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परम में उपस्थित वह अनुपस्थित

ब्रह्म मुहुर्त में एक ललक और संभावित अलगाव के पीड़क पलों में उसने कान में जो विदा का श्लोक फुसफुसा कर फूंका था, एन् उसी पल कविता में उपस्थित हो उठी थी, उसकी संभावित स्थायी अनुपस्थिति। हम मिल रहे थे, उसकी आगत अनुपस्थिति के भुरभुरे मुहाने पर। वह क्रमश: अनुपस्थित हो रहा था मेरे परोक्ष अस्तित्व से, मगर उपस्थित होता जा रहा था मेरे होने की तमाम अपरोक्ष वजहों के मूल में। बाहर मेरी देह और उसकी परछांई जितनी जगह घेरती है, वह उतनी जगह मेरे भीतर घेर रहा था, मेरी ही परछांई के मूल स्त्रोत को बेदखल करते हुए। बाहर कोहरा था, भीतर और भी घना, लेकिन दोनों कोहरों में गहरा फर्क़ था। ये अलगाव की आगत के क्षेपक क्षण थे, असंगत - से, कि उपस्थित था वह, अनुपस्थित होने के बहुरूपात्मक प्रत्यक्षीकरण में । मेरी पीठ पर दर्ज हैं, आज भी उसकी कौड़ियाली आँखें, रेतघड़ी सी झरती हुईं। जो चाहती थीं स्थान, काल, पात्र की सभी सीमाएं ध्वस्त हो जाएं, समय - रथ के पहिए की धुरी ही टूट जाए।

उसकी अनुपस्थिति जब मेरे आगे उपस्थित हुई। पटरियाँ खाली थीं। रेल जा चुकी थी। वही जंगल थे, पगडंडिया थी, बिना पुल वाली बहक कर बहती नदी थी। नहीं था तो केवल वह योजक चिन्ह, जिससे जुड़ते थे जंगल मुझसे। पगडंडियां बनाती थीं हमारा योग। जंगल वहीं थे, नदी के किनारे सुरख़ाबों के घोंसले भी वहीं थे, उनके अनुरंजनी नृत्य भी जारी होंगे। उस अथाह और परम उपस्थित में योजक चिन्ह के अभाव में उसके साथ मैं भी अनुपस्थित हो गई थी। मन को ट्रेंक्वेलाइज़र देकर सुला दिया था यह सोचकर कि कुछ दिन बाद बीत जाएगा एक सतयुग। एक लंबा वनवास जो प्रिय था, स्वर्ण मृगों की कुलांचों से भरा - भरा और केवट - शबरी - हनुमान भाव से ओत प्रोत। स्मृतियां लिपट - लिपट कर पैरों से, साथ लिथड़ेंगी। मौन चीख पड़ेगा, देह सिहर - सिहर कर रुदन करेगी । मान रूठ कर, पलट कर खड़ा हो जाएगा और समझदार प्रेम उसके भले की कामना करते हुए, उसका असबाब उठा कर स्टेशन तक छोड़ कर लौट आएगा । उस अनुपस्थित प्रेम के कंधे पर टिक कर बिता दी जाएगी शेष वयस।

यायावरी हमारी नियति और चाव दोनों है, उपस्थिति और अनुपस्थिति के व्यातिक्रम हमारा पाथेय। बहुधा यह हुआ है कि हमने काटे हैं, अनजाने रास्ते एक दूसरे के। उसके उठकर जाने की ऊष्मा से भरी जगह पर मैं बैठी हूं, और मेरी बगल की गली से वह समानांतर गुज़रा है। एक बार तो धूलभरी आँधी में हम अनायास उपस्थित थे आमने - सामने मगर बिना पहचाने एक दूसरे को। हम दो यायावर एक दूसरे की यात्राओं में लगातार अनुपस्थित रहे थे लेकिन पटरियों और सड़कों के विकट मोड़ों पर धुंधलके में भी रेलों, बसों की खिड़कियों से दिखते रहे एक - दूसरे को। हाथों में दिशानिर्देशक पट्टिकाएं थामे। कहा तो रूमी ने लेकिन महसूस मुझे होता रहा है, ये शरीर बहुत दूर हैं पर हमारी आत्मा की तरफ तुम्हारी आत्मा की एक खिड़की हमेशा खुली है।

