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स्वाधीनता:
आज के संदर्भ में
आधी शताब्दी से ज्यादा
समय हो गया है हमें आजादी मिले हुए। स्वतन्त्रता मिलने के बाद देश का जो
संविधान बना उसमें सभी नागरिकों को समान रूप से कुछ अधिकार दिये गए। देश
के संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते हुए यह सोचा भी नहीं होगा
कि वे जो संविधान बना रहे हैं उसका आगे चल कर किस तरह मखौल उड़ाया जाएगा
यही नहीं जो अधिकार वे नागरिकों को दे रहे हैं ‚ वे एक हद तक अभिशाप
साबित होंगे। स्वाधीनता को आज के संदर्भ में देखा जाए तो देश के बदलते
हालातों और अस्थिर सरकारों के चलते कुछ ऐसे बिन्दु सामने उभरते हैं कि
जिन पर पर्याप्त विश्लेषण आवश्यक है।
कृषि – वैसे तो भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है और देखा जाए तो देश
की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर ही निर्भर करती है। लेकिन आज जो कृषि
क्षेत्र के हालात हैं उसकी शायद किसी ने पूर्व में कल्पना भी न की होगी।
देश के लगभग सभी राज्यों से किसानों के हताश होकर आत्महत्या करने के
समाचार लगातार आ रहे हैं। सरकार की नीतियों के चलते किसान आज भारी कर्ज
में डूबा है।
एक ओर लोग भूख से जान दे रहे हैं‚ दूसरी ओर गोदामों में अनाज सड़ रहा है।
केन्द्र ने सस्ते दर पर गेहूँ की खरीद तो जारी रखी‚ लेकिन किसानों को
सलाह दी गई कि वे आइंदा खेती में गेहूँ कम दूसरी फसलें अधिक बोए। एक ओर
सरकार अपनी मजबूरी जताती है कि उसके पास कई करोड़ अनाज रखा सड़ रहा है दूसरी
ओर केन्द्रीय खाद्य वितरण मंत्री शांताकुमार का कहना है कि गोदामों में
सड़ रहे अनाज को मुफ्त में बाँटने से सरकार को और नुकसान होगा क्योंकि
वितरण के लिये सरकार के पास धन की कमी है। अव्यवस्था की पराकाष्ठा है यह
तो।
एक समय था जब पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री लालबहादुर शास्त्री ने जनता
से गेहूँ गमलों में उगाने की अपील की थी। उसके कुछ ही दिनों बाद इंदिरा
गांधी गेहूँ के लिये पूरी दुनिया में घूम रही थीं और अमेरिका ने भारी
अहसान जताते हुए सड़ा–घुना गेहूँ भारत को बेचा था। लेकिन आज जब कृषि
वैज्ञानिकों और हमारे किसानों की मेहनत रंग लाई और आवश्यकता से अधिक अनाज
पैदा किया गया तो सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुकर रही है। बेहतर तो यह होता
कि अतिरिक्त गेहूँ को सरकारी दर पर खरीद गोदामों में ठूंसने की जगह
निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाती। उल्टे वह मूर्खतापूर्ण अनुबंधों के चलते
गेहूँ का आयात करने को मजबूर है। और किसानों को घर और खेत बेच कर कर्ज
चुकाना पड़ रहा है। क्या इसी अव्यवस्था का नाम स्वाधीनता है?
