लंबी कहानी भाग
- 1
विष वल्लरी
“चार चार नौकर थे, मेरे घर में। सुबह नौ बजे सो के उठते थे हम सब बहने और
नौकर चाय लिये खड़ा रहता था। बिस्तर पर ही चाय पीते थे हम तो। और अगर कहीं
जरा सी चायपत्ती या चीनी कम हुई या फिर कम खौली रही, तो सीधे उसके मुँह पर
फेंक देते थे हम वो चाय। और यहाँ..यहाँ आ कर हमारी जो इज्जत बिगड़ी है, वो
हम ही जानते हैं। अँगीठी पर खाना बनवाया गया है हमसे। यहाँ तो सबको आठ ही
बजे नौकरी पर निकल जाना होता है। बरतन भी खुद ही माँजो....!!" चाचीजी अपने
३० साल पुराने राग को अलापने में लगी हुई थीं। घर में सबको ये कथा अब मुँह
जुबानी याद हो गई है।
चाची जी बिजली विभाग के बड़े अधिकारी की लड़की थीं, नौकरों चाकरों में पली
थीं। मोटर कार से स्कूल जाती थी (शायद पढ़ने)। शायद इसलिये क्योंकि पढ़ाई
लिखाई के कोई लक्षन दिखे नही कभी। बहुत सुंदर थीं ....(वो भी शायद) क्योंकि
हमें वो हमेशा सुंदर कम, सजी ज्यादा लगीं। हमारे घर में जैसे कपड़े पहने
जाते हैं, वैसे उनके घर के नौकर पहनते थे। हमारे घर में जो चीजें थीं, वो
उनके नौकरों के घर में थीं। ये सब हम सब को मुँह जुबानी याद हो गया है।
पिछले ३० सालों से ये सब सुनने की आदत हो जाने के बीच पता नही क्यों हम में
से कोई भी कभी ये नही पूछ पाया कि " चाचीजी ऐसी क्या मजबूरी थी कि बिजली
विभाग के इतने बड़े अधिकारी बड़े अधिकारी को अपनी बेटी की शादी चपरासी के
बाबू पुत्र से करनी पड़ गई।"
मुँह जुबानी तो हमें वो भी याद हो गया था, जो दादी का राग था। वो राग जिसका
वादी स्वर चाचाजी हुआ करते थे। दादी चाचाजी को बीनू कहती थीं।
बचपन से चाचा जी की इतनी कहानियाँ सुनी हैं कि लगता है चाचाजी मेरे सामने
ही पैदा हुए और बड़े हुए हैं। उनकी किंवदंतियाँ बताने वाली दादीजी यूँ भी
अगर लिखतीं तो कम से कम मुझसे तो बहुत अच्छी ही कथाकार होतीं। और असल में
मैं भी चाचाजी की ये कथा इसीलिये लिख पा रहा हूँ क्योंकि दादीजी ने हरबोलों
की तरह उनकी कहानी नित्य प्रति के पाठ्यक्रम में बचपन से ही शामिल कर रखी
थी।
यूँ मैने अपनी होशदारी में कभी भी चाचाजी और दादी के रिश्ते पूरे दो महीने
उतने अच्छे नही देखे, जितना एक आदर्श माँ और बेटे में होने चाहिये तथापि
दादी जी का कहना है कि चाचाजी ने अपनी बीस वर्ष की उम्र तक दादी को जो
सम्मान और प्रेम दे दिया, वो उनकी बाकी की पाँच संताने उन्हे पूरी उम्र में
भी, कभी नही दे सकतीं।
तो बाकी की पाँच संताने इस प्रतियोगिता में खुद को वैसे भी शामिल नही करती
थीं, और चुपचाप अपने संतान धर्म का यथासंभव पालन कर रही थी और वो सब कर रही
थीं, जो चाचाजी ने जाने कब से करना बंद कर दिया था।
चाचाजी विलक्षण बुद्धि के मालिक थे, उनके साहस (दुस्साहस)के कारण आधे से
ज्यादा बनारस उन्हे जानता था। उच्चकोटि के मातृभक्त थे (ये बात चाची और
दादी दोनो समान रूप से कहती थीं,एक खुश हो कर दूसरी क्रोधित हो कर) जाने
कौन कौन सी किताबें पढ़ी थीं। हिंदी, अग्रेजी सहित जाने और कितनी भाषाएं आती
थी। खानदान के बड़े लड़के होने के कारण पूरे खानदान के लाड़ले थे। उनके पैदा
होने पर छः जगह सोहर हुए थे और छः जगह उनकी छठी मनाई गई थी। ये बात भी हमें
दादी से सुनते सुनते मुँह जुबानी याद हो गई थी।
तो ये तो वो दो राग थे, जो सुनते सुनते हमें रट गये थे।
लेकिन इनसे अलग जो बुद्धि अपनी चलती थी, उसके अनुसार चाचाजी मुझे हमेशा
बहुत कुछ सोचने को विवश करते रहे।
पता नही क्यों चाची जी, दादी और स्वयं चाचाजी के वक्तव्यों से एकदम अलग नजर
आते थे चाचाजी मुझे।
लेकिन मैं हूँ कौन ? जो आपको इतनी बड़ी गाथा सुनाने बैठा हूँ, तो पहले तो
मैं यही बता देता हूँ, कि मैं.....! जिसके दादाजी और चाचाजी के पिता जी सगे
भाई थे। मेरे दादाजी की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नही थी कि वे अपने दोनो
लड़कों और एक लड़की का खर्चा उठा सकें, इसलिये चाचाजी के पिताजी और माताजी
(दादीजी) मेरे पिताजी को बचपन से पढ़ाने ले आये थे। यहीं पढ़ाया, यहीं पर
दादाजी ने सिफारिश से उनकी नौकरी लगवा दी, यहीं पर उनकी शादी भी कर दी और
यहीं पर मैं भी पैदा हुआ। उस छोटे से घर की ये सारी घटनाएं जो मैने लिखीं
या लिखने जा रहा हूँ, वो सब मैने अपने आँखों से देखीं। मैं भी उसी घर का
हिस्सा जो था।
हाँ अब कथा को आगे बढ़ाते हैं।
बचपन से विलक्षण बुद्धि वाले चाचाजी अपनी तरुण से युवावस्था के मध्य ईश्वर
प्रदत्त नैसर्गिक ऊर्जा से तारतम्य बिठा नही पाये शायद और ऊर्जा विकीर्णित
हो गई। जिस साहस के कारण आधा बनारस उन्हे जानता था, वो असल में दबंगई थी,
जिसे बदमाशी कहना मुझे इसलिये अच्छा नही लग रहा, क्योंकि आखिर तो मेरे चाचा
जी ही हैं ना। अध्ययन तो उन्होने बहुत किया (उम्र के अनुसार अच्छा बुरा और
सब कुछ....)मगर डिग्री उन्होने नही ली। इण्टर में वो जिन नंबरों से पास
हुए, वो उनकी बुद्धि के अनुसार बिना पढ़े भी लाये जा सकते थे और बी०ए० में
उन्होने अपने साहसी दोस्तों को ही पढ़ने में समय बिता दिया, इसलिये कोर्स की
किताबें पढ़ने का समय नही मिला। तो उनकी पढ़ाई ले दे कर इण्टरमीडियेट पर ही
टिक गई। फिर भी ऐसा कोई क्षेत्र नही था, जिसके विषय में ज्ञान चाचाजी को ना
हो।
एक सच, जो हर व्यक्ति समान रूप से स्वीकार करता था कि वे दादी के आज्ञाकारी
पुत्र थे। अपनी चार बहनो के प्रति उनका वैसा ही व्यवहार था, जैसा एक
खानदानी ब्राह्मण का होना चाहिये। घर की लड़कियाँ और दरवाजे की गईया बँधी ही
अच्छी लगती है। समय समय पर घास भूसा डाल कर उसकी सेवा कर देनी चाहिये। इससे
घर की इज्जत भी बनी रहती है और पुण्य भी मिलता है।
वैसे ये भी एक बात थी कि चार बहनो की जनसंख्या चाचाजी को कभी भली भी नही
लगी। बेटियाँ जबर्दस्ती का जी का जंजाल होती हैं, जिनमें लागत बहुत लगती है
और वसूली एक पैसे की नही,इसलिये ये ना हों तो ही ज्यादा अच्छा।
दादाजी किसी सरकारी विभाग में चपरासी थे। खेतीबारी इतनी थी, कि गेहूँ चावल
बाहर से खरीदना ना पड़े बस्स्.. उसमें चार चार बहनों की शादी। जितना दोनो
भाई का हिस्सा नही होता था, उससे ज्यादा तो एक एक की शादी में लग जाना था।
चाचाजी को ये बात क़तई अच्छी नही लगती थी और ये बात चाची जी ने आने के बाद
से ही समझ ली थी।
चाचाजी के साहसी दोस्तों और चाचाजी के बढ़ते साहस को देखते हुए दादाजी ने
अपने साहबों की जी हजूरी कर के चाचाजी को बाबू की नौकरी दिला दी। जो कि उस
समय आसान काम था। ब्राह्मणों में नौकरी वाले लड़के तब भी नही मिलते थे,
इसलिये चाचाजी मोस्टेस्ट एलिजिबिल बैचलर हो गये। मोस्टेस्ट इसलिये क्योंकि
मोस्ट तो वो पहले से ही थे। सुंदर, स्मार्ट, बातों में शहद, व्यवाहारिकता
के कारण खानदान के मोस्ट एलिजिबिल बैचलर वो बड़े होने के पहले ही हो गये थे।
बस इंतज़ार इसका था कि जो अपनी लड़की दे उसे खाने खिलाने का इंतजाम तो हो
लड़के के पास।
और ऐसे में बिजली विभाग के एक बड़े अधिकारी के घर से चाचाजी का रिश्ता आना
सुदामा के घर कृष्ण का आना था। यूँ ऊपर ऊपर से दादी जी ने कहा तो कि "देखीं
आपके लड़की सुख समृद्धि में पलल हौ, हमरे घरे अँगीठी पे खाना बनाला, झाड़ू,
पोंछा, बरतन सब अपनै करे के पड़ी।" मगर अंदर से फूली नही समा रही थीं इस बात
से कि आज उनके बीनू ने उन्हे ये रौब दिलाया कि बिजली विभाग के ये अधिकारी
उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं।
उन साहब ने भी बड़े विनम्र अंदाज़ में कहा कि "बहन जी ! कहिये तो ६ महीने को
यहीं आप की सेवा में छोड़ जाऊँ लड़की। पहले देख परख लीजिये, फिर शादी कीजिये।
हर गुण ढंग से भरी है बिटिया।"
लड़की बिचवईयों ने देखी थी, जिनसे खास रिश्तेदारी भी थी। उनका कहना था, कि
लड़की खूब सुंदर है। तो आखिर में एक चापरासी के घर में बिजली विभाग के एक
बड़े अधिकारी की लड़की लाने कि बात तय हो गई।
रही जहाँ तक दहेज की बात, तो कुछ तो चपरासी दादा जी की हिम्मत भी नही हुई
इतने बड़े अधिकारी से माँगने की और कुछ अफसर साहब ने ऐसा कह भी दिया कि "
देखये समधी जी! अब आप को हम बेटी ऐसे तो देंगे नही, हमारी भी कुछ इज्जत है,
लेकिन तिलक पर हम सबके सामने कुछ नही देंगे क्योंकि हम दोनो ठहरे सरकारी
आदमी, कहीं किसी ने रिपोर्ट वगैरह कर दी, तो लेने के देने पड़ जायेंगे।"
दादा जी को लगा कि अफसर आखिर अफसर ही होते हैं, देखो कितनी बुद्धि काम की।
हम तो इतना सोच भी ना पाते।
दादी की कहानियों में ये भी सुना है कि अफसर साहब ने बारात का स्वागत करने
में गत के बेइज्जती कराई। खाने में मिर्च बढ़ा दी गई, जिससे बाराती खाना कम
खायें। समधियों के सोने बैठने का कुछ इंतजाम नही.... और भी बहुत कुछ.....!!
