मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

सपने का सच

जिन लडक़ियों ने क्वैश्चनायर भर दिया था वे कुतुहलवश मेरे पास भी आ गईं उनमें वह एथलीट भी थी

'' आप मीरा गर्ल्स कॉलेज के हो न! ''
''
हां।''
''
आप को बास्केटबॉल खेलते देखा था।''
''
मैं ने भी तुम्हें देखा है। यहीं रेजिडेन्सी में पढती हो?''
''
हां!''
''
भर दिया पर्चा?''
''
हां, पर मां सोच्या मेरा मतलब कि मैं ने समझा पर्चे में पूछेंगे कि हम यहां कैसे रहते हैं। क्या खाते हैं। हमें मिलने वाली छातरवत्ती( छात्रवृत्ति) का क्या होता है। पण उसमें तो कुछ होर है। रीति - रिवाज'' वे लडक़ियां आपस में आधी हिन्दी आधी बागडी( राजस्थान के बागड क्षेत्र डूंगरपुर की भाषा) से मिलती - जुलती आदिवासी भाषा में बात कर रही थी।

 

'' हां, वो दीदी ये ही विषय पढती है। तुम भी तो पढते होगे न सामाजिक ज्ञान में।''
''
पेले भी कितने संस्था वाले आये ये मेट्रन और वो इंचार्ज उन्हें झूठ - झूठ बता के भगा देते हैं।''
''
तुम्हारा नाम क्या है? ''
''
बेनु
''
बेनु , कुछ समस्या है क्या।''
''
समस्या! शश् मेट्रान आ री है आप पढाई की बात करो।''
''
किस कक्षा में पढती हो?

पद्मा दीदी का काम पूरा हो चुका था, छोटी लडक़ियों को उन्होंने टॉफियां पकडाईं और हम वापस आ गये लेकिन बेनु के साथ सिलसिला बना रहा तब तक कि जब तकवह अचानक गायब नहीं हो गई एक दिन अचानक अखबार की सुर्खियों में आकर उसने मुझे चौंका दियाबाद तक मेरी मित्र मुझसे पूछती रही थीं - यह वही लडक़ी है ना जो तुझसे मिलने आती थी हॉस्टल! ' बेनु !  बनमाला!

हां हम मिलते थे, खेल के मैदानों में कैण्टीन में। पेडों भरे रास्तों में कई बार वह पैसे मांगने मेरे पास आई थी, मेरे हॉस्टल

'' मनु दीदी, कल खेलने नहीं आये।''
''
नहीं बेनु, मेरा जूलॉजी प्रेक्टीकल था।''
''
मैं स्टेट लेवल पर सलेक्ट हो गई।''
''
वाह!''
''
जयपुर जायेंगे।''
''
कब?''
''
अगले मीणे, अक्टोम्बर में। पर वो कमीनी मैट्रन लिखत परमिसन नहीं दे रही। इंचार्ज भी भग गया है।''
''
क्यों?''
''
कहती है कुत्ती कि माता - पिता के दस्खत लाओ। छुट्टी मांगो तो जाने नईं देती। डूंगरपुर से भी आगे सालमगढ क़े पास हमारा गांव है। आणे - जाणे के तीन दिन। दीदी पैसे हों तो।''
''
बेनु पहले के ही सौ रूपए तूने नहीं लौटाए! ''
''
पिछले दो महीने की छातरवत्ती इंचारज ने अटका दी है। 500 की जगह 200 देता है साईन 500 पर करवाता है। या फिर के आगे नंगे हो जाओ'' एक भद्दी सी गाली दी बेनु ने, और वह अपना भरा हुआ गला सहज करने लगी। वह कमबख्त रोना कहां जानती थी।
''
क्या बकवास करती है बेनु!''
''
आपको बताया नी मैं पेले वो छोटकी चिरमी दस्स बरस की पूरी चङ्ढी लाल थी उसकी जब इंचारज के पास से आई।''
''
बेनु, मुझे यह सब बताने से अच्छा है पुलिस चौकी जाकर बता।'' मैं घबरा गई थी।
''
हं, पूलीस? वो हमारे यहां की दोनों कंजडिनें हैं न! वो खुसी से इंचारज के साथ पुलिस चौकी क्या, बडी ज़गह भी जाती हैं।''
''
मैट्रन?''
''
मैट्रन? उसको पैसा दे दो तो अपनी बेटी भी बेच के आ जाये।''