आर्थिक नीतियाँ एवं उद्योग – कहते हैं जब देश आज़ाद हुआ था तब देश के
अन्दर सुई का भी निर्माण नहीं होता था। लेकिन हालात तेजी से बदले और सुई
से लेकर सुपर कम्प्यूटर तक का निर्माण देश में संभव हुआ। लेकिन जिस तेजी
से हालात बदले थे उसी तेजी से हालात विपरीत हो गए। कई चलती हुई फैक्टिरियाँ
और कारखाने बंद हो रहे हैं।
अर्थव्यवस्था में अनेकों विषमताएं आईं। जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ गुलामी
की वजह बनीं थी आज वही बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश की अर्थव्यवस्था को
गर्त में लेती जा रही हैं। ताजा उदाहरण भारत के बाज़ारों में चीन के माल
की डम्पिंग हो गई है। देश में रोजगार के अवसर घट रहे हैं। देश से लगातार
विदेशों में प्रतिर्भापलायन हो रहा है। राजनीतिक अस्थिरता से उद्योग जगत
पर बहुत बुरा असर पड़ा है। दूसरी ओर मंहगाई से हर वर्ग का व्यक्ति त्रस्त
है।
राजनीति – यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी नैतिकता में खासी गिरावट आई है।
पिछले दिनों टाईम्स के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिकांश जनता का
विश्वास राजनीतिज्ञों पर से उठ चुका है। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति
में तो अपराधियों का बोलबाला है। दोनों ही राज्यों के कई मंत्री
चार्जशीटर हैं। और हाल ही में भारी बहुमत के साथ तमिलनाडु की मुख्यमंत्री
बनी जयललिता तो लोकतंत्र के मुंह पर करारा तमाचा
हैं। राजनीति में परिवारवाद इस कदर हावी है कि गांधी खानदान के बाद अब कई–कई
नाम गिनाए जा सकते हैं। दलबदल एक आम बात है‚ कि नेता चुनाव किसी पार्टी
के चिन्ह से लड़ते हैं तो मंत्री किसी अन्य पार्टी से बनते हैं। सत्ता
समीकरणों के बदलते ही हमारे नेता गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।
हाालिया उदाहरण राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का ही लें जिसमें रामविलास
पासवान‚ अजित सिंह‚ शरद यादव‚ करुणा निधी‚ चंद्राबाबू नायडू जैसे भाजपा
के धुरविरोधी नेता शामिल हैं जो कि कल तक भाजपा को पानी पी–पी कर कोसा
करते थे‚ लेकिन आज मलाईदार महकमों के सर्वे–सर्वा हैं। संविधान में जिस
राजतंत्र से जनता की भलाई की कामना की गई है आज वही राजतंत्र जनता के साथ
विश्वासघात कर रहा है।
भ्रष्टाचार – पिछले दिनों हमारे भारत महान की गणना विश्व के सबसे भ्रष्ट
देशों की सूची में की गई‚ लेकिन दुर्भाग्य से उस सूचि में भी भारत प्रथम
स्थान पाने से वंचित रह गया। वैसे हर राज्य के हर जिले में‚ हर कस्बे तथा
गाँव में‚ हर सरकारी महकमे में‚ सरकार के हर मंत्रालय में जिस तरह
भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा चुका है उसे समाप्त करना शायद नामुमकिन ही है।
आज किसी विभाग में रिश्वत के बिना काम नहीं होता। नीचे से लेकर ऊपर तक
पूरा तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। चारा‚ चीनी घोटाला‚ हवाला कांड‚
तहलका‚ यू टी आई घोटाला और ऐसे ही न जाने कितने घोटालों की सूची रोजाना
उजागर हो रही है लेकिन हैरत की बात यह है कि न तो इन घोटालों की संख्या
में कमी आई है‚ न ही इनके अपराधियों को अब तक कोई सजा हुई है‚ वे बेशर्मी
से आज भी उच्च पदों पर बेखौफ आसीन हैं। क्या यही है अर्थ देश की स्वाधीनता
का ?
