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  शुतुरमुर्ग - 2

उसकी परेशानियाँ हकीकत थीं, पर मेरी अपनी दिक्कतें थीं पत्नी चूहे मारने की दवा और डीडीटी पाउडर खा कर दो बार मरने की कोशिश कर चुकी थीमेरे बच्चे बिगड रहे थे उनको न मैं देख पा रहा था, न उनकी माँ। घर अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हो गया थाएक अजीब से नशे की हालत में मैं रहता थाघर में होता तो उसकी और उसके बच्चों की चिन्ता रहती थीमेरे बच्चे यदि किसी चीज क़ी माँग करें तो मुझे उसके बच्चे याद आ जाते थे कि उन्हें ठीक से रोटी भी नहीं मिल पा रही है, और मैं अपने बच्चों को डाँट देता थाजब उसके पास होता तो घर की याद सताती थी सोचता था कि यहाँ पराये बच्चों के साथ हूँ, जबकि मेरे बच्चे लावारिसों की तरह घूम रहे होंगेपत्नी का ध्यान आ जाता कि उसका तो कोई भी कसूर नहीं है, पर वही सबसे अधिक अपमान और जिल्लत सह रही हैवह सीधी-सादी बेवकूफ घरेलू औरत सब कुछ बर्दाश्त कर रही है और मुझसे लडने के बजाय घर संभाले बैठी हैआज तक नौ वर्षों के बीच उसने एक बार भी मेरे इस मामले का जिक्र मेरे माँ-बाप, भाई-बहन या अपने ही किसी रिश्तेदार से नहीं किया थाउसके पक्ष में मेरे मन में यह सबसे बडा तर्क था कि उसने मुझे अपनी दुनिया या अपने समाज के सामने कभी जलील नहीं होने दिया थाकिन्तु इसके बावजूद पत्नी को सुरक्षा थी, सामाजिक स्थिति थी, नाते-रिश्तेदार थे, अडोसी-पडोसी और एक भरा-पूरा संसार थायद्यपि इस संसार से वह भय खाती थीकिसी से मिलने-जुलने से वह कतराती थीउसे शंका रहती थी कि कोई उसे मेरे इस सिलसिले के बारे में कुछ कह न बैठे और उसे जलालत के कीचड में धंसना पडेमेरे अवचेतन में यह सब चल रहा था और मैं सन्तुलन खोता जा रहा थामैं उसके प्रलाप से ऊब उठा था।

कहा,  ''बकवास बन्द करो और चलो।''

घर पहूँचे तो नौ बज चुके थे। दो चारपाईयाँ थीं। एक पर मच्छरदानी लगी थी। बच्चे उसी में सो रहे थे बिना खाये-पिये। खाना तो बना ही नहीं था। हम लोग भी उसी में घुस गए। मैं, चूंकि दिनभर का थका था, जल्दी ही सो गया। रात में आँख खुली तो लगभग दो बज रहे होंगे। वह पास ही निश्चल लेटी थी। उसकी आँखे खुली थीं। वह एकटक ऊपर ताक रही थी। मैं ने उसके कंधे पर हाथ रखा, उसने हाथ हटा दिया। दो चार बार इस प्रकार मेरे प्रयास का विरोध करने के बाद वह उठ कर बाथरूम चली गई। लौटने पर दूसरी चारपाई पर लेट गई। उस पर केवल एक कम्बल बिछा था। मच्छरदानी भी न थी। कुछ देर मैं ने इंतजार किया कि शायद वह कुछ कहे। फिर पूछा,  ''मैं भी तुम्हारे पास आ जाँऊ? ''

'' आ जाओ।''

मैं उसके पास चला गया। उसकी आँखे एकदम शून्य में ताक रही थीं। मैं ने फिर उस पर हाथ रखा। उसने हटा दिया। एक जुनून मुझ पर सवार होता जा रहा था। जितना भी वह मेरा हाथ हटाती उतना ही मैं अधिक कोशिश करता।

'' मेरा हाथ दर्द करने लगा है, हटाते-हटाते।''
''तो क्यों हटाती हो?''
पर उसने फिर मेरा हाथ झटक दिया। कहने लगी, ''तंग करोगे तो मर जाँऊगी।''

