पता नहीं है।
अब हर पन्ना यही सोचकर लिखता रहूँगा मैं कि शायद यह उस कहानी का आखिरी पन्ना हो? रोज़ डायरी लिखूँगा फिर भी सैकड़ों प्रश्न अनुत्तरित ही रहे आएंग। मैं हज़ारों पन्ने इसी आस मैं लिखता रहूँगा कि कोई क़ाग़ज़ का टुकड़ा उड़ता हुआ आ पड़ेगा किसी दिन तुम्हारे पैरों में, जिसमें लिखे होंगे मेरे शब्द, जिन्हें तुम देखते ही पहचान लोगी, जान जाओगी तुम कि यह मैं ही हूँ। इन सारे लिखे-पढ़े शब्दों का कोई अर्थ नहीं होगा मेरे तुम्हारे लिए, सिवाय इसी एक आशा के कि यही शब्द हैं, जो हमें किसी दिन ला खड़ा करेंगे इस जीवन, एक-दूसरे के आमने-सामने।


-विवेक मिश्र

 

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