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सपने का सच
''
आप मीरा
गर्ल्स कॉलेज के हो न!
''
''
हां,
वो
दीदी ये ही विषय पढती है। तुम भी तो पढते होगे न सामाजिक ज्ञान में।'' पद्मा दीदी का काम पूरा हो चुका था, छोटी लडक़ियों को उन्होंने टॉफियां पकडाईं और हम वापस आ गये। लेकिन बेनु के साथ सिलसिला बना रहा तब तक कि जब तकवह अचानक गायब नहीं हो गई। एक दिन अचानक अखबार की सुर्खियों में आकर उसने मुझे चौंका दिया।बाद तक मेरी मित्र मुझसे पूछती रही थीं - यह वही लडक़ी है ना जो तुझसे मिलने आती थी हॉस्टल! ' बेनु ! बनमाला! हां हम मिलते थे, खेल के मैदानों में। कैण्टीन में। पेडों भरे रास्तों में। कई बार वह पैसे मांगने मेरे पास आई थी, मेरे हॉस्टल।
''
मनु दीदी,
कल
खेलने नहीं आये।''
मेरा दिल बुरी तरह घबरा गया था, बेनु की बातों से! मैं ने उसे पैसे नहीं दिये थे। उसके बाद मैं ने उससे कतराना शुरु कर दिया था। पद्मा दीदी को यह सब बताया भी, तो उन्होंने और भी डरा दिया -
''
मनस्वी तू
शान्त बैठ। उससे मत मिला कर। वो बेनु कम नहीं है। उसके कोच के साथ मैं ने
उसे घूमते देखा है। और वह कोई बच्ची नहीं है।उसकी शादी भी हो गई है। पर सब
छोड - छाड क़र पढने आ गई है
आदिवासी कन्या छात्रावास की ऐसी बातें मैं ने कई बार बेनु के मुंह से सुनीं
थीं इन सब बातों के बाद मैं ने उससे मिलना तो बन्द कर दिया था,
लेकिन बहुत विचलित रही मैं।
भीरू
थी मैं?
नहीं, उम्र की विवशता थी,
मैं खुद बी एस सी ही तो कर रही थी।
किस से
जाकर क्या कहती?
कौन सुनता तब मेरी? बेनु की
ही किसी ने नहीं सुनी तब अब बात अलग है इस कहानी के जन्म के दौरान मैं ने फिर सपना देखा - मैं बेखबर अपने मनपसन्द कोने में बैठ कर अगले दिन होने वाली कैमिस्ट्री के पेपर की तैयारी कर रही हूं, सर्दियों के दिन थे सुबह की मीठी धूप अचानक कडवी हो गई है। आदिवासी छात्रावास में शोर गूंजा। चीख - चिल्लाहटें, छोटी लडक़ियों का रोना दस पन्द्रह मिनट में पुलिस आ गई है। मुझे छत पर से कुछ नहीं दिखा, मैं कुछ समझ नहीं सकी पर उन छोटी लडकियों की घुटती हुई चीख इतनी दिल दहला देने वाली थी कि मैं घबरा कर नीचे आई हूं। कमरे में जाकर मैं कपडे बदल कर आदिवासी छात्रावास दौड ज़ाती अगर पद्मा दीदी ने वहीं हाथ पकड क़र घसीट कर मुझे अपने कमरे में बन्द न कर लिया होता।
''
बेवकूफ है
क्या?''
''''
मैं कुछ
समझ ही नहीं पाई। नींद फिर आई नहीं मैं कैसे सोती! सपना था? पूरी रात उन्हीं रास्तों में भटकी हूं। उदयपुर का रेजिड़ेन्सी इलाका जहां की शै, हर दरख्त, हर बेल - बूटा, टूटी दीवारें, कच्चे - पक्के रास्ते बहुत जाने पहचाने थे। उन लोगों के बीच पहुंच गई हूं जिनके साथ वह अहम् वक्त सात साल का गुजरा था, शुरु का चहकते - महकते। बीच का डरते - सहमते। बाद का एक ऊब और तटस्थता के साथ। पर यह बात तो सच थी, फाइनल इयर में मेरे ऑर्गेनिक कैमेस्ट्री के पेपर के दिन कुछ तो हुआ था। पर क्या? एक ऑटो वाले का मर्डर! हमारे ही कैम्पस में! मेरा आर्गेनिक कैमेस्ट्री का पेपर बिगड ग़या था। गनीमत थी कि वह आखिरी था। उसके बाद लम्बा गैप फिर प्रेक्टीकल एग्ज़ाम्स थे। पर जब पेपर देकर आई तो पूरा हॉस्टल न्यूजपेपर्स की टेबल पर जमा था। सब सकते में थे। क्या यह कैम्पस अब सुरक्षित रह गया था, गर्ल्स हॉस्टल्स के लिये? बी एस सी के बाद भी यहीं से एम एस सी करना विवशता थी और मैं ने की उसी डर और अविश्वास के साथ। आज जिस तटस्थता से कह रही हूं , इस तटस्थता की अवस्था तक पहुंचना क्या आसान था? इन्सोम्निया टर्म तब मैं जानती नहीं थी, न ही तब यह टर्म महिलाओं में आम थी आज की तरह। तब नींद न आने, डरने की बात पर लडक़ियों को उनके माता - पिता मनोचिकित्सक के पास नहीं ले जाया करते थे। लेकिन मुझ पर इससे भी कुछ गंभीर गुजरा था जिसके निशान अब तक अंतस पर गहरें हैं। शायद यही वजह है कि - वह रैजिड़ेन्सी कैम्पस हू - ब - हू यूं मेरे सपनों में आ गया, इतने सालों बाद! मैं उस बेनु से नहीं मिली फिर पता नहीं वह कहां चली गई? बहुत दिनों बाद जिससे मिली तो वह बेनु थोडे ही ना थी वह तो बनमाला थी।
लेकिन
कल रात अचानक वही बेनु सपने में आकर उस कैन्टीन की बैंच पर बैठ कर मुझसे
क्या कह रही थी?