पर मैं ने फिर उस पर हाथ रखा।

'' मुझे तंग मत करो।'' वह चीखी। उसकी आवाज धीमी पर कटार की तरह तीखी थी।
 मुझे रोका क्यों था? कमीनी, कुतिया। यद्यपि मुझे अहसास था कि मैं बिलकुल जानवर हो गया हूँ। मुझे हैरत हो रही थी कि चरित्र की यह कौन सी कोर मेरे अन्दर छिपी थी जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ था। पर मैं अपने को रोकने में असमर्थ था।

वह अचानक दरवाजा खोल कर बाहर भागी। रसोई में पहुँच कर मिट्टी के तेल का डिब्बा उठाया और माचिस खोजने लगी। तब मुझे स्थिति की गंभीरता का बोध हुआ। मैं तुरन्त भाग कर उसके पास पहुंचा ड़िब्बा छीन कर एक तरफ रखा और माचिस अपनी जेब में रख ली। उसे उठा कर अन्दर लाया और चारपाई पर लिटा दिया।

कुछ देर मैं स्तब्ध पडा रहा। थोडी देर बाद फिर मैं ने उसे हाथ लगाया। वह उठकर भागने लगी। मैं ने उसे जकड लिया।

मुझे समझा कर वह कहने लगी, ''मुझे मरने क्यों नहीं देते? ''

उसने तीन-चार बार भाग कर रसोई में जाने की कोशिश की। हर बार या तो मैं ने उसे पकड क़र रोक लिया या रसोई तक पहुँचते-पहुँचते उठा लाया। मेरा जुनून बढता ही जा रहा था। स्थिति की नज़ाकत को पूरी तरह से समझने के बावजूद मैं रुक नहीं पा रहा था। कोशिश करके दो-चार मिनट रुकता, पर अन्दर का शैतान फिर मुझे परास्त कर देता। एक बार उसके विरोध करने पर उसे उठा कर मैं ने चारपाई पर फेंक दिया। उसका हाथ मरोडा और गर्दन दबाई। गुस्से से पागल होकर उसे मारा, गालियाँ दीं। वह रोने लगी अपनी आदत के एकदम विपरीत-निस्सहाय और निरुपाय सी।

इस तरह सुबह के चार बजने को आए। बाहर सडक़ पर और अडोस-पडोस से कभी-कभी किसी के खांसने-खंखारने की आवाज आ जाती। मैं रुक-रुक प्रयत्न करता जा रहा था। अन्त में वह तैयार हो गई और जब वह बाथरूम जाने को उठी तो मैं चारपाई पर संतुष्ट होकर लेट गया। मैं ने पूछा, ''अब तो कोई बात नहीं है? ठीक हो न? ''
''ठीक हूँ। अब कोई बात नहीं।''
मैं ने सोचा, अब वह संतुष्ट और सामान्य हो गई होगी।

मैं आलस में पडा रहा। पर आँख और कान बराबर उसी पर लगे थे क्योंकि यद्यपि यह विश्वास था कि वह अब कुछ नहीं करेगी तथापि आशंका तो थी ही। हाथ-मुँह धोकर वह कमरे की ओर बढी। मैं निश्चिंत-सा हो गया और लेटा रहा। उसने एक कदम कमरे के अन्दर रखा और फिर कदम बाहर हटा कर अचानक दरवाजा फटाक से बन्द कर लिया तथा बाहर से बेलन लगा दिया। मैं एकदम भौंचक्का रह गया। इकपलिया दरवाजा था। अन्दर से उसमें हैन्डल भी नहीं था। किसी भी तरह मैं दरवाजा खोल न पाया। खिडक़ी से मैं ने देखा - दरवाजा बन्द करने के बाद वह झूमती हुई रसोई में पहुँची। तेल का डिब्बा उठाया। माचिस का पैकेट जो जाली की अलमारी में था, निकाला। मैं उसको अपनी कसमें देता रहा। उसे हरचन्द रोकने की कोशिश करता रहा। किन्तु वह तो जैसे किसी बहुत महत्वपूर्ण, गरिमामय और आनन्ददायक कार्य में व्यस्त लग रही थी। वह पूरी तरह मस्त, बेफिक्र, आराम से अपना कार्य करती रही। जब मैं ने देखा स्थिति काबू के बाहर हो गई है तो मैं ने दोनों बच्चों को उठा कर खिडक़ी पर खडा कर दिया। बच्चे भी चिल्लाने लगे, '' मम्मी दरवाजा खोलो। वे रोने लगे।