कहाँ तो दादी ने ये सोचा था कि अफसर की बिटिया खुद तो ऊपर से नीचे तक सोने
से मढ़ी आयेगी ही, कुछ लाईनिंग सास ननद की भी कर ही दी जायेगी। लेकिन अफसर
साहब ने अपनी बिटिया को कान में एक बाली पहना कर विदा करा दिया था। ये
किंवदंती इसलिये भी सही लगती है क्योंकि चाची जी इस बारे मे कोई कथा नही
बतातीं।
कुल मिला कर बिजली विभाग के एक बड़े अधिकारी की बिटिया चपरासी की बहू बन कर
आई। और आने पर उसने जायाजा लिया तो पाया कि नंबर एक उसके पति को खाने पीने
से प्रेम नही धुर प्रेम है । नंबर दो उसका पति ननदो को जनसंख्या के कारण कम
पसंद करता है और नंबर तीन कि घर में उसकी प्रबल प्रतिद्वद्वी जो है, वो
उसकी सास है। सास क्या सौत ही समझो, क्योंकि पति और तो कुछ भी सुन सकता है,
सास के खिलाफ कुछ नही सुन सकता।
खैर अब उसे अपना सिक्का जमाने के लिये उन्ही हथियारों का प्रयोग करना था,
जो उपलब्ध थे। और उपलब्ध हथियार में एक था पति का भोजन प्रेम जिसे और बढ़ाना
था अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिये और दूसारा था पति की बहनों से नफरत, इसे भी
और बढ़ाना था सासू माँ का वर्चस्व घटाने के लिये।
चाचाजी का जो दबदबा आधे बनारस में चलता था, वही दबदबा घर में भी चलता था।
घर में उनके प्रवेश के बाद इमरजेंसी लग जाती थी। छोटे चाचाजी मैदान में
पतंग लाटाई छोड़ कर किताब उठा लेते थे, एक बहन पानी ले कर खड़ी हो जाती थी और
दूसरी चाचाजी के लिये हलवा या पुए बनाने लगती थी। मीठे से प्रेम का ये हाल
था कि बड़े वाले कटोरे से एक कटोरा हलवा चाचाजी अकेले खा लेते थे और अगर
किसी ने उनके हिस्से से एक चम्मच भी बँटाया, तो चाचाजी उसके पेट से निकलवा
लेने की भी पूरी कोशिश कर लेते थे। शाम को हलवे, पुए, चीनी के पराठे का जो
भी नाश्ता बनता था, वो सिर्फ चाचाजी के लिये ही बनता था।
बाकि भाई बहनो को पता था कि उसमें से उन्हे एक टुकड़ा भी नही मिलना है और वो
इस प्रकार की कोई उम्मीद भी नही करते थे। ७ लोगो के परिवार मे आधा किलो दूध
आता था, जिसमे एक पाव में चाय बनती थी और एक पाव चाचाजी पीते थे। इस बात
में भी कभी किसी ने अपनी दावेदारी नही की क्यों कि सबको पता था कि चाचाजी
की घर में किसी से भी बराबरी नही है, उनका पद हर तरह से ऊँचा है।
इन सब के साथ चाचाजी अपने कर्तव्यों के प्रति सजग भी बहुत थे। चाचाजी को
बाबू की नौकरी, दादाजी के ही विभाग में मिली थी। चाचाजी ने जल्द ही अपनी
नेतृत्व बुद्धि वहाँ फैलाई और जितने भी संगठन थे, उसमें झट अपनी पैठ ही नही
बना ली बल्कि खुद सर्वेसर्वा हो गये और दादाजी चपरासी बस नाम भर को रह गये,
क्योंकि वो चाचाजी के पिताजी जो थे आखिर।
बहनो की जनसंख्या से उन्हे जो भी था, मगर ऐसा भी नही था कि बहनो से उन्हे
लगाव नही था। बड़ी बुआ जी के १७ साल की होते होते दादी को उनकी शादी की
चिंता हो गयी। दादाजी शादी ढूँढ़ने निकलते थे और महीने महीने भर बाहर ही रह
जाते और लौटते तो रिश्ता तो नही बीमारी जरूर हाथ आती। बुआ जी अठारह पूरी हो
कर उन्नीस में लग गईं और दादी के आँसू अविरल बहने लगे। चाचाजी भला ये कैसे
देख सकते थे। उन्होने दादी जी के गले में हाथ डाल कर समझाते हुए कहा "हम
हईं ना अम्मा, दु महिना के अंदरै तोहरे सामने उमा खरती लड़िका लाई के खड़ा कई
देब, हमरे पे भरोसा हौ ना।"
और अम्मा को भरोसा हो गया, क्योकि बात उनके बीनू ने जो कही थी।
दादाजी चूँकि सीधे सादे व्यक्ति थे, और शादी तय करना, मानो ना मानो, दंद
फंद का काम तो है ही। तो जो काम दादाजी डेढ़ साल में नही कर पाये वो चाचजी
ने डेढ़ महीने में कर दिया। और छः महीने के अंदर लगन आते ही बड़ी बुआ विदा हो
गयीं।
यूँ बड़ी बुआ की शादी के पहले चाची जी का मेन टारगेट बड़ी बुआ ही हुआ करती
थीं। चाची जी के अनुसार अम्मा बुरी नही हैं (क्योंकि अम्मा को बुरा कहते ही
केस बिगड़ जाना था) लेकिन उमा अम्मा को भड़काये रहती हैं। और अम्मा उमा को
बहुत मानती हैं। अब चाचा जी जिन्हे कुछ तो जनसंख्या वृद्धि में योगदान के
कारण और कुछ इसलिये कि उमा बुआ चाचाजी के पीठ की ही थी, इसलिये भी उमा बुआ
से अन्य बहनो से ज्यादा समस्या तो थी ही। उस पर सटीक उदाहरण भी मिल जाते
थे।
अब चाची जी चूँकि अफसर की बेटी थी, तो उन्होने कभी काम धाम तो किया नही था,
फिर भी वो काम करना सीख तो रही ही थी। (जो कि सबसे ज्यादा चाचाजी के आफिस
जाने के पहले और चाचाजी के आफिस से आने के बाद ही सीखा जाता था) मगर उमा तो
जब से चाचीजी को देख ली हैं तब से काम ही करना छोड़ दीं। (चूँकि उमा सारा
काम धाम निपटा कर शाम को ही थोड़ा आराम पाती थी, यद्यपि तब तक कविता बुआ की
ड्यूटी लग गई होती थी।)
चाचाजी जी के कमरे में आते ही चाची जी आँसू बहाते हुए कहने लगतीं " हम ये
नही कह रहे कि उमा बीवी काम करें,उनका भी तो मन होता होगा कि भाभी आई हैं,
तो वही करें। बस ये है कि ज़रा सा हमें बता देती तो हम सीख जाते धीरे धीरे।
अम्मा जी की भी क्या गलती है, अब बेटी है उनकी तो चाहेंगी ही कि बहू काम
करे। बड़े दिन से सोचा होगा और बहू ऐसी मिली। अम्मा थोड़ा चाहती भी ज्यादा
हैं, उमा बीवी को। गलती तो सारी मेरे माँ बाप की है, जिन्होने नौकरों
चाकरों के चक्कर में मेरी जिंदगी बिगाड़ दी।" कहती हुई चाची जी आँसू पोंछ कर
चाचा जी के पैर दबाने लगती "लेकिन आप चिंता ना करें, हम धीरे धीरे सब सीख
लेंगे। बस यही है कि जैसे आज हम भुगत रहे हैं, कल को उमा बीबी जी को ना
भुगताना पड़े।"
अब चाचाजी चुपचाप पैर दबवाते रहते। कहें तो क्या कहें ? बीवी के सामने बहन
की बुराई में हाँ में हाँ तो मिला नही सकते और बात भी सही लग रही है उसकी।
अम्मा उमा को चाहती तो ज्यादा हैं ही। तभी तो देखो कैसे रोती रहती हैं,
उसकी शादी के नाम पर। दिमाग झन्ना उठता चाचा जी का, वो बाहर हवा में जाना
चाहते, तो चाची पैर पर दबाव बना कर कहतीं " अब कहाँ जा रहे हैं।"
"अरे यार ! पान खाया है, ज़रा पीक थूक आयें।"
"नहीं कहीं ना जाइये। एक तो सुबह के निकले रात गये आप कमरे में आते हैं,
उसके बाद हम नही चाहते, कि आप एक मिनट को भी हमारी आँखों से ओझल हों। हमारा
बस चले तो हम रात भर जाग कर आप ही को देखते रहें।" और नीचे से एक कटोरा
निकालते हुए कहतीं। "लीजिये इसी में थूक लीजिये,हम साफ करेंगे ना, बस आप
रहिये हमारी आँखों के सामने।"
अब ऐसा कौन सा नवविवाहित पुरुष होगा, जो इस समर्पण पर मर नही मिटेगा।
चाचाजी भी फ्लैट हो जाते। और उनको खींचकर बगल में लिटा लेते। "अभी नया नया
है सब, धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा। और उमा को हम समझा देंगे।"
"अरे नही नही, देखिये आपको मेरी कसम है। आप उनको कुछ ना कहियेगा। हम आपसे
ना कहें तो कहें किससे ? ये सोचिये। मगर अगर आप उमा बीबी को कुछ कहेंगे तो
सबको लगेगा कि हम आपसे लगाते बझाते रहते हैं।"
अब चाचाजी उमा बुआ से उस विषय में तो कुछ ना कहते, लेकिन बिना मतलब में ही
उमा बुआ पर उन्हे गुस्सा लगा रहता। उमा बुआ की कापी के पिछले पन्ने पर कोई
गीत लिखा था, जो उन्होने रेडियो से नोट किया था बुलौवे में ढोलक पर गाने के
लिये। चाचाजी के हाथ में वो कापी पड़ी और कापी के पीछे का पन्ना भी। चाचाजी
ने आव देखा ना ताव उमा बुआ के गाल पर एक तमाचा झड़ाम से मार दिया। उमा बुआ
अपनी गलती भी नही समझ पाईं।
दादीजी ने जब हाहाकार मचाया "आज ले तोहार पिताजी लइकी पे हाथ ना उठउलें औ
तू जवान लईकी पे हाथ उठा देहला?" तो चाचाजी ने दादी का भी गुस्सा इसी समय
उतारना मुनासिब “समझा देखा अम्मा तू त वइसो उमा के जियादा दुलरावेलू औ यही
फेर मा ओके जिनगी बरबाद किये हऊ। सुबह से शाम तक एको काम करत तो देखित ना
हई हम। मगर ई कोर्स के कापी मा फिल्मी गीत लिखा करतहईन....दुनिया बहुत
बेकार बय अम्मा! आँख खोलि के रहौ। नाही त तोहिके रोयेक है। कहौ त लिखि के
दे देई।“
अम्मा कुछ समझने में असमर्थ थीं। उमा बुआ दिन भर बिना खाये पिये रोती रहीं।
अम्मा जा कर समझा आईं" बड़ा भाई हौ, एतना दिल पे ना लेवेके चाही" खाने की
थाली साथ ले कर गईं थी। आँसू पोंछ कर हाथ से खाना खिलाने लगीं। चाची जी ने
मौका ताड़ कर खिड़की से उमा बुआ का दुलार दिखा दिया " अब आज अम्मा जी को नही
मनाना था, गलती पर सजा तो देनी ही थी। ऐसे तो आपकी कोई इज्जत ही नही रह
जायेगी।" चाचीजी ने चाचाजी की शर्ट के बटन खोल कर अलगनी पर टाँगते हुए कहा।
खैर उमा बुआ की शादी चाचाजी ने पढ़े लिखे नौकरीशुदा लड़के से की। घर द्वार सब
अच्छा था। नौकरी में प्रमोशन के खूब चांस थे। शादी का प्रबंध खुद संभाला।
मोहल्ले भर में और पूरी रिश्तेदारी में शादी कें इंतजाम की भूरि भूरि
प्रशंसा हुई। ऐन टाइम पर लड़के की डिमांड पर सायकिल लाने के चक्कर में कहाँ
कहाँ नही परेशान हुए और डोली में काँधा लगाते हुए खूब खूब रोये और वादा
किया कि चार दिन बीतते बीतते वो लिवाने पहुँच जायेंगे और पहुँच भी गये।
ये अलग बात है कि उमा बुआ की विदाई भी हो गई, मगर चाचीजी ने उमा बुआ से बात
नही की।
उमा बुआ की शादी हो गई, तो अब चाचीजी को दूसरा टारगेट देखना था। दूसरा
टारगेट कविता बुआ के अलावा कोई हो नही सकता था। लेकिन समस्या ये थी कि उमा
बुआ तो चाचाजी के पीठ की थीं और थोड़ा कड़क भी थीं। बात का सही जवाब दे लेती
थी। लेकिन कविता बुआ थीं सीधी सादी। दुनिया के दंद फंद से अलग। आम को इमली
कह दो, तो वो मान लें और इमली को आम कह दो तो वो मान लें। तो चाचाजी का
