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कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर - 3 मेंरे सामने एक थियेटर था, जिसपर कोई हिन्दी फिल्म लगी हुई थी। मैं ने नाम पढा - साजन बिना सुहागन कितनी औरतों की भीड। मैं ने जमीन से एक पत्थर उठाया और बोर्ड को निशाना बना कर जोर से फेंका। बोर्ड को कुछ नहीं हुआ पत्थर दूर जा गिरा। वहां खडे एक चौकीदार ने मुझे देखा और मेरी ओर दौडा, वहां से मैं भाग ली। वहां से भागते हुए देखा, हमारे पडौसी मि दत्त एक खूबसूरत औरत के साथ फिल्म देखने अन्दर जा रहे हैं, मैं ठिठक कर खडी हो गयी। मुझे देखते ही वह चौंके और नजर बचा कर अन्दर जाने लगे। मैं उनके रास्ते में आ गई। ''
कैसे हो मि दत्त।
''
मैं हंसी। उन्होंने माथे पर आया पसीना पौंछा और साथ वाली औरत की बांह कस कर पकड ली। '' मोटी बीबी से जी नहीं भरता ना? '' उन्होंने मुझे गुस्से से धकेल कर परे किया और आगे बढ ग़ये। वह औरत घबराई। व्याकुल आँखों से मुझे देख रही थी। उसके चेहरे पर शर्म उतर आई। मैं ने अजीब से तरस भर कर उसे देखा। यह सब अपनी अपनी कब्रों में सोयी हुई औरतें हैं - सदियों से अपने से बेखबर, अनगढ पत्थर, किसी ने पूजना चाहा, पूज लिया, किसी ने हरना चाहा, हर लिया, किसी ने बेचना चाहा, बेचा किया, किसी ने पटाना चाहा, पटा लिया। जो भी मेकर होना चाहता है हो सकता है। मल्टी परपज ज़िस्म लिये वह हर हाल में खुश है। तकलीफ सिर्फ तब होती है जब वह अपनी कब्र से जाग जाती है। मेरे सामने स्कूल है, कुछ बच्चे पी टी कर रहे हैं। कुछ दूर पर एक टीचर बच्चों के एक ग्रुप को गाना सिखा रही है- ' सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा हमारा।'' कौन सा हिन्दोस्तां वह जो आज है या वह जो कल होगा, हो सकता है, अगर हो? मैं स्कूल के बाहर कुछ ही दूरी पर खडी उन्हें देख रही हूँ। स्कूल की घंटी बजी और सारे बच्चे पिंजडे से छूटे निरीह मेमनों की भांति बाहर की ओर भागे। ये स्कूल निरीहता और क्रूरता का अद्भुत संगम। मैं ने आगे जाने के लिये कदम बढाया ही था कि एक युवक मेरे सामने आकर खडा हो गया। मैं ने उसकी ओर देखा - भूरे बालों व भूरी आँखों का अजब सा मिश्रण, उसके बाल इसके माथे पर गिर रहे थे। और उसकी पलकों की छांह उसके चेहरे पर। उस चेहरे पर ठहरी मुस्कान धूप में चमक रही थी। वह मुझे देखता रहा - अपनी उसी ठहरी नजर से - ''
क्या चाहिये?
'' मैं ने कठिन स्वर
में पूछा। मैं हंस दी और उस वक्त मुझे लगा मेरी हंसी एक परिंदे की तरह उसके सर के ऊपर भटक रही है - घायल परिंदे की तरह, एक बेमतलब किस्म की उडान की किस्मत लेकर। मैं ने उसकी छाती पर हाथ रख कर उसे परे करना चाहा और वह परे हो गया। लगा, अगर इस वक्त यह मेरे कंपकंपाते हाथों को थाम ले, जिसका उससे दूर का भी वास्ता न था तो मैं इन्हें मुर्दा होने से बचा सकती हूँ। मैं ने उसकी तरफ से आँखे फेर लीं और आगे बढ ग़यी। आस पास का परिदृश्य अचानक तब्दील हो गया मालूम देने लगा। लोगों की चुभती निगाहें मुझे अपनी पीठ पर मालूम होने लगीं। इसके पहले कि लोग मुझे घेरना शुरु कर दें मुझे भाग जाना चाहिये। पब्लिक पार्क की बेन्च - यहां इस वक्त इक्का दुक्का लोग हैं। दूर कबड्डी खेल रहे बच्चे। सितम्बर की धूप। मेरी बेन्च के ऊपर किसी पेड क़ा साया नहीं था और नंगी धूप थकी देह पर चुभ रही थी। धूप जो मेरे न होने पर भी होगी। तो क्या मैं ऐसी चीज क़ी तलाश में हूँ जो मेरे न होने पर भी हो? हाँ, पर वह धूप नहीं है। मैं थक कर बैन्च पर लेट गई। अपनी जिन्दगी में मैं ने अपने लिये कुछ नहीं चुना - न साथी, न शादी, न बच्चा, न रिश्ते। यहां तक कि अपने लिये अपना अकेलापन तक नहीं। हमारे लिये चुनने का मतलब ही होता है - छिन जाना। यह सोच कर कितना अजीब लगता है कि हमारी बन्द मुठ्ठी, जिसमें हम समझते हैं कि सारा संसार बंधा है, हमेशा खाली रहती है! पर इस खालीपन को हम किसी से नहीं कह सकते, अपने आप से भी नहीं। बच्चे छू छू का खेल खेल रहे थे। एक छ: सात साल की बच्ची भागते हुए आई और मेरे पैरों से उलझ गयी। मैं ने उसे उठा कर प्यार कर लिया। वह सकुचाते हुए उठ खडी हुई और जाने लगी। थोडा आगे जाने के बाद वह फिर पीछे मुडी और मेरे निकट आ गयी। ''
आप कहाँ से आये हो?