"किसी महागाथा में क्षेपक सी बीती उन रातों में मेरी आत्मा की लगभग सारी खिड़कियां खुली रह गईं थीं। नतीजतन मुझे ठंड लग गई थी, मैं खांसती और छींकती रही थी, एंटीहिस्टैमिनिक दवाओं के रैपर सारे खाली थे। वह होता तो खीज कर कहता - अगर मेरी अनुपस्थिति तुम्हें बीमार कर सकती है तो मेरी उपस्थिति का भला कोई अर्थ रह जाता है? तुम्हें पैदा करनी होगी "इम्यूनिटी"। मेरे न होने को लेकर। कुछ देर को सुला दो यह दर्द। "
क्या यह केवल अनुपस्थिति थी? यह उस उपस्थिति की सांद्रता थी। जो ठोस होने की हद तक सांद्र होने को थी। एक पूरा वातावरण था उसका होना। वह बस एक कमरे से उठकर चला गया था, अपना असबाब बांध कर मगर वायुमंडलीय गोलक में बस चुकी थी उसकी उपस्थिति। खूब एहतियात से उसने बाँधा था अपना सामान कि कहीं कुछ छूट न जाए, किंतु बहुत सारी जगहों पर वह खुद ही छूट गया था। पीछे छूटा वह छोटा - सा संसार, राजीव चौक की मैट्रो - रेल के डिब्बे की तरह हो गया था, उसकी स्मृतियों से ठसाठस, कि मुझे सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। वो सारे सन्नाटे जो उसकी मुलायम - समझाने वाली आवाज़ से अपदस्थ हुए थे, बुरी तरह चीख़ रहे थे । मेरे कान बस बहरे होने को थे। उसकी उपस्थिति ने उसकी अनुपस्थिति को पूरी तरह संक्रमित कर दिया था। सुन्न पड़े मेरे वज़ूद पर
एक क्लीशे झर रहा था, जिसे मेरा मौलिक मन अपनी कुर्तियों पर से झाड़ने का प्रयास कर रहा था।
Absence makes the heart grow fonder. " उसका महत्व, उसके जाने के बाद!"
चाय के अकेले प्याले की व्यथा जा मिली थी, खुले हिंदी के अखबार के समानांतर बंद टाइम्स ऑफ़ इंडिया की अनखुली तहों के अनछुए दुख से। खाने में से स्वाद की तरह वह अनुपस्थित था।

मेरे वनांचल के सारे गगनचुंबी विशाल पेड़ अपनी छालों समेत स्वपोषी ऑर्किडों को दुष्टता से नीचे धकिया चुके थे, मगर बसंत मलबे में भी उपस्थित था, पीताभ और संक्रमित। लाल परों वाली 'मिनिवेट' चिड़ियों के झुंडों का आप्रवास समाप्त हो चुका था। वे लौट रहीं थीं। लौटते झुंड से पीछे छूट गए कमजोर परों वाले किशोर 'आईबिस' पंछी पेड़ पर बैठ किंकियाते थे। उड़ चुके थे वे क्षण और क्षणांश जिनमें पूरी सदी के साथ की संभावना के भ्रूण अकस्मात मर गए थे। एक दुनियावी खेल के बरक्स लंबे अनुभव की एक ज़मीन धंस रही थी। जड़ें मिट्टी छोड़ रहीं थीं। मैं खुली जड़ें लिए एक अधउखड़े पेड़ सी, हतप्रभ! अपने बगल के सटे पेड़ के उखड़ कर अपनी जड़ों को पैर बनाकर चले जाने के चिन्हों को जड़वत देख रही थी। वे पदचिन्ह थे कि जड़चिन्ह!

उसकी अनुपस्थिति ने उघाड़ दिया था मेरी आत्मा को। निर्वसन होने का निर्वासन हममें से हर कोई जीता है, नग्नता के दु:स्वप्नों में। मैं कुछ स्वप्न में, कुछ यथार्थ में अपनी नग्न आत्मा को हाथों से ढांपे बैठी थी। जिस लगाव को महसूसने के लिए पांच इंद्रियां कम पड़ती हों, और छठीं इंद्री की आंच को हम समवेत फूंकों से जगा रहे थे, ऐन् उसी पल वह उठ कर चला गया था । मैं इस साझे दर्शन पर काम करते हुए अकेले छूट गई थी कि - एक अद्भुत और अभूतपूर्व, हर संभव - असंभव कोण और तराश वाले किसी संबंध के मूल में केवल देह - अंतस - अचेतन - अवचेतन नहीं हो सकते। एक व्यक्ति के संश्लेषण में आत्मा और देह के अतिरिक्त भी कुछ ज़रूर होता है।
'जिगसॉ पज़ल' के टुकड़ों जैसे दो लोग, परस्पर मिलने वाले विपरीत कटाव, तराश और उठान लिए इस संसार में बमुश्किल मिलते हैं। हम अपने अस्तित्वगत संश्लेषण के ये जादुई मिलान करने को उद्धत ही थे कि वह पलट कर चला गया। यह जताते हुए कि - सुनो प्राण, अनुपस्थिति महज वैश्विक है, उपस्थिति अनंत।