लगाव भी बहुत था, कविता बुआ से।
अब कविता बुआ को आड़े हाथ ले कर दादी से दूरी बनवाना थोड़ी टेढ़ी खीर थी।
तो तरीका ये था कि नफरत जब तक ना बढ़ाई जा सके भोजन प्रेम को बढ़ाया जाये।
रसोई की जिम्मेदारी वैसे भी बुआ लोगों के ही हाथ में थी। चूँकि चाचीजी ने
कभी काम किया नही था। वो तो धीरे धीरे ही सीख पायेंगी (वैसे अब चाचाजी की
शादी को धीरे धीरे ७ साल भी हो गये थे और एक बेटा भी हो चुका था।)तो चाची
जी ने कुछ सीखा ना सीखा मीठे पकवान सारे सीख लिये। दादाजी को डायविटीज़ थी।
चाचाजी बड़े लड़के थे, दादीजी को हमेशा डर बना रहता था कि कहीं अनुवांशिक रोग
होने के कारण चाचाजी भी इसके चपेट में ना आ जायें। इसलिये गुझिया के
कनस्टर, लड्डू के डिब्बे वो अपने सिरहाने रख के सोतीं। चूँकि चाचीजी से तो
कोई खतरा था नही, इसलिये चाची जी खुद निकाल कर छिपा कर कमरे में रख देतीं
और चाचाजी को शाम को ७-८ गुझिया ७-८ लड्डू पकड़ा दिये जाते। ये कह कर कि
"पूरा घर खाता है, हमारा मन तड़प के रह जाता है। आप के बिना हमारे मुँह के
नीचे तो नही जाता निवाला। सब खा लें तो खा लें।"
साथ ही खूब घी डाल कर बनाया गया हलवा, मधुपाक ये तो शाम के नाश्ते में थे
ही। परिणाम वही आया, जिसका दादी जी को डर था। २८-२९ साल के होते होते
चाचाजी को ब्लड शुगर हो गई।
दादीजी का सिर घूम गया। कई दिन रोती रहीं। क्योंकि वो देख चुकी थीं कि बहुत
परहेज के बाद भी दादाजी की किडनी पर असर आने लगा था। तो बीनू तो परहेज कर
ही ना पायेंगे।
दादीजी का वर्चस्व मायके से ले कर गृहस्थी तक में लगातार कायम था, मगर
दादीजी बहुत समझदार थीं। उन्हे पता था कि घर की इज्जत घर में ही रहे इसके
लिये चुप रहा जाना ज्यादा अच्छा था। तो दादीजी चुपचाप सब देखतीं और कसक कर
रह जातीं।
उधर चाचीजी अगर चाचाजी को परहेज ही करवाने को उत्साहित करने लगतीं, तो ये
कैसे बता पातीं कि वो चाचाजी को उतना चाहती हैं, जितना कोई नही।
धीरे धीरे चाचाजी को भी समझ आने लगा कि चाचीजी ही हैं, जो उनकी सच्ची
शुभचिंतक हैं। अम्मा तो बिटियों को ज्यादा चाहती हैं। उधर जौनपुर जो कि
चाचीजी का मायका था, वो भी बहुत दूर नही था। सासू माँ भी चाचाजी के खाने
पीने सहित सारी खातिरदारी का विशेष ध्यान देती थीं। साथ साथ ये भी बताती
रहती थीं कि " अइसे तो पाँच पाँच लईकी हमनियो के बाटी लेकिन हम लईकन के
जगह, लईकियन के कबौ ना दे सकेनी" और चाचाजी को लगता यही एक चीज अगर हमारी
भी अम्मा मे होती तो कितना अच्छा होता।
चाचीजी का ज्यादा समय मायके में बीतने लगा, चाचाजी भी वहीं बुला लिये जाते।
अफसर साहब के घर सरकारी गाड़ियों की कमी तो थी नही। जिससे कह देते वही साठ
किलोमीटर पर छोड़ आता दामाद जी को आफिस। उधर चाचीजी के दो फायदे थे एक तो उस
निकम्मी ससुराल से पीछा छूटा था, दूसरे चाचाजी को पूरी तरह अपने रंग में
रंगने का भी मौका मिला था।
मगर समस्या ये थी, कि अब अंकित को पढ़ने भी जाना था। कविता बुआ अंकित को
संभाल तो लेती, लेकिन वो पढ़ने में बहुत अच्छी थी और उन्होने जिंदगी में बस
एक चीज की जिद की थी वो थी, ऊँची पढ़ाई की। दादी जी उनके साथ थी। अब इसके
लिये जो जुगत चाचीजी और उनकी माँ ने मिल कर सोची थी, उस पर कार्यान्वयन इस
तरह हुआ
चाचा जी शाम को जब साहब की भेजी गाड़ी से बनारस से जौनपुर पहुँचे तो चाचीजी
ने जौनपुर की मशहूर दुकान से इमरती मँगा कर रखी थी और नौकर से कह कर घर की
विदेशी जर्सी गाय के दूध से गरम गरम रबड़ी बनवाई थी। सजी धजी तो खैर चाचीजी
दिनभर रहती थीं, तो शाम को कोई विशेष तैयारी तो करनी नही रहती थी। चाचाजी
के आते ही चटक लाल साड़ी पर बड़ी सी लाल बिंदी लगाये चाची प्रकट हुईं और
अधिकारी महोदय के सरकारी बँगले में मिले अपने कमरे में चाचाजी को ले जाकर
उनके जूते उतारे, शर्ट उतारी और गीला कपड़ा ले आई बदन पोंछने को
"अब नहाइये मत, इतना थक के आते हैं, हमारा बस चले तो नौकरी छुड़वा दें।"
कहते हुए चाचीजी चाचाजी का शरीर पोंछने लगीं। चाचाजी सोच रहे थे, इतने बड़े
घर की लड़की और इतनी पतिव्रता...!! शरीर पर पावडर छिड़क कर साफ बनियाईन पहना
दी चाचाजी को और गरम गरम रबड़ी, आठ नौ इमरती के साथ प्लेट में ले कर आ गईं
और अपने हाथ से टुकड़े तोड़ तोड़ खिलाने लगीं।
चाचाजी की विशेषता ये थी कि उन्हे ना तो मीठे से ऊब होती थी ना ही चाचीजी
के इस अति मीठे व्यवहार से।
तो चाचीजी ने टुकड़े खिलाते हुए कहा " सुनिये कविता बीबी का तो इस साल बी०ए०
का अंतिम साल है ना़।"
"हम्म्म" चाचाजी को प्यारी बहन की बात चाची जी के मुँह से सुन कर अच्छा
लगा।
"अब जब बाबूजी, उमा दीदी की शादी नही ढूँढ़ पाये बेचारे, तो कविता बीबी जी
की भी कहाँ ढूँढ़ पायेंगे।"
"हाँ ! उमर भी तो हो गयी बाबूजी की। और देख ही रही हो, डायविटीज के कारण
कमजोर भी तो कितने हो गये हैं। आफिस में देखते हैं, तो मन होता है कि नौकरी
छुड़ा दें उनकी। घुटने में असर आ ही गया है, उस कारण अब चलते है, तो बड़ी
मुश्किल होती है। क्या करें अभी ये तीनों बहने ना होती ना, तो वीआरएस दिला
देते।"
चाचीजी अंदर अंदर कुढ़ गईं। मन में आया "बुड्ढा बुढ़िया की ही सोचना, कभी
मेरी ना सोचना।" लेकिन ऊपर से कहा "वही तो आज हम भी सोच रहे थे। कविता बीवी
का आखरी साल है बी०ए० का। वो जिद करे हैं पढ़ाई करने की। तो अब एम० ए०
करेंगी। अम्मा भी कह ही रही हैं कि पढ़ायेंगी। और हम ये सोच रहे हैं कि
एम०ए० करेगी तो पीएच०डी० लड़का ढूँढ़ना पड़ेगा। और ढूढ़ना तो आखिर आपको ही
पड़ेगा। जितना पढ़ा लड़का, उतना दहेज। फिर अभी ये आखिरी तो हैं नहीं। दो जनी
और हैं। हम लोगो का तो क्या है। आपकी जिंदगी बनी रहे, तो हमारे भर का तो आप
कमा ही रहे हैं, लेकिन अम्मा बाबूजी की भी तो सोचनी है।"
चाचाजी को बात समझ में आ रही थी। अम्मा बाबूजी का पैसा बचता तो आखिर कुछ
मिलता ही। लेकिन ये बहने... और ऊपर से अब जब सब जनी पढ़ाई लिखाई की बात
करेंगी, तब उस हिसाब से लड़का ढूँढ़ो और फिर उसी हिसाब से दहेज दो। चाचीजी
चाचाजी के मुँह में इमरती के टुकड़े डाल रही थीं और चाचाजी यही सब सोच रहे
थे।
इसी बीच चाचीजी फिर बोलीं " एक बात और कहें ?"
"हम्म कहो?"
" देखिये हम कुछ गलत नही कहना चाह रहे। लेकिन लड़कयों का घर हैं थोड़ा सचेत
हो कर तो रहना ही चाहिये ना।"
" अब साफ कहोगी ?"
" बस आप हो गये नाराज।"
"अरे नाराज नही हुए भाई। तुम ये जो सब कही तो थोड़ा सोच में पड़ गये।" चाचीजी
के कमर में हाथ डाल कर उन्हे नजदीक लाते हुए चाचाजी बोले "हम्म्म अब कहो ?
वैसे ये.. इस लाल रंग में जम रही हो आज।"
चाची जी शर्माते हुए उनके नजदीक जाते हुए बोली " हम ये कह रहे थे कि वैसे
कोई बात नही है, लेकिन लड़कियों के घर में थोड़ा संभल के रहना चाहिये। अब आप
ही बताते हैं हमें बाहर की दुनिया के बारे में। क्या क्या तो हो रहा है। तो
ये भी है कि अब तक तो कविता बीबी पढ़ीं लड़कियों के स्कूल में। अब होंगे लड़के
लड़की दोनो। अम्मा जी को तो जानते ही हैं। लड़कियों की गलती उन्हे कभी दिखाई
नही दी। अब अर्जुन दिन भर आकर घर में बैठे कविता बीवी जी से हँसी ठठ्ठा
करते रहते हैं, लेकिन अम्मा को तो ये है नही कि समझा दें...।"
"अरे अर्जुन तो घर का लड़का है भाई। वो सब राखी बाँधती हैं। और अन्नू का
दोस्त है।" चाचाजी ने चाची जी की बात बीच में काटते हुए कहा।
"बस..लग गयी मिर्ची आपको? हम ये नही कह रहे कि कोई खराबी है। बस हम ये कह
रहे हैं कि सचेत रहना चाहिये। मुन्ना की कहानी आप ही बताये थे ना हमें। वो
लड़की पहले राखी ही बाँधती थी ना जो बाद में भाग गई, उन्ही के साथ।"
चाचाजी ने हाथ झटक दिया चाचीजी का। " तुम्हारा दिमाग ज्यादा खराब हो गया है
असल में। उस लड़की से कविता की क्या बराबरी है। कविता को हम देखते नही हैं
क्या? और सुनो जरा अपना ये जो दिमाग है ना इसे कम चलाया करो।" कह कर चाचाजी
आठवीं इमरती प्लेट में छोड़ कर उठ गये।
रात में जब चाची पैर दबाने चलीं, तो पैर बटोर कर दूसरी तरफ मुँह करते हुए
कहा " कल बनारस चलना है। तुम्हारे पिताजी की गाड़ी से नही, ट्रेन से।"
चाचाजी, चाची को ले कर बनारस आ गये। घर में इमरजेंसी अचानक लागू हो गयी।
दादी लड़के को देख कर खुश हुईं। उन्हे लगा लड़का दुबला हो गया है। लेकिन कुछ
बोली नहीं, चाचाजी पैर छू कर अम्मा के पास बैठ गये? बिजली आ नही रही थी।
अम्मा उन्हे पंखा हाँकने लगीं, तो चाचाजी ने पंखा उनके हाथ से ले लिया और
खुद अम्मा को हवा करने लगे।
रात में खाना खाने के बाद चाचा अम्मा के पैताने बैठे और पैर दबाने लगे।
अम्मा मन ही मन निहाल थीं, सो कहीं " अब जाओ सोई रहौ।"
चाचाजी ने पैर दबाते ही हुए कविता बुआ को आवाज़ दी। कविता बुआ के आने पर
पूछा "इस साल तो बी०ए० खतम हो जायेगा ना तुम्हारा।"
.कविता बुआ ने सिर हाँ में हिलाया।
" तो आगे क्या करना है ? एम० ए० ?"
कविता बुआ ने सिर फिर हाँ में हिला दिया
"किस विषय से?"
"अंग्रेजी से ?"
"अंग्रेजी से एम०ए० तो जिस कालेज में है, वो को एड है ना?"
कविता बुआ का सिर फिर हाँ में हिल गया।
"अम्मा ! इन्हे प्राइवेट फॉर्म भरा देना। जमाना इतना अच्छा नही कि को-एड
पढ़ाया जाये लड़कियों को।"
कविता बुआ को तो जैसे किसी ने झन्नाटे दार झापड़ रख दिया। आँख छल्ल से छलक
गई।
चाचाजी पैर दबाते रहे। अगली आवाज उन्होने अन्नू चाचा को दी।
" वो तुम्हारा दोस्त अर्जुन! आधे दिन यहीं क्यों पड़ा रहता है? घर द्वार नही
हैं क्या उसके?"