विभिन्न राज्यों के बिखरते हालात – कश्मीर की समस्या तो इतने बड़े शिखर
यात्रा के कर्मकाण्ड के बाद भी नासूर बनी हुई है। देश में किसी भी नागरिक
को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं। रोजाना घाटी में हज़ारो
निर्दोष लोग मारे जाते हैं। अब तो जम्मू भी इससे अछूता न रहा और उसे भी
असांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। सीमा पार से आतंकवाद जारी है।
मणिपुर और नागालैण्ड भी नागा संघर्ष विराम समझौते के कारण हिंसा की आग
में धधक रहे हैं‚ जिसकी आँच असम तक पहुंच रही है‚ जो पहले ही से उल्फा
उग्रवादियों और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है।
उड़ीसा–बिहार बाढ़ की चपेट में हैं तो गुजरात भूकंप
से हुई तबाही के नुकसान की भरपाई के साथ–साथ पीने के पानी की कमी से जूझ
रहा है। उत्तरप्रदेश में आगामी विधान सभा चुनावों की सरगर्मी के मद्देनज़र
राजनीतिक दलों में सौदेबाजियों के जोर के साथ जातीय गुटबाजी भी चरम पर
है। पंजाब में खलिस्तान के स्वयंभू राष्ट्रपति की वापसी हो चुकी है तो
दिल्ली सीएनजी और बिजली की समस्या से ग्रस्त है। राजस्थान‚ महाराष्ट्र और
आंध्रप्रदेश सूखे से लड़ रहे हैं तो मध्यप्रदेश में राजनैतिक खूनखराबा‚
जेलों में खूनी संघर्ष और अपहरणों तथा सरकारी कर्मचारियों की छंटनी की
समस्या में लिप्त है। तमिलनाडु में राजनैतिक बदलों का दौर चल रहा है तो
केरल‚ हरियाणा की राजनीति में परिवारवाद जोर पकड़ रहा है। पश्चिम बंगाल
में ममता का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है और जनता ऊंट के करवट बदलने की
प्रतीक्षा में है। हिमाचल में महाभ्रष्ट मंत्री सुखराम फिर कानून के
निशाने पर है। और नए बने राज्य छत्तीसगढ़‚ उत्तरांचल‚ झारखंड अपनी ही
टीदिंग प्रॉब्लम्स से परेशान हैं। क्या यही आजाद भारत का परिदृश्य है
जिसकी कल्पना शहीदों ने की थी?
कानून – 'कानून के हाथ बड़े लम्बे होते हैं।' क्या अब यह वाक्य केवल फिल्मी
डायलॉग बन कर नहीं रह गया? देश का कानून इतना लचीला है कि हर बड़े से बड़ा
अपराधी सहजता से जमानत पा सकता है और अदालत की लम्बी–लम्बी तारीखों में
छोटे से छोटा केस भी उलझ कर बीस साल खिंच जाता है। देश की विभिन्न अदालतों
में न जाने कितने मुकद्दमें सालों से लंिम्बत पड़े हैं। आम आदमी कानून का
साथ देने से कतरा जाता है कि जो व्यक्ति पुलिस की सहायता को आगे आएगा
पुलिस उसे ही कानून की पेचीदगियों में उलझा कर रख देगी और उसे अदालत के
हजार चक्कर काटने पडे.ंगे। ऐसे न जाने कितने कानूनों की संविधान में
भरमार है जो कि ब्रिटिशकाल में बनाए और आज के संदर्भ में अपनी प्रासंगिकता
खो चुके हैं। कानून की आड़ में अपने लाभ के लिए‚ जीवित व्यक्ति को मृत तथा
मृत को जीवित घोषित किया जाना आम हो चला है। क्या यही जनकल्याण की भावना
है जिसके तहत कानूनों का निर्माण किया गया था।
उपरोक्त सभी तथ्यों पर गौर किया जाए तो यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है
कि स्वाधीनता का सही अर्थ पहचानने में हम अभी तक कामयाब नहीं हो पाए हैं।
स्वाधीनता के असल मूल्यों और उद्देश्यों को अमल में लाना अभी बाकि है।
अन्ततोगत्वा स्वतन्त्रता दिवस के इस पावन उपलक्ष्य पर यह बात गांठ बांध
लेनी चाहिये कि अपनी संस्कृति और गौरवमय इतिहास का सम्मान करते हुए अपने
सामाजिक कर्तव्यों का पालन करके ही देशप्रेम की असली भावना के मूल तक
पहुंचा जा सकता है। इसीसे देश को उन्नती और प्रगति के पथ पर चलाया जा सकता
है।
–
नीरज कुमार दुबे
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