मैं उस अनंत के भरम को ढो रही हूं कि ईश्वर जिस निर्वात को तुम्हें सौंपता है, प्रेम में अनुपस्थिति के अणु उस निर्वात को भर देते हैं, वह निर्वात जीवंत और सांस लेने योग्य हो जाता है। लेकिन मेरा दम घुट रहा था। 'हायपोक्सिया' में बिना ऑक्सीजन के इस सम्मोहक असर का भरम मुझे अभी जीना था, अंतिम रूहानी सांस की मीठी नींद तक। कहते हैं कि किसी की अनुपस्थिति उसके विरह - पीड़क को तभी प्रभावित करती है जब उसकी उपस्थिति पीड़क की पांचों इंद्रियों पर हावी हो। मेरी तो छठी इंद्री तक संक्रमित थी। उसके जाने से लगा बहुत सारी वे अनुपस्थितियां भी सजीव और संगीन हो गईं, उन स्थाई और अस्थाई दिवंगतों की कि जिनके मरने / जाने को उसके होने ने लगभग भर दिया था। आज चित्रों - आत्मचित्रों के बाढ़ के दिनों में किसी का कोई छायाचित्र तक नहीं है मेरे पास । क्योंकि वह मानता था कि दिवंगतो और अनपस्थित हो चुके आत्मीयों की फोटो महज एक कृत्रिम और स्थूल राहतें हैं जबकि ख़त धड़कते हुए, पंख फड़फड़ाते जीवंत अहसास है अनुपस्थितों के। यही कह कर दिवंगतों की तस्वीरें हटवा दी थीं मेरी भीतरी और बाहरी दीवारों से। ख़तों से मेरी दीवारें भरीं थीं, भीतरी और बाहरी।

वह जा रहा था और मैंने कहा था - " माना कि तुम हमेशा लौट आते हो, पर तुम्हारा जाना देखना मेरे हिस्से में बहुत आता है। अपने जाने को पता नहीं तुम कैसे लेते होगे, शायद मेरे ओझल होने से। मेरा ओझल होना भी मगर मेरे ही हिस्से बहुत ज्यादा ही आता है। मुझे जलन होती है तुमसे कि एक दिन तुम मेरा जाना देखो, तुम्हारा मुझे जाते हुए देखना और खुद को ओझल होते हुए पाना दोनों तुम्हारे हिस्से थोड़ा - थोड़ा तो आए। मैं जानती हूँ तुम ज़िद्दी हो, तुम मुझे जाने न दोगे। क्योंकि तुम डरते भी हो कि मैं नहीं लौटी तो!! मेरा बहुत मन है कि मैं भी तुम्हें एक रोज़ इस तरह जाकर आहत करूं। "

वह जाते - जाते कह गया था -
"बिलकुल, तुम मुझे आहत करो, मैं तुम्हें आहत करूंगा। हम एक - दूसरे को लहुलुहान करेंगे। क्योंकि यही अस्तित्व के एकमेक होने की प्रक्रिया है, लहू और मज्जा में घुस कर। आगे हमें बसंत बन कर फूटना है, तो पतझड़ में मिट्टी में मिलना होगा। एक दूसरे में सदैव उपस्थित होने के लिए आज की अनुपस्थिति का ख़तरा उठाना होगा। फिलहाल तो मुझे जाना ही होगा। तुम भी लौट जाओ कहीं भी, बेवजह ही सही। क्योंकि हर व्यक्ति को एक दिन चुरा कर अपने लिए रख लेना होता है। क्षितिज रेखा जैसा एक दिन जिससे वह अपनी पूरी चेतना के साथ अतीत को भविष्य से अलगा सके। एक ऐसा दिन जो समस्याओं से जूझने का न हो, न ही समाधानों की खोज का हो। वह दिन बस तल्लीनता का हो अनुपस्थित की खोज में उपस्थित। सुनो, हम सजा सकते हैं इन अनुपस्थितियों को तरह - तरह से। जगा लो अपने भीतर किसी कौतुकप्रिय कलाकार को। जब वह आमंत्रित होता है तब वह भर देता है यह शून्य अनुत्तरित, एकतरफ़ा प्रेम का। अनुपस्थिति प्रेम के लिए वही है जो बुझती आग के लिए फूंक है। फूंक पहले तो हल्का - सा बुझाती है आग को और फिर भभक कर जलता है प्रेम। अनुपस्थिति में ही पोषण है प्रेम का। अनुपस्थितियां जगाती हैं अनंत संसार फंतासियों का, इन्हीं में रचा जाता है प्रेम को नितांत अनूठे ढंग से, ऐसे विलक्षण ढंग और बेढंग जिन्हें यथार्थ में संसार या कि संसार का यथार्थ कभी अनुमान और कल्पना तक की अनुमति न दे। "