 

मेरा दिल बुरी तरह घबरा गया था, बेनु की बातों से! मैं ने उसे पैसे नहीं दिये थे उसके बाद मैं ने उससे कतराना शुरु कर दिया था पद्मा दीदी को यह सब बताया भी, तो उन्होंने और भी डरा दिया -

'' मनस्वी तू शान्त बैठ। उससे मत मिला कर। वो बेनु कम नहीं है। उसके कोच के साथ मैं ने उसे घूमते देखा है। और वह कोई बच्ची नहीं है।उसकी शादी भी हो गई है। पर सब छोड - छाड क़र पढने आ गई है
''
तो क्या गलत किया दीदी? ''
''
बस कह दिया न तू मत मिला कर उससे। अपने पैसे वापस ले लेना। ''
''
पर दीदी, छोटी आदिवासी लडक़ियां? आप तो इन पर रिसर्च कर रही हो''
''
ऐसी बातें छिपती हैं क्या? एक दिन खुलेंगी। फिर हम क्या कर सकते हैं? हम यहां पढने आये हैं। इससे सालों पहले से आदिवासी छात्रावास यहां है। यह सब तो'' उन्होंने मुझे समझा कर भगा दिया था। बेनु मुझसे फिर नहीं मिली। शायद वह अपनी स्टेट लेवल पर होने वाले टूर्नामेन्ट की तैयारियों में व्यस्त थी।

 

आदिवासी कन्या छात्रावास की ऐसी बातें मैं ने कई बार बेनु के मुंह से सुनीं थीं इन सब बातों के बाद मैं ने उससे मिलना तो बन्द कर दिया था, लेकिन बहुत विचलित रही मैं भीरू थी मैं? नहीं, उम्र की विवशता थी, मैं खुद बी एस  सी ही तो कर रही थी किस से जाकर क्या कहती? कौन सुनता तब मेरी? बेनु की ही किसी ने नहीं सुनी तब अब बात अलग है

 

इस कहानी के जन्म के दौरान मैं ने फिर सपना देखा -

मैं बेखबर अपने मनपसन्द कोने में बैठ कर अगले दिन होने वाली कैमिस्ट्री के पेपर की तैयारी कर रही हूं, सर्दियों के दिन थे सुबह की मीठी धूप अचानक कडवी हो गई है आदिवासी छात्रावास में शोर गूंजा चीख - चिल्लाहटें, छोटी लडक़ियों का रोना दस पन्द्रह मिनट में पुलिस आ गई है मुझे छत पर से कुछ नहीं दिखा, मैं कुछ समझ नहीं सकी पर उन छोटी लडकियों की घुटती हुई चीख इतनी दिल दहला देने वाली थी कि मैं घबरा कर नीचे आई हूं। कमरे में जाकर मैं कपडे बदल कर आदिवासी छात्रावास दौड ज़ाती अगर पद्मा दीदी ने वहीं हाथ पकड क़र घसीट कर मुझे अपने कमरे में बन्द न कर लिया होता

'' बेवकूफ है क्या?''
''
हुआ क्या है?''
''
सुनेगी? सुनना चाहती है न? सुन और फिर जा  आदिवासी हॉस्टल में दो लडक़ियों ने आत्महत्या की है।'' वे डांट रही थीं।

'''' मैं कुछ समझ ही नहीं पाई।
''
अब मैं ने तुझे देखा ना, बेनु के आस पास तो मुझे तेरे पेरेन्ट्स को फोन करना पडेग़ा कि आपकी बेटी किसी बडी मुसीबत में पडने वाली है। अभी तू चुपचाप यहां से जाकर अपनी कजिन सुनयना के पास मेडिकल हॉस्टल चली जा, वहीं पढ क़र एग्जाम देना।''

नींद फिर आई नहीं  मैं कैसे सोती! सपना था? पूरी रात उन्हीं रास्तों में भटकी हूं। उदयपुर का रेजिड़ेन्सी इलाका जहां की शै, हर दरख्त, हर बेल - बूटा, टूटी दीवारें, कच्चे - पक्के रास्ते बहुत जाने पहचाने थे उन लोगों के बीच पहुंच गई हूं जिनके साथ वह अहम् वक्त सात साल का गुजरा था, शुरु का चहकते - महकते बीच का डरते - सहमते बाद का एक ऊब और तटस्थता के साथ