उसने एक बार बच्चों को देखा, फिर उनकी तरफ से मुँह फेर कर उंकडू बैठ गई। उसने पेटीकोट नीचे से फैला कर एक हाथ में पकडा, दूसरे हाथ से उसपर तेल डाला और माचिस जला कर आग लगा दी। मैं और बच्चे चीखते रहे पर उस पर कोई असर न हुआ। मैं तब तक भी यही समझ रहा था कि मुझे तंग करने के लिये ही वह यह सब कर रही है और यह कि वह सब दिखावा है। मुझे विश्वास था कि वह जल्द ही अपने हाथों से पेटीकोट को दबा कर आग बुझा देगी। मैं ने सोचा कि उससे कहूँ कि उसके ऐसा करने से मैं फंस जाँऊगा। पर यह मैं कह न सका क्योंकि ऐसा कहना मुझे अत्यंत अपमानजनक और अपनी मौत से भी अधिक तकलीफदेह लगा। पेटीकोट में आग लगते ही जो लपट उठी उसने उसके बालों को पकड लिया जो उसके चेहरे से होते हुए घुटनों तक लटक आए थे, और उसका सिर भभूके की तरह जलने लगा। उसके बाद मुझे होश नहीं रहा। मैं बेतहाशा जोर-जोर से दरवाजा पीटने और चीखने लगा। पागलों की तरह कभी खिडक़ी पर आकर चीखता था, कभी दरवाजा पीटता था। इस बीच वह आंगन में आकर ढह गई थी।

देखते-देखते सैकडों लोग बाहर जमा हो गए थे। कोई एक चारदीवारी से कूद कर अन्दर आया और कमरे का दरवाजा खोला। मैं ने तुरन्त कम्बल उठा कर उस पर डाला। तब तक तो वह मर चुकी थी। कहीं-कहीं से धुंआ उठ रहा था। जीभ दाँतों में दबी थी और मुँह से खून बह रहा था। चेहरा अजीब तरह से सिकुड ग़या था। बाल और भौहें जल गई थीं। अब वह वीभत्स और भयानक लग रही थी। कमरे के अन्दर आकर मैं ने चाभी ली और चारदीवारी का दरवाजा खोल दिया। लोगों की भीड अन्दर घुस आई जैसे टूटे नल से पानी का रेला बाहर निकलने को दौडता है। लोगों ने उसे देखा। चेमगोइयाँ आरम्भ हुईं। मैं लाचार किंकर्तव्यविमूढ ख़डा था। किसी ने मुझे लक्ष्य करके कहा,  कम से कम डॉक्टर को तो ले आओ। मैं भी यही चाहता था कि किसी तरह डॉक्टर आ जाता। क्या पता अभी प्राण हों। पर स्वयं कैसे कहता? लोग समझ सकते थे कि इस बहाने मैं भागना चाहता हूँ। जैसे ही मैं चलने को हुआ किसी दूसरे ने कहा, इस तरह आप नहीं जा सकते। मैं रुक गया। तभी कोई और बोला,  डॉक्टर को फोन कर दिया है। कुछ देर बाद डॉक्टर आया। देखकर उसने अन्त हो जाने की पुष्टि की।

अस्तित्व के संकट में कैसे चेतना हजारों मस्तिष्क से कार्य करती र्है उस समय मैं ने जाना। अवचेतन में तुरन्त दो बातों का निर्णय कर लिया। एक कि यहाँ से भागना नहीं है। भागना, अपने आपको मुजरिम साबित करना होगा। दूसरा - कि इस भयंकर स्थिति में हो सकता है कि मेरा विवेक सही काम न करे। अत: कुछ ऐसे विश्वसनीय लोग होने चाहिये जो मुझे निर्णय करने में मदद करें या जिन पर निर्णय करने का भार सौंपा जा सके।