बोनू चाचा सिर झुकाये खड़े रहे।
अम्मा बोली " अरे बड़ा भला लईका हौ बीनू! ऊ घर में रहत हिन त एकदम तोहरी औ
बीनू के तरह रहत हिन"
"अम्मा तू जमाना ना देखत हऊ यह नाते बोलत हऊ ये तरह। तीन तीन बिटियन के घर
में कौनो लईका काहें घर जईसन बन के रही, ई बात तनी आखि खोलि के देखा”
कहते हुए चाचाजी ने दादीजी के पैर की उँगली चटकाई और अन्नू चाचा की तरफ
मुखातिब हो कर कहा " कल से अर्जुन घर में नही दिखाई देने चाहिये।"
अन्नू चाचा कमरे के दरवाजे तक पैर घसीटते हुए और कमरे से बाहर पैर पटकते
हुए निकल गये। वो समझ ही नही पा रहे थे, कि आखिर अर्जुन को जब घर आने को
मना करेंगे तो उसे कारण क्या बतायेंगे?
उधर कविता बुआ के सारे सपनो पर पानी फिर गया था, साथ ही अर्जुन के आने पर
रोक उनके दिल में अलग हूक उठा रही थी। अर्जुन उमर में उनसे ४ साल छोटा था।
छोटे चाचा की तरह ही हो गया था, उनके लिये। तीन साल से राखी बाँधती थी उसे।
अब बिना गुनाह उसे इतनी बड़ी सजा ? और सजा तो ये अन्नू चाचा और कविता बुआ के
लिये भी कम नही थी। लगाव का रिश्ता तो तीनों मे ही पनपा हुआ था।
तो इस तरह थोड़ा डाँट खा कर ही सही, मायके की आरामतलब जिंदगी से छूट कर ही
सही, चाची जी का मिशन कंप्लीट हुआ।
इधर बनारस में अंकित को अंग्रेजी स्कूल में भर्ती करा दिया गया। पढ़ा लिखा
परिवार था। ना चाची जी अंकित को पढ़ा सकती थीं और ना ही उन्हे ज़रूरत थी,
उसे पढ़ाने की। क्योंकि अंकित ठहरा घर भर का लाड़ला। दादी का पहला पोता, बुआ
लोगों का पहला भतीजा, था भी तो वो कितना प्यारा सा।
चाचीजी की गाड़ी चल निकली थी।
अब ये अलग बात थी कि काम करने की तो आदत थी नही चाची जी को, तो चाचीजी को
हमेशा बुखार रहने लगा और बुखार भी ऐसा कि ऊपर से छूने पर पता भी नही चलता
था। अंदर अंदर रहता था और दवा एलोपैथिक चाचीजी को सूट नही करती थी, तो
जौनपुर के डॉक्टर से कोई होम्योपैथ की मीठी गोलियाँ आई थीं, जो कि चाचीजी
बुखार के लिये कम से कम दो तीन साल तक तो खाती ही रहीं।
बुखार सुबह से हुआ करता था और शाम तक थोड़ा आराम मिल जाता था, बुखार में।
फिर शाम को चाचाजी चाचीजी को स्कूटर पर बैठा कर घुमाने ले जाया करते थे।
वैसे अर्जुन का आना जाना भले बंद हो, मगर अर्जुन ही जैसे अन्नू चाचा के
दूसरे दोस्त संतोष का आना जाना खूब था घर में, कारण ये था कि अर्जुन का
अंजाम देख लेने से संतोष को पता लग गया था कि घर में पैठ बनाने के लिये
चाचीजी को खुश रखना होगा और चाचीजी को खुश रखना कोई बहुत बड़ी बात थी नही
किसी लड़के के लिये बस अगर उसमें मात्र दो गुण हों एक तो उसे सच बोलने की
बीमारी ना हो। और दूसरे वो अच्छा श्रोता हो।
तो संतोष को दिन में बस दो चार बार ये कहना होता था कि चाचीजी के
व्यक्तित्व के लोग कभी कभी और कहीं कहीं ही मिलते हैं। इतनी खूबसूरती, इतनी
गुनी औरत, जो कि इतने बड़े घर से आ कर यहाँ एडजस्ट कर सके मिलना मुश्किल ही
नही नाममुकिन है और इसके बाद चाचीजी का वो व्याख्यान जो कथा के आरंभ में
मैने सुनाया और जो हमें मुँह जुबानी याद हो गया था, वो उसे सुनना होता था।
बस....!! इसके बाद तो चाचाजी के शाम वाले हलवे, मधुपाक इत्यादि इत्यादि
इत्यादि में उसका हिस्सा होता ही था , साथ ही चाचाजी तक चाचीजी की ये भी
आशंका नही पहुँचायी जाती थी कि तीन तीन लड़कियों वाले घर में कितना सचेत हो
कर रहना चाहिये।
चाचीजी का वो बुखार जो निश्चित समय पर हुआ करता था, वो ठीक ना होने पर
चाचीजी अधिकतर मायके चली जाती थीं। इससे जितना सुख चाचीजी को मिला करता था,
उससे कम सुख बुआजी लोगों को नही मिलता था, क्योकि उतने दिन वो लोग खुल कर
साँस ले पाती थी। बाकि अकित को पालने और घर का काम करने में वैसे भी उन
लोगो को कोई परेशानी नही थी।
गृहयुद्ध और शांतियुद्ध की तादाद तथा प्रभावशीलता बढ़ चुकी थी। चाचाजी जितना
संघर्ष कर सकते थे, कर रहे थे। चाचीजी भी जितने दाँव खेल सकती थीं, खेल रही
थीं।
एक दिन जब चाची जी के कमरे से रात भर खुसर खुसर और कभी कभी मंद्र सप्तक
वाली तेज़ आवाजें आईं थी, उस सुबह चाचाजी बहुत देर तक सोये रह गये। बाबूजी
ने आफिस जाने को पूछा तो पता चला कि आज चाचाजी की तबीयत खराब है। कविता बुआ
कमरे में झाड़ू लगाने गयीं, तो दवा के ढेरों रैपर पड़े थे, जिसका नाम अन्नू
चाचा को पढ़ाने पर पता चला कि वो रैपर नींद की दवा के हैं।
दादी को जब ये बात पता चली, तो उनका जी धड़कने लगा। लड़के बहू के कमरे का
संकोच छोड़ते हुए वो धड़धड़ाती चाचाजी के कमरे में पहुँची और झकझोर झकझोर के
चाचाजी को जगा डाला। चाचाजी नींद के नशे में भले थे, मगर अम्मा की आवाज़ का
औरा ही अलग था, उनके लिये।
वो नींद में ही हड़बड़ाये हुए उठे और अम्मा को लड़खड़ाती जुबान से समझाया कि
"अम्मा तू चिंता जिन करा, जौन दवा लिखा हईन डाक्टर ओमा थोड़ा नसा बय, हम
साँझ ले बिलकुल ठीक होई जाईब।“
शाम को जब चाचाजी बिलकुल नींद से छूटे तो अम्मा उनका हाथ पकड़ कर पिछवाड़े
वाले जामुन के नीचे ले गयीं और सिर पर हाथ रखा कर कहा " हमार किरिया खा
बीनू, काल्ह जौन किहा हौ वो कबहौ ना करब्या।
चाचा की आँख में आँसू आ गये। उन्होने आँसू संभालने की कोशिश में विदूरते
हुए कहा " हम का करे अम्मा, पम्मी हमका तुम्हरे साथे ना रहे दिहैं और हम
तुमका छोड़ ना पईबे। बीवी छोड़ि दें घर खानदान की इज्जत जाये और महतारी छोड़
दें तो जमीर ना जिये दे। हम जीये से ऊबि गये अम्मा।"
इतना सुनना था कि दादी का कलेजा मुँह को आ गया। उन्होने बीनू को अपनी छाती
से लगा लिया। सिसकते हुए दादी बोलीं " हमका तोहार जिंदगी चाहत है बीनू,
चाहे तू हमसे कबहौ ना बोलो, तू कहूँ रह्या, लेकिन रह्या भईया।" वो किशन
भगवान से राधा कहाये रहीं ना कि " तुम नीके रहो, उनही के रहो।" तो वई है
भईया। हमका बीनू नाही चाही, हमका बस बीनू की जिनगी अऊर सुख चाहि। तू उहे
करा जऊन पम्मी चाहें। लेकिन अब से कहियो ई काम ना करिहा, जऊन कल्हिया कईला
ह"
चाचाजी के हाथ में वैसे भी इसके अलावा कोई विकल्प नही था। तो उन्होने अब
आत्मसमर्पण कर देना ही उचित समझा और ये भी समझा कि आत्म समर्पण कर के तो घर
की कुछ जिम्मेदारियाँ निपटाई भी जा सकती हैं, पम्मी के साथ संघर्ष कर के
नही।
तो चाचाजी ने आत्म समर्पण के ही मोड में कविता और कामिनी बुआ जिनमें एक ही
साल का अंतर था, की शादी खाता पीता घर और अच्छी नौकरी देख कर कर दी। अन्नू
चाचा कंपटीशन दे रहे थे और छोटी बुआ तो वैसे भी सबसे छोटी थीं, वो तो वैसे
भी अंकित से दो ही चार साल बड़ी थीं।
इसी बीच घर में वो घटना घटी, जो कभी किसी ने सोची भी ना थी। दादाजी अचानक
से गिरे और चाचाजी और अन्नू चाचा, के उठाते और अस्पताल ले जाते जाते एक
हिचकी के साथ उनके प्राण निकल गये।
चाचीजी जी हमेशा की तरह जौनपुर में थीं। आनन फानन में पाँच गाड़ियों के साथ
काफिला लिये पहुँची। अधिकारी महोदय और उनकी पत्नी साथ में थे।
तेरही के दिन तक गरुण पुराण के बीच चाचीजी ने दादीजी को सुनाते हुए ममिया,
चचिया सास से दो तीन दिन कहा " हम तो सोचते हैं कि भई हम से कोई पाप ना हो,
कि हमको ऐसा दिन देखना पड़े।"
ससुराल से आई उमा बुआ, कविता बुआ और कामिनी बुआ का कलेजा मुँह को आता ये
सुन कर। इसका तो सीधा अर्थ था कि अम्मा ने बड़े पाप किये और आज उसका ये
नतीजा है। समझती तो अम्मा भी थी, बहू की भाषा, लेकिन क्या करें, उन्हे खुद
यही लग रहा था कि उन्होने शायद बहुत से पाप किये थे, जो आज उनको ये दिन
देखना पड़ा।
उधर चाचाजी कभी अम्मा को पकड़ कर कहते" हम का करी अम्मा, हम बाबूजी के बचाय
ना पाईन”
और कभी दोस्तो को पकड़ कर बिलखते " सुरेंदर आज हम बड़ै हो गये। आज हम को
समझाने वाला, हमारे सिर पर हाथ रखने वाला कोई नही रहा। बाबूजी के रहते हमने
कभी अपने को बड़ा नही जाना, सारे काम बिना जिम्मेदारी के किये, लेकिन अब नही
कर पायेंगे।"
बुआ लोग विदाई में जब भाई को पकड़ के हिचकियाँ लेने लगीँ तो उनके आँसू पोंछ
पोंछ कर, फिर फिर सिसकते हुए कहा " तू काहें रोवतिहयू ? हम हई नै, हम हमेशा
खड़ा हई बाबूजी क जगही। रोवेक् तो हमे है बचिया, जेकरे सर पे कौनो साया ना
रहल। तू लोग कब्बौ ना समझिहा कि बाबूजी ना हईन। हम हमेशा हई ना।"
अन्नू चाचा और छोटी बुआ को भी, यही कह कह समझाया। छोटी बुआ दादाजी की
ज्यादा दुलारी थीं, तो साल दो साल तक तो दादाजी की ही तरह वो सारे काम
चाचाजी करते ही रहे, जो दादाजी छोटी बुआ के दुलार में किया करते थे। जैसे
शाम को लौटते समय दादाजी की तरह छोटी बुआ का चिखावन ज़रूर आता। बुआ को लौकी
नही पसंद थी, तो दादाजी एक हाथ में लौकी और एक हाथ में रबड़ी ले कर आते थे,
तो चाचाजी ने भी ये परंपरा साल दो साल कायम रखी थी, त्यौहारों पर उन्हे
अंकित के कपड़े भले भूल जायें छोटी बुआजी के कपड़े लाना वो नही भूले।
अन्नू चाचा नौकरी की तैयारी कर रहे थे। उधर चाचाजी ने नेताओं से अच्छी पैठ
बना ही ली थी, तो खूब भाग दौड़ कर के अन्नू चाचा को दादाजी की जगह पर
कंपंसेशन ग्राऊंड पर नौकरी दिलवा दी। उनकी शिक्षा देखते हुए, उन्हे भी
क्लर्क का पद मिल ही गया।
दादाजी का पी०एफ निकलवाने और दादी की पेंशन बँधवाने में भी चाचाजी ने
भागदौड़ कर के सब सही कर दिया।
सरकारी नौकर के लिये आये ढेरों रिश्तों में एक अच्छा रिश्ता देख कर अन्नू
चाचा की शादी कर दी और दादाजी जिस शौक से करते, उस शौक से करी।
तो इस तरह चाचाजी ने बड़े भाई की तरह सारे कर्तव्य निभाये और पिता भी बने
गाहे बगाहे।
उधर यूँ दादी ने जिंदगी बड़े ठसक से बिताई थी। उनका रुतबा हमेशा चला था। मगर
अब दादाजी के बाद कमजोर महसूस करती थीं वो।
सास बहू के झगड़े तेज आवाज़ की कहासुनी के साथ आमने सामने तो दादाजी के रहते
ही शुरू हो गये थे। अब तो चाचीजी के सामने दादीजी की एक और दुखती नस थी।"
नास तो की....! इसी करम पर तो भोग रही हो...!"