'' वह कुछ पल मुझे देखती रही और मैं उसे। जब मैं ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया तो वह भाग गई। तभी जाने कहां से चौकीदार डंडा खडक़ाता हुआ आ पहुंचा। ''
ए,
यहां क्या कर रही है?
जानती नहीं यह
पब्लिक प्लेस है।'' मैं ने कुरते की जेब में हाथ डाला और एक सौ रूपये का नोट दिखाया। '' बहुत माल पीटा है।'' वह सौ का नोट देख कर मुस्कुराया। उसे लिया और खीसे में डाल चलता बना। मुझे बहुत तेज भूख लग रही थी। बाहर आकर देखा चने व मूंगफली के ठेले खडे थे। चाट व गुब्बारे वाले भी। मैं ने बहुत सारे चने, मूंगफली व गुब्बारे लिये। जैसे ही मैं ने रूपये निकालने के लिये जेब में हाथ डाला - एक कार मेरे करीब से गुजरी और फिर बैक होती हुई मेरे नजदीक आकर रुक गयी। ''
अरे,
मिसेज नागपाल! आप
यहां! ''
कोई अंदर से आश्चर्य से
चिल्लाया। मैं ने पहचानने की कोशिश नहीं की। बस हंस दी। अचानक मेरा ध्यान अपने से बाहर गया । मैं ने देखा, आस पास लोग मुझे बडी हैरत से देख रहे थे। कुछ दूरी पर खडे हुए कुछ आवारा किस्म के लडक़े भी मुझे देखते हुए बातें कर रहे थे। मैं ने चने, मूंगफली व गुब्बारे वाले को रूपये दिये और अंदर पार्क में आ गयी। वहाँ खेल रहे बच्चों को बुलाया और हम सब घास पर बैठ कर मूंगफलियाँ खाने लगे। बंदिशों से परे होना और रहना सचमुच कितना अद्भुत है। पर कब तक? मूंगफलियाँ खत्म हो गयीं और मैं पार्क के बाहर आ गयी। शाम हो रही थी। सडक़ों पर आवाजाही बढ रही थी। पता नहीं कब एक काला सा मोटा सा आदमी मेरी बगल में आकर बैठ गया, उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया। ''
पचास रूपये में चलेगी?
'' मैं अचानक उठी और उसके साथ गुंथ गयी। वह भी घबरा गया और मुझसे गुत्थम गुत्था हो गया। हम एक दूसरे से खुद को छुडाते और लडते एक जुलूस के बीचों बीच आ गये। अगले ही मिनट सडक़ पर भीड और ट्रेफिक जाम। '' साली रास्ते पर धंधा करती है, पटाती है फिर टंटा करती है।'' वह चिल्ला रहा था और हम दोनों लड रहे थे। मेरे बाल बिखर गये थे। चप्पल टूट गयी थी और कपडे फ़ट गये थे। एक भीड क़ा रेला आया और हम पर से गुजर गया। लोग एक दूसरे पर गिरने लगे और झपटने लगे यह जाने बगैर कि उनके अन्दर का जानवर भी दूसरे से कम खूंखार नहीं। मुझे नहीं मालूम फिर क्या हुआ? जब होश आया तो मैं पुलिस स्टेशन में थी। कुछ देर हवालात में रखने के बाद उन्होंने मुझे बुलाया। मैं बाहर जाकर कुर्सी पर बैठ गयी। मेरे सामने एक नर्म चेहरे वाला आदमी बैठा था, ''
तुम कौन हो और इस झंझट में
कैसे पडी?'' मैं थक कर कुर्सी की पीठ से टिक गयी और आंखें बंद कर लीं। मेरे जिस्म पर बहुत चोटें लगी थीं। मेरा अन्दर बाहर दोनों दुख रहे थे। कोई घंटे भर बाद वह आया और आकर मेरे सामने खडा हो गया। उसके चेहरे पर घृणा और गुस्से की जमी सर्द चुप्पी थी, उसमें कितनी उपेक्षाओं की पीडा और कितने नरकों का पानी जमा था। मुझे उस वक्त शिद्दत से अहसास हुआ कि - हम एक दूसरे के लिये कभी कुछ नहीं हो सकते। मैं ने उसे देख कर आँखे बन्द कर लीं और अपने जिस्म को ढीला छोड दिया। मेरे अन्दर उतनी ही घनी तकलीफ थी, जितना घना अंधेरा। अब तुम मुझे घसीट कर अपने पिंजडे में ले जा सकते हो। |
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