पर यह बात तो सच थी, फाइनल इयर में मेरे ऑर्गेनिक कैमेस्ट्री के पेपर के दिन कुछ तो हुआ था पर क्या? एक ऑटो वाले का मर्डर! हमारे ही कैम्पस में! मेरा आर्गेनिक कैमेस्ट्री का पेपर बिगड ग़या था गनीमत थी कि वह आखिरी था उसके बाद लम्बा गैप फिर प्रेक्टीकल एग्ज़ाम्स थे पर जब पेपर देकर आई तो पूरा हॉस्टल न्यूजपेपर्स की टेबल पर जमा था सब सकते में थे क्या यह कैम्पस अब सुरक्षित रह गया था, गर्ल्स हॉस्टल्स के लिये? बी एस सी के बाद भी यहीं से एम एस सी करना विवशता थी और मैं ने की उसी डर और अविश्वास के साथ

आज जिस तटस्थता से कह रही हूं , इस तटस्थता की अवस्था तक पहुंचना क्या आसान था? इन्सोम्निया टर्म तब मैं जानती नहीं थी, न ही तब यह टर्म महिलाओं में आम थी आज की तरह तब नींद न आने, डरने की बात पर लडक़ियों को उनके माता - पिता मनोचिकित्सक के पास नहीं ले जाया करते थे लेकिन मुझ पर इससे भी कुछ गंभीर गुजरा था जिसके निशान अब तक अंतस पर गहरें हैं शायद यही वजह है कि - वह रैजिड़ेन्सी कैम्पस हू - ब - हू यूं मेरे सपनों में आ गया, इतने सालों बाद!

मैं उस बेनु से नहीं मिली फिर पता नहीं वह कहां चली गई? बहुत दिनों बाद जिससे मिली तो वह बेनु थोडे ही ना थी  वह तो बनमाला  थी

लेकिन कल रात अचानक वही बेनु सपने में आकर उस कैन्टीन की बैंच पर बैठ कर मुझसे क्या कह रही थी? ठीक से याद नहीं आ रहा था कोई कडी टूट कर हाथों से छूट - छूट जा रही थी इन्होंने मुझे अचानक जो जगा दिया था '' अरे! मनु तुम कैसी आवाजें निकाल रही हो?'' और वह कडी वहीं टूट गई मैं किस हॉस्टल की टूटी दीवार की बात कह रही थी?
ओह! याद आ गया

सपने में - वही कैन्टीन, टीन की छत वाला सामने घास का मैदान, बगल में एक गङ्ढा जिसके आस - पास गुलाबी एन्टीगोनम के फूल खिले थे मैं और बेनु लकडी क़ी संकरी बैंच पर बैठे हैं खुले आसमान के नीचे सर के ऊपर एक बादल का टुकडा तैर रहा था मैं उसी युनिफॉर्म मेंगुलाबी सफेद नहीं सफेद स्कर्ट था, हाथ में बास्केटबॉल थी उसने क्या पहना था? दिखा नहीं चेहरा भी स्प्ष्ट नहीं गोदना याद हैतोता - मैना वाला हाथ की संवलाई त्वचा पर नीला गाढा गोदना

मैं ने उससे चीख कर पूछा था- '' कहां जा कर मर गई थी कम्बख्त, कितनी चिन्ता हुई तेरी! जयपुर से कब लौटी?''
फूट - फूट कर रो दी
हूं मैं पूछते - पूछते

'' कहां? कहां गई जैपुर? जाने नईं दिया न कुत्ते इंचारज ने।''
''
''
''
कोच सर ने कहा भी उससे कि वो सिकायत करेंगे इंचारज की  जनजाती बिभाग में, बडे साब से एक प्रतिभासाली भील छात्रा को तुम खुद ही आगे नहीं आणे देते।''
'' ''
''
कोच सर ने एप्लीकेसन लिखवाई, मैं ने सब कुछ लिख दिया था उसमें। छोटी लडक़ियों के साथ छेडख़ानी, पुलिस चौकी वालों का कंजरियों के कमरे में आना मैट्रन भी कुत्ती कंजर जाती की थी न। भीलनियों की जात भले ही छोटी हो, आन बडी होती है, इज्जत भी। ''
''''
''
वो अपलीकेसण मेरे कन्ने थी। पेटी-बकस में। मैट्रन ने पीछे से निकाल ली, ताला तोड क़े पेटी का। उसी दिन कोच सर और मैं जाते जनजाती के दफ्तरक्योंकि मेरा जैपुर जाना बहुत जरूरी था। स्टेट के बाद, नेसनल फिर इन्टरनेसनल कोच सर कहते हैं कि तू बहुत ऊपर जाएगी बेनु।''
''
''
''
कहां जा सकी। आते ही इंचारज और मैट्रन ने खूब मारा हाथ छुडा के रात के अंधेरे में भागी थी मैं  वो हॉस्टल के पीछे की टूटी दीवार से कूद के शहर के उस तरफ माथे पे चोट लगीलहू ही लहू  पर पकड लियाउस हडक्ये कुत्ते ने, दोनों ने मिल कर गला टीप दिया। फिर रस्सी लटका दी गले में''