दादी बेशरमी से कहती " काहे क भोग? दु दु लईका खड़ा हईन, नाती खड़ा है, काहे
के भोग ?
मगर महीनों, सालों क्या जिंदगी भर इस आवाज़ की गूँज उनके कान से ना हटती,
ना हटी।
उधर वैसे भी शादी के कुछ ही दिनो बाद सबकी तरह दादीजी और पिताजी का प्रेम
भी चाचीजी की नफरत का वायस बन गया था और दादाजी के जाने के एक साल बाद ही
दादी ने मेरी माँ और पिता जी को जामुन के पेड़ के नीचे ले जाकर प्यार से
समझाया " देखा राजू तू हमके बीनू औ अन्नू से एक पईसा कम प्यारा ना हया।
लेकिन बचवा कल के केहू तोहार बेइज्जती करी, चहे तुहै केहू कुछ कही त हमे
अच्छा नाही लागी। तोहार चाचा रहिन नाय अब, तो हमन के बल कम होई गईल हौ।
बीनू बहू कै सुभाव तो तुहसे छिपल ना है औ अब बीनू ओनही के कहे में चले लगा
हईन, ईहो तू पचन जनतै हया। त ऐसे पहले तुहसे केहू कुछ कहे तू कौनौ घर
देखिला।
कहते कहते दादी ने आँचल मुँह पर रख के सिसकना शुरू कर दिया था। लेकिन एक
दिन जैसे तीनो बुआ विदा की थीं वैसे हम तीनो को भी विदा कर दिया।
चाचाजी अब मौन मुद्रा में आ गये थे। वो ना चाची को चुप कराते, ना अम्मा की
तरफ से बोलते। बल्कि अम्मा से तो वो बिना काम के अब बोलते भी नही थे। और
काम वैसे भी क्या पड़ना था।
जब सोचता हूँ, तो लगता है कि इसके दो कारण हो सकते थे। एक तो ये कि उनको
लगता होगा कि अब चाचीजी को रोकना खुद अपनी बेइज्जती कराना है, क्योकि
चाचीजी की भाषा दिन ओ दिन खराब होती जा रही थी, उनकी स्वतंत्रता अब
उच्छृंखलता की ओर अग्रसर थी और चाचाजी जो भी था, थे तो मर्द ही। और वो
मर्द, जिसने कभी आधा बनारस हिला रखा था।
और दूसरी ये कि इन सब के बीच एक बार चाचाजी बहुत बीमार हो कर मौत के मुँह
से लौटे थे। डायविटीज़ के साथ पीलिया जिसे हो जाये, वही समझ सकता है, कि ये
कितनी खतरनाक बीमारी है। चाचीजी खूब पूजा कर रही थीं चाचाजी के लिये लेकिन
डॉक्टर को नही दिखा पा रही थीं। अम्मा दूर से ही देख रही थीं सब। एक दिन जब
अचानक से आमने सामने माँ बेटा पड़ गये, तो अम्मा ने चाचाजी का पीला चेहरा
देखा और खुद का चेहरा फक पड़ गया उनका।
फिर एक बार चाचाजी उसी जामुन के पेड़ के नीचे लाये गये और फिर एक बार सिर पर
हाथ धराया गया " बीनू तू आपन हालत देखत ना हऊवा। खईले पियले में कौनो परहेज
ना है, भईया अबही त एक दुख सहले ना जात ह, दूसर का करे देहल चाहत हया। तू
लखनऊ चला जा बचवा, दिखाये बदे।"
दादी का ब्रह्मास्त्र फिर काम किया। चाचाजी बिना कुछ बोले लखनऊ चले गये।
वहाँ पता चला कि नौ रोग पाले बैठे हैं, वो। उसमे एक लीवर सिरोसिस भी है।
डॉक्टर ने एक महीना भर्ती रखा फिर खाने पीने, सोने, उठने का चार्ट बना कर
उन्हे वापस बनारस भेज दिया। किसी को नही लगता था, कि चाचा अब बच कर भी
आयेंगे। मगर चाचाजी फिर भी सबसे हँस के ही मिलते। बहादुरी से कहते "अरे कुछ
नही, विनय त्रिपाठी इतने छोटे मोटे रोगों से मरने वाले नही।"
कभी सोचो तो लगता है कि विनय त्रिपाठी उसी दिन से असल में कमजोर पड़ गये
अंदर अंदर। अब वो शरीर जिस पर वो दम भरते थे, कोई जाने ना जाने, लेकिन वो
जानते थे कि वो खोखला पड़ गया है। अब बातों में ही दम था, शरीर में नही। तो
तेज मुद्दो पर ना बोलना ही सही था। और बाकि तो तेज और ओज वाली बातें बोल कर
ही अब दूसरों को भी प्रभावित रखना था और खुद के भी मनोबल पर मनोवैज्ञानिक
असर पड़ना था।
चाचीजी के अनुसार उन्होने ने पिछले सोलह साल से क्या क्या नही किया था इस
परिवार के लिये ? तीनों बहनो की शादी कराई, अन्नू की नौकरी लगवाई, अम्मा की
पेंशन बँधाई, बाबूजी के सारे पैसे दिलाये और ये एहससान फरामोश परिवार एक
दिन को भी शुक्रगुज़ार नही होता उनका और परिवार था कि चाचाजी के इन्ही सब
कामों के कारण और उनके बड़े होने का सम्मान करने में ही चाचीजी की भी सारी
सही गलत बातें बर्दाश्त कर रहा था।
चाचीजी वैसे भी पिछले 16 सालों से सबके पीछे पीछे लगी थीं, अब उनके वश का
नही कुछ। उनके आदमी की तबीयत खराब थी, उन्हे उनके लिये ढेरों पूजा करनी
रहती थी, फिर अपने पति को समय भी देना रहता था। तो १६ साल से चाचीजी ने
बहुत किया अब करे बोनू की दुलहिन। रसोई उनके ठेंगे पे।
चाचीजी को वैसे भी जिस चीज़ से सबसे ज्यादा नफरत थी, वो था प्रेम। फिर वो
चाहे जिसका जिससे हो। भाई भाई का, भाई बहन का, माँ बेटे का..जिसका भी। तो
आजकल उन्हे नफरत हो रही थी छोटी चाची से। जिनसे पूरा परिवार प्रेम कर रहा
था।
छोटी चाची मध्यम वर्गीय परिवार की साधारण नैन नक्स की लड़की थीं। जिनके घर
वालों ने इतना सम्मान दिया था कि पूरी रिश्तेदारी दसियों सालों से अब तक
बड़ाई कर रही है। और जाने क्या हुआ कि साधारण नैन नक्श वाली चाची की तुलना
जब चाचीजी से की जाती थी, तो लोग कहते जाने क्यों भोलापन छोटी चाची के ही
चेहरे पर था।
बुआ लोग कहतीं कि मन का असर होता है चेहरे पर। जो दिन भर कुढ़ा करेगा, दिन
भर यही सोचेगा कि इसे कैसे परेशानी दें, उसे कैसे परेशानी दें, तो चेहरा तो
डायन जैसा हो ही जायेगा।
बुआजी लोगों का मायका छोटी चाचीजी के आने से लौट आया था, अम्मा की सेवा, जो
कि बुआ जी लोगों की शादी के बाद कम हो गई थी, फिर से होने लगी थी। वो भी
उनकी ठसक भरी आवाज़ सुनने के साथ।
चाचाजी का सादा भोजन और घर का भोजन दोनो छोटी चाची रोज बनातीं। मगर कहीं
किसी दिन अगर कोई कमी रह जाती, तो चाचीजी आसमान सिर पर उठा लेतीं।
"किसी का क्या जायेगा। लड़का तो मेरा अनाथ होगा। जिंदगी तो मेरी बरबाद होगी।
सब्जी में तेल देखो।"
"मूँग की दाल खतम थी, तो पहले नही बता सकती थीं, अब ऐन वक्त पर बताने का
मतलब भी क्या है।"
और चाचाजी पीढ़ा छोड़ कर उठ खड़े होते।
दादीजी मनाने पहुँचतीं, तो शिकायती सुर में कहने लगते "अम्मा, तु पम्मी क्
पक्ष तो कब्बौ एतना ना लेहलू, जेतना छोटी के लेत हयू।"
दादी बेचारी जवाब ही ना समझ पाती पक्ष काहें के भईया गलती तो उनके हईये ह।
लेकिन अब ना खईबा त बीमार सरीर तो अऊर बीमार होई जाई ना।"
और दादी का गुस्सा छोटी चाची पर उतरता।
अन्नू चाचा शुरू से भड़कबोल्ले थे। चाचाजी वाली मीठी जुबान उनको कभी नही
मिली थी। प्रेम वो सबको करते थे। बुआ लोगों को भी बहुत और दादी को भी बहुत।
लेकिन जुबान ऐसी टेढ़ी कि झन्न लगे कटार जैसी।
चाचाजी से तो पूरा घर शुरू से डरा था और अब सम्मान था सबके अंदर।
चाचीजी अम्मा के कमरे से निलते ही कहतीं " सबकी किस्मत हमारे जैसी फूटी नही
होती। अन्नू की दुलहिन सुभागिन हैं। उन्हे क्या जरूरत बोलने की ? उन्हे
हमारे जैसा खसम थोड़े ना मिला है। जिसकी जुबान पर लकवा मार गया हो। उनकी
बीवी को कोई एक कहेगा तो वो सौ सुना देंगे उसे। तो अम्मा भी डरती हैं। ये
तो मुँह चुप्पा आदमी। कभी जुबान खुली ही नही अपनी अम्मा के सामने। तो हम तो
बुरे होंगे ही। हमें अपनी लड़ाई खुदई जो लड़नी पड़ी हमेशा, इसलिये।"
चाचाजी शांत रहते। खिड़की पार दादी सुनती " जुबान को लकवा मार गया।" और हिल
जाती। उन्होने अपने बच्चों को कभी क्रोध में भी गाली और बद्दुआ नही दी थी।
ना ही इस घर में किसी और ने भी दी थी। अन्नू चाचा ने एक बार कंचे खेलते समय
किसी दोस्त को "अबे" कह दिया था, तो चाचाजी ने बेल्ट निकाल के मारा था
उन्हे। ये कहानी दादीजी ने इतनी बार सुनाई थी कि अंकित ने कभी "अबे" भी
कहने की हिम्मत नही की। चाचाजी की बेल्ट कहीं गयी थोड़े ही थी।
चाची जी को सोते जगते अब बस एक झक थी। उन्हे घर में अपना हिस्सा चाहिये था।
यूँ दादाजी को मिले उस सरकारी मकान में, जिस पर अब उनका कब्जा हो गया था,
अलग हिस्सा लेने जैसा कुछ था नही। मगर फिर भी ये तो आदिकाल से चला आ रहा है
कि सुई के नोंक के बराबर जमीन भी दुर्योधन तक को देना बर्दाश्त नही था, जो
राजे महराजे थे तो ये तो निम्न मध्यम वर्ग जो अब मध्यम वर्ग होने की ओर
अग्रसर था की पारिवारिक दास्तान है।
क्लर्क की नौकरी में मिली तनख्वाह से किसका, कब भला हुआ है, जो बीनू और
अन्नू चाचा का होता। तो दोनो ने अपने अपने साइड बिज़नेस डाल लिये थे। कमाई
अब दोनो की ठीक ठाक थी।
तो कई कई दिन ये धमकी दी गई कि हमारा खाना आज से अलग बनेगा। और कभी अन्नू
चाचा, कभी दादी ने चाचाजी को मना लिया और फिर एक दिन चाचीजी ने चाचाजी के
लाये कुकर में तीन लोगों की दाल डाल कर, छोटी कड़ाही में सब्जी छौंक दी और
चाचाजी, अंकित और अपना खाना ले कर अपने कमरे में चली गयीं। और शाम को उस
कमरे से लगे कमरे में एक गैस का चूल्हा आ गया।
दादी मुँह छिपाये पड़ी रहीं। छोटी चाची की भी आँख में आसू आते रहे। सुबह
दोबारा खाना नही बना और शाम को चूल्हा नही जला।
और एक महीना होते होते उस 1000 वर्गफिट के मकान के बीच से दीवार उठ गई।
संतोष यूँ तो दोस्त अन्नू चाचा के थे। मगर चाची जी से उनकी ज्यादा निभती
थी। जैसा कि पहले बताया ही जा चुका है। चाचाजी का शरीर कमजोर हो ही चुका
था। एक ऐसा आदमी जो भाग दौड़ के काम करे, उसकी जरूरत थी भी। वैसे होने को तो