बगल के मकान में मेरे विभाग का एक कर्मचारी रहता था। बडे लडक़े से मैं ने उसे बुलवाया और एक स्थानीय प्रभावशाली दोस्त को सूचित करने को कहा। जब वह पडोसी दोस्त को सूचित करके लौटा तब मैं ने दो-तीन विभागीय दोस्तों के नाम भी उसे बताए और विनती की कि उन्हें भी आने को कह दे। अन्दर से कहीं था कि कुछ लोग मेरे अपने होंगे तो मुझे हौसला रहेगा, विपरीत और विरोधी भावना वाली भीड क़ा मुकाबला किया जा सकेगा, उसे काबू में रखा जा सकेगा। अचानक मुझे ख्याल आया कि कल दिन में सौ रुपये का एक नोट मैं ने उसे दिया था। मैं कमरे में आया। बिस्तर पर तकिये के नीचे वह नोट था। मैं ने उसे उठाकर जेब में रखा। इन विपरीत परिस्थितियों में पैसे का बडा महत्व है, मैं ने सोचा। फिर मैं ने अन्दाज लगाया कि मेरे विरुध्द यहाँ क्या-क्या सबूत हो सकते हैं। मेरे हाथ के लिखे सैकडों पत्र वहाँ थे। जितना संभव हो सका बक्स आदि से पत्र निकाल कर मैं पेन्ट की जेब में रखता और टॉयलेट में जाकर सीट के नीचे घुसेड देता। यद्यपि मैं जानता था कि इससे कोई फर्क नहीं पडेग़ा क्योंकि पत्र बहुत बडी संख्या में थे और किसी भी बक्से में, आल्मारी में या कहीं भी किसी जगह हो सकते थे। उसकी तनहा जिन्दगी में पत्रों का बडा महत्व था। उसकी कलाई घडी भी वहीं आल्मारी में थी। उसे भी मैं ने अपनी जेब में यह सोच कर रख लिया कि वह किसी पुलिसवाले के हाथ पड ज़ाएगी।

वह प्रभावशाली दोस्त आया। सभी उसे जानते थे। दोस्त ने मुझसे पूछा, पुलिस को खबर दी? किसी एक ने जवाब दिया, फोन कर दिया था, पर पुलिस अभी तक आई नहीं। मैं जाकर लाता हूँ। देर करने से क्या फायदा! दोस्त ने कहा। थोडी देर में लौटकर उसने बताया कि पुलिस कहती है कि,  जब तक थाने में आकर कोई एफआईआर दर्ज न कराए, वे नहीं आएंगे। उसने मुझसे कहा,  चलो मेरे साथ। एफआईआर लिखाओ। चलो स्कूटर पर बैठो। जैसे ही मैं स्कूटर पर बैठने को चला, एक सज्जन बोले,  मैं भी चलूंगा। दोस्त बोला,  निकालो अपनी मोटरसाईकिल। मोटरसाईकिल खराब है। वह बोले। और झटपट मेरे पीछे स्कूटर पर बैठ गए। दरअसल उन्हें डर था कि कहीं मैं भाग न जाऊं।