उसने आँख पर शब्दों की सिल्क - पट्टी बांध कर घुमा दिया था इस लुकाछिपी के खेल में, जिसमें हार कर मैंने उसकी अनछुई परछाँई से कहा था - तुम और मैं क्या हैं? यह जो हमारे बीच है बस शब्दों का भावनात्मक हुजूम है? जब दूर होगे तो ये मेरे और तुम्हारे ये रंगीन, गंधहीन शब्द बहुत तंग करेंगे। स्पर्श तो शायद त्वचा भुला देगी। यादें उम्र की विस्मृति में बिला जाएंगी। बस ये शब्द गूंजेंगे, नीली मीनारों मे? तुम भला सोच सकोगे मुझे अपनी मंद पड़ती याददाश्त में?
उसका प्रेम भी मुझसे अकाट्य तर्क वाली वकालत करता है, हाँ उसकी अनुपस्थिति में भी। 'मुझ पर भरोसा रखना थियो' की तर्ज और टेक उठाता है। परोक्षत: नहीं भी रखूं तो भी तो यह भरोसा आत्मा का है, क्योंकि दिल तो बच्चा है जी। मेरी रूह बहुत सख्त मिजाज़ है, कस कर पकड़े रखती है कान बच्चा दिल के।
आह! उसके लिए प्रेम कितना सरल था, मानो हम अपना न होना किसी को उपहार में दें और उसका होना उठा लाएं। मैं आंखें बंद करती हूं, सोचती हूं वह लौटेगा और कहेगा, मैं सारा जीवन एक यात्रा पर रहा हूँ और अब घर आ गया हूँ। तब एक लंबी अनुपस्थिति के बाद आलिंगन से बेहतर कुछ नहीं होगा। कुछ भी बेहतर नहीं अपने चेहरे को उसके कांधे के घुमाव में सटा कर अपने फेंफड़ों में उसकी गंध भर लेने से । आज भी उसे सोचना चम्मच से अपनी नींद की चीनी घोलना है। स्वयं को मर्मस्पर्शी, उर्वर निकषों पर कसना है।

पीली रोशनियों के चतुर्भुजों में चकाचौंध मैं किसी एनस्थिसिया से जग गई हूँ। यह स्वप्न और जागृत के बीच की संधिरेखा मुझे सदा ही अचंभित करती है। यह समय से परे की फिसलन भरी ढलान, जहां मेरे हाथ मेरी आँखों की जगह ले चुके हैं। मैं सुन रही हूं एकांत जो बाहर बारिश की तरह गिर रहा है। बारिश की बूंदों के चारों तरफ़ नन्हें इंद्रधनुष डोल रहे हैं। टिक - टिक बीत रहा है तटस्थ समय हर किसी के अस्तित्व में गहरे रहतीं एक, कुछ और कई अनुपस्थियों की संगीन या रंगीन उपस्थितियों से विरक्त ।