ठीक से याद नहीं आ रहा था कोई कडी टूट कर हाथों से छूट
- छूट जा रही थी।
इन्होंने मुझे अचानक जो जगा दिया था
''
अरे! मनु तुम कैसी आवाजें निकाल रही हो?''
और वह कडी वहीं टूट गई मैं किस हॉस्टल की टूटी दीवार की
बात कह रही थी? सपने में - वही कैन्टीन, टीन की छत वाला सामने घास का मैदान, बगल में एक गङ्ढा जिसके आस - पास गुलाबी एन्टीगोनम के फूल खिले थे। मैं और बेनु लकडी क़ी संकरी बैंच पर बैठे हैं खुले आसमान के नीचे। सर के ऊपर एक बादल का टुकडा तैर रहा था। मैं उसी युनिफॉर्म मेंगुलाबी सफेद नहीं सफेद स्कर्ट था, हाथ में बास्केटबॉल थी। उसने क्या पहना था? दिखा नहीं चेहरा भी स्प्ष्ट नहीं। गोदना याद हैतोता - मैना वाला हाथ की संवलाई त्वचा पर नीला गाढा गोदना।
मैं ने
उससे चीख कर पूछा था-
'' कहां जा कर मर गई थी कम्बख्त,
कितनी चिन्ता हुई तेरी! जयपुर से कब लौटी?''
''
कहां?
कहां गई जैपुर?
जाने नईं दिया न कुत्ते इंचारज ने।'' '' '' '' कौन? मुन्नी? उसे क्या हुआ? न मुझे नहीं पता। वो तो घर गई हुई थी। ना! ना! वो मेरे साथ नहीं थी। उसे भी मार डाला क्या ?'' वह चीख रही है मुझे झिंझोडते हुए।
मैं फिर उठ बैठी हूं पसीने में तर - ब - तर। कौन मुन्नी? कौन बेनु? यह कैसा सपना था?
''
क्या हुआ
मनु?''
इन्होंने मुझे झिंझोड क़र पूछा।
मैं नींद में अपना आप टटोल रही हूं। अजीब सी नींद में स्वयं से पूछ रही हूं - कौन थी यह बेनु? कहीं बनमाला तो नहीं? अरे! अभी पिछले महीने मेरे जन्मदिन पर तो फोन आया था उसका। यह कहानी तो उसकी ही कहानी है, उसके सिर का वह निशान और उसका इतिहास उसीने तो बताया था। पर उसने तो कभी आत्महत्या नहीं की। वह अखबार की सुर्खियों में जरूर आई थी। लेकिन इस तरह - पहली भील आदिवासी लडक़ी आर पी एस बनी। मैं ने उसे बधाई दी थी, पता ढूंढ कर तब से वह मुझसे फोन पर सम्पर्क रखती आई है। दो बार वह घर भी आई है। उसने कोच से विवाह कर लिया था, जयपुर जाकर। उसी ने, उसके कोच देवराजसिंह मीणा ने उसे आगे पढाया और इस गरिमामय पडाव तक उसे ले आया। मेरे हाथ - पैर बरफ हो रहे हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा है। यह सब क्या है? मेरी समाचार वाली कहानी बनमाला से क्यों जा जुडी है? वह तो जिन्दा है। अपने उसी जांबाज व्यक्तित्व के साथ। एक पुलिस अधिकारी के जिम्मेदार पद पर बैठ न जाने ऐसे कितने साधुओं, नारीनिकेतनों, छात्रावासों के गंदले गुदडों के बखिया उधेडें हैं और वहां के निकृष्ट कर्मचारियों को पिस्सू सा निकाल फेंका है। पूरे सप्ताह कहानी लिखने के दौरान मुझे न जाने क्या - क्या याद आता रहा है, और मैं अपनी मूल कहानी से भटक कर - उदयपुर, रेजिड़ेन्सी के उस विस्मृत इलाके में घूमती रही हूं। कुछ सच, कुछ स्वप्न मुझे नहीं पता यह कहानी स्वयं अपने आपको और मुझे कहां ले आयी है? पर गनीमत है, पूरी तो हुई , अब कहीं जाकर मेरा मन संभला है। बस पेन और डायरी को रख दिया है, भीतरअलमारी में ! अब एक - दो महीने कोई कहानी नहीं लिखूंगी। उफ! कम से कम किसी अखबार की छपी दारुण खबर को प्लॉट बना कर तो कभी नहीं, ये खबरें जब आपके अतीत से कहीं छूकर गुजरती हैं तो अवचेतन पर जाकर, नानाप्रकार की रासायनिक क्रियाओं से गुजर कर, सपनों के धरातल पर प्रेसीपिटेट( अवक्षेपित) होती हैं। |
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