कोतवाली पहुँच कर दोस्त ने कोतवाल से कहा, यह आ गए हैं एफआईआर लिखाने। मैं ने कोतवाल को संक्षेप में बताया, कि हम सो रहे थे। रात में कुछ खट-पट से आँख खुली। देखा, बाहर से दरवाजा बन्द था और वह जल रही थी। बस मैं और बच्चे चीखने लगे। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता। हाँ वह कुछ तनाव में थी। पिछले दो महीनों से उसे वेतन नहीं मिल था। कुछ दिन पहले ही उसके पिता का देहान्त हुआ है और वह बीमार भी रहती थी। कोतवाल ने कहा,  आप दीवान से कागज लेकर एफआईआर लिख दीजिये। इस बीच मेरे पडोसी सज्जन ने कोतवाल को बहुत समझाया कि मुझे बन्द कर दिया जाए, कि मैं ने ही उसे मार कर जला दिया होगा। कि मैं बहुत ही दुश्चरित्र हूँ, सारे मोहल्ले और समाज को गन्दा कर रहा हूँ। दरअसल उनके दिल में यह दंश होगा कि एक अकेली सुन्दर और जवान औरत मुझसे ही क्यों जुडी है, उनके हत्थे क्यों नहीं चढती। और या यह भी कि उनकी धमनी में कुछ विचित्र शुध्द संस्कार बिलबिलाते हैं कि वह किसी भी प्रकार यह बरदाश्त नहीं कर पा रहे हों कि एक शादीशुदा औरत खुले आम बिना झिझक और बिना शर्म महसूस किये किसी दूसरे मर्द के साथ रह कर धर्म और पारम्परिक मान्यताओं का मखौल उडाए। कोतवाल ने सख्ती से कहा,  लिख कर दे दो। एफआईआर लिखावा दो कि इन्होंने उसे मारा है, या इन पर शक है। हम इन्हें बन्द कर देंगे। दूसरे पर आरोप लगातो हो तो खुद भी थोडा खतरा उठाओ। ऐसे ही बन्द नहीं करेंगे। अगर बाद में चीजें इनके विरुध्द गईं तो ये कहाँ जा सकते हैं? मैं ने एफआईआर लिख दी। दो इन्सपेक्टर और पुलिस के जवानों के साथ हम वापस लौटे। उन्होंने यहाँ-वहाँ पूछताछ की। दोनों बच्चों से भी अलग-अलग पूछा। मेरे और बच्चों के बयानों में उनको बस एक ही अर्न्तविरोध मिला कि मैं ने उनको बताया कि मैं अलग सो रहा था जबकि बच्चों ने कहा कि मैं उनकी मम्मी के साथ एक चारपाई पर था। पर वे बच्चों के बयान तथा बाकि सारी स्थितियों के आधार पर इस बात से संतुष्ट लगे कि उसके जलते समय मैं कमरे में बंद था तथा दरवाजा खोलने की हरसंभव कोशिश कर रहा था।

सारे बयान हुए। पंचनामा हुआ। उन्होंने उसके शरीर को देखा, कहीं कोई चोट या कोई जख्म तो नहीं है। ऐसा कुछ नहीं था। फिर उन्होंने उसकी टाँगों तथा जांघों में भी देखना चाहा, जो थोडा बहुत कपडा बचा था उसे हटा कर। मैं शर्म से जैसे धरती में गड ग़या। नौ वर्षों तक जिसे बचाने के लिये मैं अपनी जिन्दगी हल्कान किये हुए था, वह सब कुछ कितना बेमानी साबित हुआ। मैं ने अपने आपको बहुत ही अशक्त , बेबस और पराजित महसूस किया। इंसपेक्टर ने मेरी दुविधा को समझा। कहा,  मर चुकी है। हमें खानापूरी करना है। उसने एक उडती सी नजर डाली। फिर लाश को कम्बल और चादर में लपेट कर सील करवा दिया।

अचानक मुझे ख्याल आया कि दोपहर हो गई है और उसे मरे कम-से-कम आठ घंटे हो चुके हैं। इन आठ घण्टों के बीच अपनी सुरक्षा के अतिरिक्त मैं ने कुछ भी और नहीं सोचा था। नौ साल तक जो स्त्री मेरे रोम-रोम में बसी थी, जिसे एक पल को भी कभी मैं नहीं भूल सका था और जो तूफान की तरह मेरे जीवन पर हावी थी तथा मेरा हर विचार, कार्य और हर क्षण निर्देश करती थी, मरी पडी थी। वह जिस्म जिसका केवल ख्याल ही मुझे आपाद-मस्तक रोमांचित कर देता था और नौ वर्षों के दौरान एक पल को भी जिससे मैं ने ऊब महसूस नहीं की और वह चेहरा जो प्यार के समय किसी लौकिक नारी का चेहरा न रह कर खजुराहो की नायिकाओं के चेहरे के समान मुझे उत्साहित करता था, निर्जीव, वीभत्स और क्षत-विक्षत रूप में मेरे सामने पडा था। मुझे उसकी चिन्ता क्यों नहीं थी? मैं जो उसके बगैर बिलकुल भी नहीं रह पाता था और चाहे मैं उससे लड क़र भागता था पर दो-तीन दिन के बाद फिर लौट आता था, क्यों उससे बेखबर केवल अपनी सुरक्षा की चिन्ता में लिप्त था?