मैं यह सब अतिरेक के इसी ज़माने में लिख रही हूं, जब इस संसार से अनुपस्थित होती जा रही हैं बहुत सारी अनुभूतियां। अनुभव और अनुभूतियों के बीच का 'कुछ तो ' भीषण हो गुज़रा है। इन दोनों के बीच बनी, लगातार चौड़ी होती एक दरार में धंस कर 'कुछ तो है' जो अनुपस्थित हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे लगातार हर तरह से, हर माध्यम में संवादरत इस दुनिया में से मौन! मौन अपने आपमें किसी की अनुपस्थिति से नहीं उपजता, बल्कि वह शाश्वत संपूर्ण की उपस्थिति का महीन संगीत है, जिसे अनभ्यस्त कान सुन नहीं सकते। गंध, स्वाद, स्वर, स्पर्श, रूप, रस और मद अपनी अनुपस्थिति में अनुभूत नहीं होते अब, वे नितांत एंद्रिक हो गए हैं, वे स्मृति में टिकते ही नहीं छन कर बह जाते हैं।
अनुभव और अनुभूति के बढ़ते फ़ासलो के बरक्स आत्म से जड़, चेतन में अचेत, ताज़ा तुरंत सिंकी रोटी को भूल चुकी इस इक्कीसवीं सदी में मानो कुछ टिकता ही नहीं। अनुपस्थिति तो अपने विनम्र तर्क लेकर फिर भी खड़ी है, हम उसके तर्क नहीं गहते हैं, क्योंकि सांकेतिकता अधरों पर ठिठकी तिर्यक मुस्कान से परे खुश्क़ हँसी में बदल चुकी है, व्यथा अब इंगित नहीं होती, उसका विज्ञापन आवश्यक हो चला है। अनुपस्थित भाव राग - विराग, प्रेम - विरह, भूख - तृषा, परम और चरम जीवन - जगत में क्या, काव्यलोक या कलाजगत में दुर्लभ हैं। जबकि यह एक तथ्य है कि हम उपस्थितों को उनकी अनुपस्थितियों में अधिक तीव्रता से सीखते / सोखते हैं, क्योंकि हम सब जानते हैं कि संवाद के बीच उचित मौन ही अर्थ - बहुल होता है। अनुपस्थित की उपस्थिति को हम परे धकेल रहे है। हम सतहों पर तैरने के आदी गहरे पैठने से बचने लगे हैं। प्रेम में से विश्वास से पूर्व आत्मविश्वास चुक रहा है, प्रेम में आत्मविश्वास जिस पल जागता है तभी वह आकर्षित होना छोड़ पाता है, बल्कि आकर्षित करना शुरू कर देता है। यह तय है कि अनुपस्थिति में उपस्थित परम के भाव का फलसफ़ा अपने लिए पारदर्शी आत्मनिरीक्षण मांगता है और मांगता है अनुभव की एक उम्र। पारदर्शिता की सबसे बड़ी ज़रूरत है स्वयं के सांद्र में किसी अन्य की तरल उपस्थिति। अपने लिए पारदर्शी होकर ही मनुष्य दूसरों के लिए विश्वसनीय हो सकता है।

लगातार भौतिक सुख और दर्दविहीनता और सुविधा में रहते हुए जैसे कि अभाव की पीड़ा अनुपस्थित हो गई है। महसूस करने और अनुभूत होने की सघनता इस तरह विरल हुई है, जैसे कि हम अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी स्थायी तोषप्रद एनस्थिसिया में डोलते हों । ऐसे में कोई भी दर्द दुखती शिराओं पर ठिठका खड़ा, इतना मंद और मीठा लगता है कि हम उसपर हंसते हैं, रोते नहीं। निजी दुखों को बचाते, सुखों को प्रदर्शित करते हुए आत्मरति में डूबे हुए हम हर गीत और बीतते हुए प्रेम की अंतिम चमकीली सिसकी भी नहीं सुन पा रहे। ठीक वैसे ही, जैसे तेज़ और कृत्रिम प्रकाशों की उपस्थिति में मुलायम अँधेरे में डरे हुए ख़रगोश की तरह दुबका सुबह का आखिरी धुंधलका हम नहीं देख पा रहे रहे। अतिरिक्त रोशनियों में 'ओवर एक्पोज़्ड' हम सामूहिकता में सटे - सटे, भीड़ की गर्म नज़दीकी में स्वयं से ही अनुपस्थित हो चले हैं। हमारे चारों तरफ़ वर्तमान का ठंडा गाढ़ा पारभासी अंतरिक्ष है। हमने भविष्य की तस्वीरों से मुखातिब होना बंद कर दिया है, अतीत के तहखानों से आती सीढ़ियाँ कबाड़ से अँटा दी हैं। नियति के सुविधाजनक बहाने को ओढ़ हम विलग हो चुके हैं आगत और अतीत दोनों से। 'नॉस्टैल्जिया' शर्मिंदगी है, स्वप्नजीविता एक बेवकूफ़ी। वर्तमान के ज़ंग लगे भौंथरे निकष पर शब्द धार नहीं पाते। वर्तमान की गाढ़ी सांद्रता में अनुपस्थितियों का विलुप्तता में बदलना दुखद है। बहुत कुछ विरल होते हुए पहले अनुपस्थित हुआ, अनुपस्थिति के अहसास को हमने आगत और अतीत से काट दिया फिर बहुत कुछ विलुप्त हो चला। विलुप्तता की बहुत सी मिसिंग कड़ियों के टूटे सिरे पकड़े, इस धरा पर एकाकी छूटते, अपने जीनोटायप में जीवित जीवाश्म लिए है हम। हम कितनी-कितनी अनुपस्थितियों की विलुप्त उपस्थितियों का अभिशाप ढोएंगे?

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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