अंकित भी बड़ा हो गया था और ईश्वर की दया से चार आदमियों का काम अकेले कर
सकता था। लेकिन संतोष. चाची के प्रिय भी थे और चाचाजी का सहारा भी।
तो घर में दीवार खिंचने के बाद संतोष का आना जाना अन्नू चाचा की तरफ कभी
कभी और चाचाजी की तरफ २४ में १८ घंटे के लिये हो गया।
अन्नू चाचा को दिख सब रहा था। मगर बात ये थी कि जब भईया को परेशानी नही, तो
उन्हे क्या परेशानी थी।
मगर अचानक से जाने क्या हुआ कि अंकित को परेशानी हो गयी। उसे लगने लगा कि
संतोष चाचा का आना जाना आवश्यकता से अधिक है घर में और माँ की नजदीकी भी।
उसे ये भी लगने लगा कि संतोष चाचा माँ के साथ एक अलग तरह से व्यवहार करते
हैं और माँ भी उनके सामने कुछ अलग सा करती हैं।
भगवान ना करें कि किसी को अपनी माँ को लेकर ऐसी कोई बात मन में आये।
क्योंकि ऐसी बातें जब आ जाती हैं, तो जाती नहीं। अंकित हर समय यही सोचने
लगा और जब सोचने लगा तो उसे हर समय यही दिखने भी लगा।
उसे लगता कि उसका सिर फट के दो टुकड़े हो जायेगा। वो किससे कहे अपने मन की
बात। और कहे किस जुबान से।
छोटी बुआ जी और अंकित में थोड़ा ही अंतर था। उन दोनो की बनती भी खूब थी। एक
दिन यूँ ही पता चला कि छोटी बुआ के पीठ पर सफेद दाग है। घर में हाहाकार मच
गया। दादी की नींद उड़ गयी। अब शादी कैसे होगी ? वैसे पीठ का दाग था, दिखाई
देना नही था। बिना बताये शादी हो सकती थी। लेकिन बुआ जी का एलान था कि वो
धोखा दे कर शादी नही करेंगी और अभी फिलहाल उन्हे शादी करनी भी नही थी।
उन्हे नौकरी करनी थी।
तो अंकित ने घुमा, फिरा कर ये बात सबसे पहले छोटी बुआ से ही कही। क्योंकि
दोनो खून एक थे। दोनो की इज्जत एक थी। अंकित को पता था कि जिस तरह उसे ये
बात कहने में जुबान कट के गिर जाने जैसा कष्ट हो रहा है, वैसे ही अब बुआ को
भी दोबारा किसी से ये बात कहते होगा।
तो बात के किसी दूसरे तक पहुँचने का खतरा नही था और अंकित अपनी बात किस से
कहे ये समस्या भी हल हो जायेगी और मन भी हलका हो जायेगा, जैसा कि नही हुआ।
बुआ ने अंकित की बात को सुना तो लगा कान में किसी ने जलती मोम डाल दी हो। "
तुम पागल हो गये हो, बस.. और कुछ नही।"
"हाँ सही कह रही हो और असल में हम पूरी तरह पागल हो जाना चाहते हैं। ना
हमें कुछ याद रहे, ना हमें कुछ समझ आये।"
"ज्यादा समझदार हो गये हो तुम। असल में जिस दुनिया में रह रहे हो, उसमें
कुछ अच्छा तो है नही। तो बुरा बुरा देखते देखते, अब घर में भी बुरा देखना
शुरू कर दिया। अरे कल को तो तुम हमें भी यही कहने लगोगे किसी को ले कर।
तुम्हारा दिमाग ही गंदा हो गया है।"
" तुम्हे कैसे कहेंगे। घर में किसी को कैसे कहेंगे ? होने पायेगा तब ना? घर
में तो दूसरे नियम लागू हैं ना। तुम्हे अर्जुन चच्चा याद हैं ? और मधुलिका
। जिसकी हमसे पटने लगी थी, तो मम्मी ने पापा से शिकायत कर दी थी। और जब
मैने सफाई दी, तो पापा ने कहा था कि लड़के और लड़की के बीच में २ फुट की दूरी
होनी चाहिये। वो दो फिट की दूरी अर्जुन चाचा और मम्मी के बीच क्यों नही
होती।"
"अरे पागल ! वो चालीस की हो रहीँ हैं।"
" तो ?"
" तो तुम्हारा सिर?"
" और तुम अपनी याद करो। तुम्हारे पास जब मोहन का फोन आने लगा था, तो मम्मी
ने कैसे व्यग्य किये थे?"
" हाँ.. तो ? किये थे, तो किये थे। एक उमर होती है, कोई भी कहेगा। हमारी,
तुम्हारी उमर है। हमसे गलती हो सकती है। वो लोग कहते हैं, तो क्या गलत कहते
हैं ? तो क्या तुम उन्हे कहने लगोगे ? बुद्धि मारी गयी है तुम्हारी। हटो
हमारे पास से।"
" यही तो वो समझ रही हैं और यही तो वो समझ नही रही हैं, कि उनकी उमर हो गयी
है।"
" तुम हटो पहले यहाँ से।" कह कर बुआ जी अंकित के पास से उठ कर बाहर खुली
हवा में चली गयीं। उन्हे लग रहा था कि उनका दम घुट जायेगा अब।
अंकित उठ कर घर चला गया। चाचीजी के कमरे से हो कर ही गुसलखाने की तरफ जाया
जाता था। उनका कमरा बंद था। अंकित ने दस्तक दी। चाचीजी की आवाज़ आई "हाँ
कौन ?"
"हम हैं मम्मी, बाथरूम की तरफ जाना है। आज दरवाजा क्यों बंद की हो?"
"अरे! खोल रहे एक मिनट रुको जरा, साड़ी फँस गई है, यहीं कुंडे में।"
और जब कुछ समय ले कर दरवाजा खुला तो अंकित ने देखा कि संतोष चाचा पापा वाले
बेड पर बनियाइन और जींस पहने सोये (या सोने जैसे) पड़े है।
उसका सिर फिर से झनझना गया। धड़कने यूँ बढ़ गई जैसे अभी कलेजा बाहर आ जायेगा
और हाथ पैर काँपने लगे।
"दरवाजा क्यों बंद कर रखा था आज ? कभी तो नही करती?"
"अरे मैं उधर थी, बाथरूम की तरफ कपड़े साफ कर रही थी और इधर बिल्ली इसी
रास्ते बार बार रसोई में चली जा रही थी। तो मैने यही दरवाजा बंद कर दिया।"
" तो रसोई का ही क्यों नही बंद कर दिया ? बिल्ली तो रोज ही आती है।"
"अरे इतनी बहस क्यों लड़ा रहा है? कर दिया तो कर दिया? इधर ही से कर दिया तो
क्या हुआ?"
" नही, हुआ कुछ नही, कभी करती नही हो ना। साड़ी कहाँ फँस गई थी?"
"अरे ये! इस दराज के कुंडे में।"
"खोंच नही लगी ?"
"लगा लें।? अजीब हो तुम भी, खोंच नही लगी, दरवाजा क्यों बंद किया?"
"हम्म्म... आज बहुत सारे प्रश्न आ भी रहे हैं, मन में, ये भी कि ये संतोष
चाचा यहाँ क्यों सोये हैं? ऊपर मेरे कमरे में या बाहर के कमरे में क्यों
नही सोये?"
"हद है। ये भी कोई बात है? घर का आदमी कहाँ सोये ? कैसे सोये? ये कोई सवाल
है?"
" घर का आदमी??" कहते हुए अंकित एक हिकारत की दृष्टि चाचीजी और संतोष पर
डाली जो कि अगर अब भी ना जगे होते, तो लोग जान ही जाते कि वो जगे ही हुए
थे, और बाथरूम की तरफ चला गया।
बाथरूम से लौटना भी कमरे की ही तरफ से था, अंकित चाचीजी से ये कहते हुआ
बाहर निकल गया कि " वैसे बाथरूम से छत तक, वो कपड़े दिखे नही मम्मी, जिन्हे
धोने में इतनी ज्यादा देर लगनी थी कि कमरा बंद कर लिया जाये।"
शाम को जब चाचाजी आफिस से आये, तो अंकित घर पर नही था। चाचीजी ने पूरी घटना
अपने अनुसार चाचाजी को बता दी।
अंकित घर लौटा, तो चाचाजी उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे, उन्होने अंकित को
कड़क आवाज़ में बुलाया और पूछा " तुमने जवाब सवाल किया मम्मी से?"
"सवाल किया है, जवाब तो मम्मी ने ऐसा नही दिया, जिससे मैं संतुष्ट होता।"
"मतलब?"
"मतलब क्या? जब मम्मी ने इतना बताया, तो मतलब भी मम्मी बता दें?"
" तुमने मम्मी से ऊटपटाँग के प्रश्न किये ही क्यों?"
" मैने एक भी ऊटपटाँग का प्रश्न नही किया? इस कमरे का दरवाजा जहाँ तक मुझे
याद है कि रात में भी नही बंद होता, जब आप इस कमरे में होते हैं। बिल्ली
रोज आती है, इस समय भी, जा कर देखिये रसोई का दरवाजा बंद होगा, बिल्ली के
डर से। आज यहाँ का क्यों बंद हुआ? हुआ तो उस समय क्यों, जब संतोष चाचा यहाँ
सो रहे थे ? और संतोष चाचा यहाँ सो ही क्यों रहे थे? पूरा घर पड़ा हुआ था।
मम्मी की साड़ी इस खूँटी से ऐसी फँसी कि मम्मी बहुत देर तक दरवाजा खोल ही
नही पाई और एक भी खोंच तक नही आई मम्मी की साड़ी में। मम्मी ने बाथरूम में
जिन कपड़ों को धोने के लिये कमरा बंद किया था, वो कपड़े, मुझे बाथरूम से छत
तक कहीं नही दिखायी दिये।.... ये सब प्रश्न ऊटपटाँग के नही लगते मुझे?"
"ऊटपटाँग के तो हैं ही। अरे जो रोज होता है, वो एक दिन ना हो, तो उस पर
इतना क्या बवाल कर देना? संतोष घर का आदमी है, वो यहाँ सोया, वहाँ सोया?
इससे क्या फर्क़ पड़ता है? इस घर के नियम जो सारे आपके ही बनाये हुए हैं
पापा, उसके अनुसार फर्क़ पड़ता है। वर्ना तो फर्क तब भी नही पड़ना चाहिये था,
जब अर्जुन चाचा घर आते थे। मधूलिका आती थी। मोहन का बस फोन ही आता था ना
छोटी बुआ के पास। तब क्यों फर्क पड़ा?"
" तुम्हें कहना क्या है? साफ साफ कहो।"
" जो कहना है, वो साफ साफ कह नही पाऊँगा।"
चाचा जी जब तक कुछ सोचते, चाचीजी भड़क उठी " सुन लिया। यही सब पढ़ाया जाता है
इसे उधर। ये इसकी भाषा नही है। ये उन लोगों की भाषा है। जहाँ ये दिन भर
बैठा रहता है। हम कितनी बार कहे आपसे, कि ये हरदम वही घुसा रहता है, तो आप
बन गये आदर्शवादी...बच्चों मे पंचायत ना डालो। देख लिये, आप ना डालो उधर तो
डाली जायेगी।"
"मैं बच्चा नही हूँ मम्मी कि मुझे कोई कुछ सिखायेगा और मैं सीख लूँगा। ये
आज नही बहुत दिन से पूछना था मुझे और आप से पूछना था पापा कि संतोष चाचा का
यहाँ पर ऐसा कौन सा काम है, जो वो दिन भर और कभी कभी रात भर यहीं पड़े रहते
हैं।"
"संतोष अन्नू के दोस्त हैं। मेरे लिये अन्नू से बढ़ कर हैं। जब अम्मा ने
हमें अपने से अलग कर दिया, तब हम अकेले थे, तब अन्नू हमरा दाहिना हाथ बने।"
"हमें क्यों नही बनाया दाहिना हाथ? हम इतने छोटे तो नही थे। और आपका दाहिना
हाथ आपके जाने के बाद क्या करता है यहाँ। वो क्यों दिन भर पड़े रहते हैं
यहाँ? हम सुबह बासी रोटी खा कर स्कूल चले जाते थे, अपने टेस्ट के दिनो में
भी और लौट कर आते हैं तो संतोष चाचा मलाई पूड़ी खा रहे होते हैं।.... वो
दूरी जो मेरे और मधुलिका के बीच होनी चाहिये, वो संतोष चाचा और मम्मी के
बीच क्यों नही रहती?