सारी औपचारिकताओं के बाद प्रश्न उठा कि बच्चों का क्या हो? मेरे संरक्षण में बच्चों को दिया नहीं जा सकता था। कानूनन मैं उनका कोई नहीं था, पडोसी तक नहीं। एक पडोसी दयालु थे। बच्चों को रखने को तैयार हो गए। अगला कोई प्रबंध होने तक घर और बच्चे उन्हें सौंप दिये गए। बच्चों के पिता और नानी आदि को तार कर दिये गए। मैं कहीं भी जाने को मुक्त था। मैं जब अपनी अटैची उठा कर चला तो दोनों बच्चे मेरी टाँगों से लिपट गए। तब पहली बार उनकी आँखों में आँसू आए। कहने लगे,  हमें भी अपने साथ ले चलो अंकल। हम भी आपके साथ चलेंगे। वे कह अवश्य रहे थे, क्योंकि उनकी नजरों में यह बिलकुल स्वाभाविक था। फिर भी वे मेरी मजबूरी जानते थे। बच्चे सबकुछ समझते थे। बाद में मुझे पता चला कि जब तक मैं वहाँ से चला नहीं आया बच्चे व्यग्र थे कि मैं कहीं फंस न जाऊं। इंसपेक्टर जब मुझसे पूछताछ कर रहा था तो बच्चों ने कई बार लोगों से इस बात का जिक़्र किया था।

'' मैं कल आकर तुम्हें ले जाँऊगा। तुम बेफिक्र रहो। मैं ने बच्चों को फुसलाया। मैं चल दिया अटैची उठाए। दोनों बच्चे मेरे पैरों पर गिर गए, मैं ने उन्हें सीने से लगा लिया।

वहाँ से दोस्तों के साथ मैं बसस्टैण्ड आया। मैं ने चिन्ता व्यक्त की,  पोस्टमार्टम में पता नहीं क्या होगा, कि लाश का अंतिम संस्कार कैसे होगा। दोस्तों ने कहा,  तुरन्त शहर से निकालो। वह सब हो जाएगा। मुझे बस में बिठा दिया। सच पूछो तो मुझे भी किसी तरह भाग निकलने की ही चिन्ता अधिक थी।

बस जब पन्द्रह-बीस कि मी निकल आयी और अवचेतन में यह हुआ कि मैं अब खतरे से बाहर हूँ केवल तभी मुझे चीजों की गंभीरता का अहसास हुआ। केवल तभी मैं सोच सका कि क्या हो गया है और मुझे कितना असहाय, अकेला और अपमानित करके छोड दिया गया है। अचानक मुझे लगा कि मेरा जीवन जैसे निरुद्देश्य और सपाट हो गया है; कि करने को कोई भी काम मेरे पास नहीं बचा है; कहीं कुछ नहीं है और एक अनन्त विराट शून्य में मैं भटक रहा हूँ। एक धुन, एक भावना, एक जादू जो नौ वर्षों तक सदा मुझ पर छाया रहा था और अच्छे-बुरे सारे कार्य जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप मैं किया करता था, समाप्त हो गया है। लगा कि इतनी हानि हुई है कि उसे कूतने की ताकत मुझमें नहीं है। एक अजेय, अनन्त, जलता हुआ रेगिस्तान है जिसे पार करना है और मैं नितान्त अकेला और थका हुआ हूँ। अचानक मुझे लगा कि मैं स्पन्दनहीन हो गया हूँ, कुन्द, काठ का टुकडा। फिर अचानक फूट-फूट कर रोने को तबियत हुई। पर यह असंभव था क्योंकि अपरिमित दुख के बावजूद कहीं अवचेतन जाग्रत था जिसने महसूस किया कि लोगों के सामने ऐसा करना हेय होगा और तब मैं आँखों पर रुमाल रखकर केवल सिसकता रहा।

बाहर अंधेरा घिरने लगा था। खेत, जानवर, लोग और मकान एक-दूसरे में गडमड होने लगे। लोग-बाग घर लौट रहे थे। उन्हें लौटने की जल्दी थी। वे थके थे, पर उत्साहित थे। उन्होंने दिनभर कुछ न कुछ किया था। उनके काम निरपेक्ष नहीं थे। एक के काम और उसके नतीजे, दूसरों के भी हितों से गुम्फित थे। मैं भी घर जा रहा था। पर क्या मैं लौट रहा था? नहीं। मैं तो स्थितियों से भाग रहा था - शिकारियों से डरे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसाने को व्याकुल

हरीशचन्द्र अग्रवाल
 

स्त्री विशेषांक

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