'' ''

'' कौन? मुन्नी? उसे क्या हुआ? न मुझे नहीं पता। वो तो घर गई हुई थी। ना! ना! वो मेरे साथ नहीं थी। उसे भी मार डाला क्या ?'' वह चीख रही है मुझे झिंझोडते हुए।

 

मैं फिर उठ बैठी हूं पसीने में तर - ब - तर कौन मुन्नी? कौन बेनु? यह कैसा सपना था?

'' क्या हुआ मनु?'' इन्होंने मुझे झिंझोड क़र पूछा।
''
'' मैं पसीने - पसीने बुत बने, रजाई उघाडे बैठी कांप रही थी।
''
वो हॉस्टल की टूटी दीवार।''
''
मनु! सपना देखा?''
''
हां शायद पर  ऐसा लगा सच ही था।''
''
डर गई हो सो जाओ।'' वे करवट बदल कर सो गये।

मैं नींद में अपना आप टटोल रही हूं। अजीब सी नींद में स्वयं से पूछ रही हूं - कौन थी यह बेनु? कहीं बनमाला तो नहीं? अरे! अभी पिछले महीने मेरे जन्मदिन पर तो फोन आया था उसका

यह कहानी तो उसकी ही कहानी है, उसके सिर का वह निशान और उसका इतिहास उसीने तो बताया था पर उसने तो कभी आत्महत्या नहीं की वह अखबार की सुर्खियों में जरूर आई थी लेकिन इस तरह पहली भील आदिवासी लडक़ी आर पी एस बनी मैं ने उसे बधाई दी थी, पता ढूंढ कर तब से वह मुझसे फोन पर सम्पर्क रखती आई है दो बार वह घर भी आई है उसने कोच से विवाह कर लिया था, जयपुर जाकर उसी ने, उसके कोच देवराजसिंह मीणा ने उसे आगे पढाया और इस गरिमामय पडाव तक उसे ले आया

मेरे हाथ - पैर बरफ हो रहे हैं कुछ समझ नहीं आ रहा है यह सब क्या है? मेरी समाचार वाली कहानी बनमाला से क्यों जा जुडी है? वह तो जिन्दा है अपने उसी जांबाज व्यक्तित्व के साथ एक पुलिस अधिकारी के जिम्मेदार पद पर बैठ न जाने ऐसे कितने साधुओं, नारीनिकेतनों, छात्रावासों के गंदले गुदडों के बखिया उधेडें हैं और वहां के निकृष्ट कर्मचारियों को पिस्सू सा निकाल फेंका है

पूरे सप्ताह कहानी लिखने के दौरान मुझे न जाने क्या - क्या याद आता रहा है, और मैं अपनी मूल कहानी से भटक कर - उदयपुर, रेजिड़ेन्सी के उस विस्मृत इलाके में घूमती रही हूं। कुछ सच, कुछ स्वप्न  मुझे नहीं पता यह कहानी स्वयं अपने आपको और मुझे कहां ले आयी है? पर गनीमत है, पूरी तो हुई , अब कहीं जाकर मेरा मन संभला है बस पेन और डायरी को रख दिया है, भीतरअलमारी में  ! अब एक - दो महीने कोई कहानी नहीं लिखूंगी उफ! कम से कम किसी अखबार की छपी दारुण खबर को प्लॉट बना कर तो कभी नहीं, ये खबरें जब आपके अतीत से कहीं छूकर गुजरती हैं तो अवचेतन पर जाकर, नानाप्रकार की रासायनिक क्रियाओं से गुजर कर, सपनों के धरातल पर  प्रेसीपिटेट( अवक्षेपित)  होती हैं

पृष्ठ 1 2  

- मनीषा कुलश्रेष्ठ

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com