इसी वाक्य के साथ चाचाजी ने एक झन्नाटे दार झापड़ अंकित के गाल पर रख दिया।
उसके गोरे गालों पर उँगलियाँ उभर आईं, उसने मुस्कुराते हुए कहा "तुम चाहे
जितना मार लो पापा, मुझे कोई फर्क़ नही, लेकिन तुम्हारी जगह मैं किसी और को
नही देख पाऊँगा।"
" तुम्हे शरम नही आ रही अंकित, इस तरह की बात करते। तुम अभी इसी वक़्त घर
से निकल जाओ।"
"वैसे तो पापा, जैसे आप ने दादाजी के घर में हिस्सा ले लिया, वैसे मेरा भी
हिस्सा बनता है इस घर में। लेकिन फिर भी, इस घर में या तो अब संतोष चाचा
रहेंगे या मैं।"
" तो तुम जाओ, संतोष किसी कीमत पर ये घर नही छोड़ेंगे।"
अंकित ने चाचाजी और चाचीजी के पैर छुए, चाचीजी ने पैर पीछे कर लिये।
माँ ऐसी भी हो सकती थी। ये पहली बार पता चला था।
एक दीवाल थी दोनो घर की। सारा हल्ला, दादीजी की तरफ पहुँच रहा था। दादीजी
के कान से कम सुनाई देने लगा था़ मगर फिर भी कान उटेरे थीं। ये तो बहुत बड़ी
बात हो रही है। घर की बातें दीवार के बाहर ना जायें इसी के लिये तो बीनू
बहू का सही गलत देखती सहती रहीं और आज, अभी जब अंकित अठारह, उन्नीस साल के
ही हैं, तभी बाप बेटे में ये गजब कहासुनी। "घर से निकल जाओ" सुनते ही सब
सन्न रह गये।
छोटी चाची ने दादी को बता दिया। अंकित घर से जा रहे हैं। दादी का कलेजा फिर
टूक टूक। जाड़े का महीना, अंकित एक जैकेट पहने घर से निकल गया। जाने के पहले
दादी के घर पहुँच कर कहा "दादी हम जा रहे हैं, पापा से हमने संतोष चाचा या
हम में से एक को चुनने को कहा, तो पापा ने संतोष चाचा को चुन लिया है" कहते
हुए दादी के पैर छुए। दादी अछोधार वैसे ही रो रहीं थीं। उनके पैर पर झुकते
ही पकड़ लीं। " एतना सर्दी मे कहाँ जईबा भईया? का ओढ़ब्या, का बिछईब्या? का
खईब्या ? ई तोहरे दादाजी के घर हऊवे। तू इहाँ रहा। अबही हमार अधिकार बा
इहाँ।
"नही दादी, वैसे ही सब कहते हैं कि हमें तुम्ही बिगाड़ी हो, तब तो और हो
जायेगा और हम भी तो अपनी औकात देख लें।"
अन्नू चाचा, छोटी चाची और छोटी बुआ के पैर छू कर जाते समय रोती हुई छोटी
बुआ के गाल थपथपाते हुए उसने कहा " हमारा दम घुट जायेगा, अगर हम वहाँ रहे।"
और अंकित घर से चला गया। चाचीजी के चेहरे पर शिकन नही दिखाई दी। अंकित कहाँ
गया? कहाँ रहा कैसे रहा? ये सब वैसे तो मुझे पता है, मगर कथा का विषय चूँकि
चाचाजी और चाचीजी हैं, अतः उधर ही चलते हैं।
तो चाची जी के चेहरे पर एक अकेली औलाद के चले जाने के गम का कोई चिह्न नही
दिखाई दिया।
मेरे जाने पर चाचीजी सामान्य से ज्यादा खुश होने का प्रदर्शन करतीं,
क्योंकि मैं दादीजी और चाचीजी के घर का कामन परसन था।
तो, यूँ तो मेरे पिताजी की नौकरी चाचाजी लोगो के ही जैसी थी और प्रमोशन भी
उनके बराबर ही मिले थे, फिर भी, माँ बाप के घर ना पली औलाद का व्यक्तित्व
विकास कितना हो सकता है और उनकी औलाद जो कि मैं था। मुझे भी चाचीजी के
बिस्किट और अंकित की रिटायर्ड शर्ट पा कर लगता था कि कुछ खास हो गया।
तो खैर मैं ठहरा चाचाजी और दादी के मध्य उभयपक्षी व्यक्ति। तो चाचीजी मेरे
सामने और खुश प्रकट कर रहीं थीं खुद को और ये भी कि मैं जा कर बगल वालों को
बता दूँ कि इस तरफ कोई गमी नही छायी हुई है।
हाँ चाचाजी जरूर शांत थे और वो शांति उदासी जैसी लग रही थी। संतोष चाचा
बैठे हुए थे। चाचीजी अंदर से कुछ लेने गईं। तो मैने मौका पा कर कहा "दादी
बहुत रो रही थीं, अंकित के लिये।"
तब तक चाचीजी हाथ में दो थालिया भोजन की लिये प्रवेश कर गईं। "हुँह अम्मा
बड़ा रो रहीं थीं। घड़ियाली आँसू.. पूरे घर के.. पहले तो लड़के को भड़का दिया
उलटा सीधा और अब रोना धोना जिससे सब समझें कि कितनी अच्छी है।"
मैने खाने की थाली देखी मसूर की दाल की पकौड़ी को रसदार बना दिया गया था।
साथ में एक कटोरी में मलाई भरी रखी थी। घी लगी रोटी और चावल।
मुझ चापलूस से भी बोले बिना ना रहा गया और कह ही दिया "चाचाजी ये मसूर की
दाल तो मना है ना आपको और पकौड़ी, मलाई, शक्कर, घी, चावल ये सब तो बहुत
नुकसान कर जायेगा।"
चाचाजी बोलते इससे पहले चाची बोल पड़ीं "अरे नही! अब कहाँ तक बेचारे अपनी
जुबान मारे रहें। जानते ही हो कि खाने पीने के कितने शौकीन रहे हैं, अब
धीरे धीरे ८ साल हो रहे हैं। कब तक इनका मुँह बाँधे रहें हम। पूरा घर खाये
चटर पटर और ये ना खायें हमसे देखा नही जाता।"
"लेकिन चाचाजी.....!"
"होईहै सोई जो राम रचि राखा।" कहते हुए चाचा ने मुझे शांत कर दिया और भोजन
करने लगे।
दूसरी थाली संतोष चाचा की तरफ बढ़ा दी गई। मुझसे चाची ने पूछा " तुम्हारे
लिये भी ले आयें?" पूछने के अंदाज़ से लग रहा था कि उत्तर "ना" मे ही हो तो
अच्छा। मैने "ना" में सिर हिला दिया।
ये वही चाची थीं जो कि चाचाजी के खाने के मामले में हुई छोटी चाची की ज़रा
सी भूल पर चिल्ला उठती थी " बच्चा मेरा अनाथ होंगा।" बच्चा तो वैसे भी
अनाथों की तरह रह ही रहा था।
मैने कोशिश कर के पूछा "अंकित का कोई फोन नही आया चाचा।"
" फोन आये भी तो हम ना उठायें। ऐसी औलाद से नाऔलाद भली। हम तो मनाते हैं कि
हे भगवान हमें ऐसी औलाद की माँ कहलाने से अच्छा है कि हमें बिना औलाद की ही
कर दो।" प्रश्न मैने चाचाजी से किया था, मगर उत्तर चाचीजी से मिला।
कोई माँ अपने बेटे के लिये ऐसे भी बोल सकती है? मैने चाचाजी का मुँह देखा।
"जब उनके इतना भी नही हुआ कि माँ बाप अगर डाँट के कह दें कि घर से निकल जाओ
तो, उसे समझना चाहिये। ना कि उसी गुस्से में निकल गये। बाबूजी हमें कितनी
बार कहे, नालायक, नाकारा तो क्या हम घर छोड़ दिये। लेकिन जब अंकित को इतना
ही घमंड है, तब कोई बात ही नही। दुनियाँ की खाक छान कर लौटेंगे तो है ही।"
कहते हुए चाचाजी ने थाली की तरफ मुँह झुका लिया और उनकी आँख में आते आँसू
बहुत कोशिश करके भी वो रोक नही पाये।
पता नही वो कौन सी चीज थी, जो चाचाजी को इतना कमजोर बना रही थी। शायद वो
शरीर जिस पर उन्हें घमंड था और उन्हे पता था कि अब ये उनके वश का नही रहा।
चाचीजी की भाषा-कुभाषा के साथ भी, उनका सहारा वही थीं। और किसी का सहारा
लेना भी तो अपना मान कम करना था।
वर्ना तो ये सच भी सभी जानते थे कि दीवार पार दादी के बाद वो अन्नू चाचा को
ही सबसे ज्यादा मानते थे। अन्नू चाचा से उनका अजब स्नेह था और अन्नू चाचा
का उनसे। अगर वो एक बार इशारा भी कर देते, तो अन्नू चाचा उनके लिये क्या
कुछ ना करने को तैयार थे ?
लेकिन चाचीजी का कहना था कि अन्नू चाचा को अपने पैसे का घमंड हो गया है और
चाचाजी को चाचीजी की हाँ में हाँ मिलानी ही थी। जबकि पोस्ट दोनो की बराबर
थी। साइड बिज़नेस दोनो ने डाल रखा था और अन्नू चाचा की जिम्मेदारियाँ
इसलिये थोड़ी ज्यादा थीं कि दादी उसी घर में थीं। छोटी बुआ भी उधर ही थीं।
अन्नू चाचा के लड़कियाँ थी और तीनो बुआ लोग भी उधर ही आती थी।
यूँ बुआजी के आने पर दादी जबर्दस्ती उन्हे चाचाजी के घर भेजतीं और बुआ लोग
जब बोझिल मन से उधर पहुँचतीं तो चाचाजी भले ही स्नेह से मिलते, चाचीजी को
दुनिया के सारे काम उसी समय याद आते। कोई बैठने को कहने वाला नही होता और
चाय पानी पूछना तो खैर दूर की बात।
धीरे धीरे बुआ लोगो ने दादी से भी कहना शुरू कर दिया "अम्मा अपमान करावे
बदे ना भेजल करा। बहरे हमे देखि के भाभी वहर मुँह कई लेत हिन। पैलग्गी कर त
गेट बंद कई लेत हईन। जईले पर बेसरमन के तरह भईया के पजरे बईठ जा त बईठ जा,
नाही त केहू बईठ्यो खातिर कहे वाला नाही हौ। त अब बहुत दिन बरदास्त कईली ह,
अब नाही बर्दास्त होई।"
उधर चाचीजी बुआ जी लोगों के आने पर ऐसी उपेक्षा भी करती थीं कि आदमी कितना
भी बेहया हो आना बंद ही कर दे और फिर दूसरी तरफ जब बुआ लोगों ने आना बंद कर
दिया तो चाचाजी को खूब सुनाती भी थीं " लो देख लिया ! बड़े मन से करी थी ना
शादी, तीनो बहनों की। मेरी जिम्मेदारी है...हुँह..! यहीं बगल में आती हैं
और झाँकतीं तक नही तुम्हे। बीमार पड़े हो, पड़े रहो। जब तक शरीर काम किया, तब
तक खूब काम लिया सबने। अब जब किसी काम के नही, तब झंखने को हम।"
चाचाजी चुपचाप सुनते। नतीजा ये कि रक्षाबंधन के दिन जब सारी बुआ लोग इकट्ठा
हुईं, तो छोटी बुआ आवाज़ दे आईं " बड़े भईया! आ जाइये, तैयार हो के सब लोग
इंतजार कर रहे हैं।"
राखी इधर ही बँधती थी, हर साल। इंतजार होता रहा। चाचाजी नही आये।
आखिर छोटी बुआ फिर गईं। चाचाजी ने कहा "तुम यहीं ला कर बाँध दो राखी।"
"और दीदी लोग ?"
"दीदी लोग जब मरे जिये नही आतीं, तो राखी कैसी बच्ची।" चाचाजी का गला भर
गया।
छोटी बुआ को कुछ समझ आया और कुछ नही। उन्होने घर आ कर बताया। बुआ लोग थोड़ी
देर झनझनाने के बाद, अपनी अपनी राखी की थालियाँ ले कर चाचाजी की तरफ पहुँच
गईं। चुपचाप चाचाजी को टीका किया। राखी बाँधी और मिठाई खिलाती गईं।
जब सब हो गया, तब आखिर बड़ी बुआ ने पूछ ही लिया। " तुम पहले कह देते भईया,
हम पहले आ जाते।"
चाचाजी जाने क्या जवाब देने चले लेकिन गला पहले भर गया। उनका गला भरना कहो
कि चारों बुआ लोगो के आँसू निकलने शुरू हो गये। फिर तो जाने कौन कौन से माख
मलाल बाहर आये। चाचीजी कुछ बोलने चलीं तो चाचाजी ने जाने कहाँ से हिम्मत कर
कर के कहा कि " तुम अभी शांत रहो पम्मी, अभी तुम्हारी जरूरत नही।" खैर उस
दिन तो भाई बहनों के शिकवे दूर हो गये, लेकिन उस रात चाचाजी ने जो जो सुना,
वो तो चाचाजी की आत्मा और कमरे की चार दीवारी ही जानती है।
चाचीजी रोज डोज़ में चाचाजी को रिमाइंडर देती रहती थीं " हमने जो किया, वो
दुनिया की कोई औरत नही कर सकती। नंगे पाँव मंदिर गये। एक एक घंटा एक पैर पर
खड़े रहे। फलाना पंडित आया था, उसने कहा कि ये तो कब का चले गये होते, लेकिन
ये स्त्री साक्षात सावित्री का अवतार है, जो अपने पति को जिंदा रखे है।"
चाचाजी को क्या लगता था, ये तो नही पता, लेकिन चाचाजी ने कभी विरोधी स्वर
नही अपनाया। वो चाचा जी, जिनके घर में घुसने भर से इमरजेंसी लागू हो जाती
थी, उन्होने कभी विरोधी स्वर क्यों नही अपनाया ? ये प्रश्न बहुत जटिल था।
चाचाजी गलते चले जा रहे थे, बीमारी के कारण । दादी बाहर निकलती और जब कभी
दुबले होते जाते बीनू पर नज़र पड़ती, तो कमरे में लगी, उनके स्वस्थ्य फोटो
देख देख छिप छिप रोती रहती।
दादी बिस्तर पर आ गई थीं। आँतों में कुछ समस्या थी। सभी देखने आये। चाचाजी
नही आये। चाचाजी ने चाची से कहा "मामा आये हैं उधर, अम्मा की तबीयत खराब है
शायद।"
" है तो ? मामा आये हैं, इसलिये क्योंकि मामा को खबर दी गई है, तुम्हे यहीं
बगल में कोई बताने नही आता कि उनकी तबीयत खराब है। अरे कोई नही तो अम्मा के
तो बड़े दुलारे हो ना। वही काहें नही कर दी फोन?"
"अरे वो तो खुद बीमार हैं।"
"फोन करने भर को बीमार नही हैं। बोनू की लड़कियाँ बाकी सब चीज में आगे जा
रही हैं, फोन नही कर पाईं।"
दादी अस्पताल में भर्ती हो गईं। सारे रिश्तेदार जुट गये। दादी का आपरेशन
था। आफिस में छोटे चाचा ने चाचाजी को बता दिया कि अम्मा का आपरेश्न है कल।
डॉ० ने दो मूठ का सौदा बताया है।
चाचाजी चुप रहे। अंकित को खबर लगी थी, वो सुबह ही सीधे अस्पताल पहुँच गया।
दादी ने मुँह से एक बार भी बीनू का नाम नही लिया। जिसने सब जान कर खबर नही
ली, उसका नाम ले कर सबका उपदेश क्या सुनना। लड़कियों से लिपट कर रो लीं।
अन्नू चाचा को छोटी बुआ की जिम्मेदारी सौंप दी। अंकित को बार बार कहा" भईया
महतारी बाप से काहे का घमण्ड हौ? हो सकत ह कि हम ई आपरेशन के बाद ना रहीं।
तबौ तू घर चलि जईहा। बीनू मुँह से भलै ना कहें तबौ उनकर मनवा तुही में लगल
रहेला। भला अपनौ औलाद, उहौ सबसे बड़का औलाद के कोई कईसे भूल सकत हौ। माफी
माँग लिहा बचवा, जानि लिहा कि इहै हमार आखिरी इच्छा ह।“
दादी को आपरेशन रूम में ले जाने की तैयारी हो गई। आपरेशन वाले कपड़े पहना
दिये गये। स्ट्रेचर आ गया और तभी चाचाजी का प्रवेश होता है।
"अम्मा"
"बीनू"
"परेशान ना हौ अम्मा आपरेशन में कुछ ना होई। अभी तोहके बहुत जियेके हौ।"
अम्मा की अश्रुधारा उमड़ पड़ी, जो बहुत देर से, बड़ी हिम्मत से रुकी थी।
"बीनू! अगर हमके कुछ होईयो गैल त अंकित के ना कबौ ना जाये दिह्या।"
" तोहके कुच्छौ न होई अम्मा। ऊ कवच जोन तू हमके देहले रहलू ना दुर्गा माई
क, ओहके आज हम तोहरे खातिर दुर्गा माई के सामने रखि आईल हईं। तुहें विस्वास
रहल कि ऊ हमें बचा लेई वईसे हमहू के बिस्वास ह कि तू एकदम ठीक हो जाबू।"
चाचाजी अम्मा से ये कहते हुए रोते जा रहे थे और रोता जा रहा था पूरा घर।
दादी का आपरेशन सफल रहा। बेहोशी में ही उन्होने कहा "बीनू के खाना खिला द,
ऊ बहुतै बीमार है।"
सब बाद में हँसे। सारा काम किया अन्नू चाचा और छोटी चाची ने। और चाचाजी अंत
समय पर आकर मैदान मार गये।
खैर जो भी हो। इस घटना के बाद अंकित दोबारा से घर में रहने लगे। घर मे क्या
रहने लगे। वो तो अब मुंबई में नौकरी करने लगे थे। पर हाँ, दादी के आपरेशन
के बाद वो सीधे घर गये़। चाचाजी और चाचीजी के पैर छुए।
चाचीजी ने हल्ला मचा मचा के कहा कि हम तो किसी से झुकने वाले नही। आखिर जब
सब जगह से थक गये तो पैर पर गिरने आये।
लेकिन चाचाजी के चेहरे की खुशी देखने के लायक थी। बड़े दिनो बाद उनका चेहरा
देख कर ही लग रहा था कि मन से कितने प्रफुल्लित हैं वो।
अब बात अंकित की शादी पर आ गई थी। बड़ा लड़का था, सबका अरमान था कि शादी अब
हो जाये। नौकरी भी करने लगा और उम्र भी हो गई है।
लेकिन अंकित की शर्त थी कि वो शादी तब करेगा, जब घर में संतोष चाचा का आना
बंद होगा। और संतोष चाचा का आना तो चाचीजी के रहते बंद हो नही सकता था। फिर
चाचाजी ये कहते भी कैसे कि अगर संतोष चाचा का आना बंद हो गया, तो चाची की
कलह झेलना मुश्किल था। तो चाचाजी ने मर्दों की तरह एलान किया, संतोष का आना
तो इस घर में बंद नही होगा, चाहे कोई इस घर में रहे या ना रहे।
मुझे नही पता कि इस बात को कहते हुए चाचाजी का कलेजा धड़का भी होगा या नही।
खैर अंकित को तो अब नौकरी करना था, वो मुंबई चले गये।
चाचाजी की डायविटीज़ का असर किडनी पर आ चुका था। सीरम क्रेटिनिन की मात्रा
बढ़ रही थी। चाचाजी आफिस जाते और घर आते। अक्सर तो अन्नू चाचाके साथ ही जाना
होता। पेट अक्सर खराब रहने लगा। लीवर पर असर आ रहा था।
चाचाजी जब बिस्तर पर थे, तो घर के कामकाज तो रुक नही जायेंगे। चाचीजी संतोष
चाचा की मोटर सायकिल पर ही अब दिखाई पड़ती थीं। रात गये चाचाजी तो बीमारी के
कारण लेटे ही रहते, चाचीजी ईवनिंग वाक पर भी रोज संतोष चाचा के साथ ही
दिखाई देतीं।
अन्नू चाचाजी की तरफ घुनुन मुनुन चलती रहती, छोटी चाची, जो धीमे स्वर में
ही अक्सर बोलती थीं, इस मामले में उनका स्वर ऊँचा हो जाता था। अन्नू चाचा,
समझते सब थे, लेकिन कहते कैसे ? मामाला अपने खून का था। तो छोटी चाची को
सारी परिस्थितियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बताते रहते थे। दादी सब जान के
आँख मूँद लेतीं थी। कुछ करना उनके वश में नही था। तो कुछ सुनना और देखना भी
वो नही चाहती थीं।
उधर दादी की भी उम्र के साथ बीमारियाँ भी बढ़ रहीं थीं। दीवाली पर जब अंकित
आये तो दादी ने जामुन के पेड़ के नीचे अंकित को बुलाया और कहा" भईया तोहर
दादाजी त चलिये गैलन, अब हमहूँ कौनो दिनै चलि देबि। मूल से सूद प्यारा
हउवा, ई सब्बै कहेलन। त हमहूँ दुनिया से अलग नाही हईं। तोके दूल्हा बनल
देखि लेईब, त मरै पै ई साध अधूरा नाही रहि जईहै।"
जामुन के पेड़ के नीचे कही गई दादी की कोई भी बात भला कब ठुकराई गई थी, जो
अबकी ठुकराई जाती ? अंकित ने शादी के लिये हाँ कर दी।
एक से एक खूबसूरत लड़कियों के फोटो में चाचीजी ने हल्के दबे रंग की लंबे
चेहरे की बेहद सामान्य लड़की अपनी बहू के रूप में क्यों पसंद की इस रहस्य का
पता तो कोई नही लगा पाया, क्योंकि हर सास का अरमान होता है कि उसकी बहू
लाखों में एक हो, और तब जब बेटा करोड़ों में एक हो तब तो, ये अरमान कुछ और
बढ़ जाते हैं।
खैर मैने जब दिमाग पर बहुत जोर डाला तो स्नो व्हाईट की कथा याद आई और याद
आया उसका प्रश्न "टेल मी ग्लास अपॉन दि वाल...."
चलो बहू भी आ गई। और बड़ी धूमधाम से आई। चाचाजी बीमार हो चुके थे। ऐन समय पर
अस्पताल में थे। अंकित अपने शादी ब्याह के रिचुअल करा के अस्पताल पहुँच
जाते थे। चाचाजी को शादी वाले दिन छुट्टी दे दी गई। चाचाजी अपनी तबीयत की
परवाह किये बगैर खूब नाचे। अन्नू चाचा घबरा के उन्हे हँसते हुए पकड़ लेते,
कहीं किडनी पर असर ना आ जाये। बुआ लोग वारी वारी जा रहीं थीं भतीजे पर।
अन्नू चाचा गड्डियाँ लुटा रहे थे। दादीजी बार बार आँसू भर रहीं थी आँख में
और दादाजी की फोटो के पास जाकर दो आँसू बहा आती थीं, शायद मन में ये कह कर
कि " देखनी आज आपके पोता केतना सुन्नर लागत हउवै औ जिनके अपने गोदी में
खेलऊलीं, ऊ एतना बड़ा हो गईले कि घोड़ी चढ़त हऊवै।"
घर बहुत दिन बाद एक हो कर खुश था और चाचाजी बहुत दिन बाद बिना बात मुस्काये
जा रहे थे। उमा बुआ ने सारा काम संभाल रखा था। चाचाजी सबसे प्रशंसा कर रहे
थे। "उमा तू जउन कहा नेग दई दी।" उमा बुआ को भईया के इतना कहने भर से नेग
मिल गया था।
अंकित ने ना फोटो देखी थी, ना लड़की। उसने सीधे जयमाल पर लड़की को देखा। लड़की
देख कर जो होना था, वो हुआ। मगर अंकित की तारीफ, कि उसने लड़की पर ये कभी
जाहिर नही किया और पति पत्नी में खूब प्रेम पनपा। रूपाली स्वाभाव में अच्छी
थी, अंकित जिस तरह रखते वो, उस तरह रहने को तैयार थी और यही कारण था दोनो
के बीच प्रेम पनपने का।
और अब जब दो जने में प्रेम पनप रहा था, तो ज़ाहिर बात है कि चाचीजी के मन
में ईर्ष्या पनपनी ही थी, फिर वो चाहे अपने ही बेटा बहू क्यों ना हो।
अंकित को आदर्श दिखाने का एक अलग चस्का था, इसी के चलते उन्होने लड़की नही
देखी थी और कहा था कि जो घर वाले पसंद करें, वही उनकी पसंद होगी। और अब वो
रूपाली से कह गये थे कि " मैं मम्मी, पापा का अकेला बेटा हूँ और उनके सारे
अरमान मुझसे ही निकलने हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम अभी एक साल मम्मी पापा के
पास ही रहो जिससे, उन्हे भी बहू का सुख मिल सके।"
रूपाली खुशी खुशी तैयार हो गई। सुबह सुबह नहा धो कर जब चाचाजी का पैर छूने
जाती, तो चाचाजी निहाल हो जाते। फिर उनके नाश्ता,पानी, भोजन सारी व्यवस्था
उसने बखूबी संभाल ली थी। चाचाजी निहाल थे बहू पर।
कंचन
सिंह चौहान
जनवरी 2015
क्रमश:
विष - वल्लरी भाग - 2
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