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नगरकीर्तन
अविनाश ने एक कहानी भेजी है – मेल पर । शेखर को एसएमएस मिलते ही उसे लगा ,
आज दिन का आगाज ठीक रहा । उस वक्त तक उसे कोई ख्याल ही नहीं आया था। उसकी
आदत में शुमार था कि सबेरे बिस्तर से उठ कर बाथरूम में घुसते ही जो ख्याल
सबसे पहले दिमाग़ में आ जाये,उसका मेंटल नोट ले लेना ।इसमें करना कुछ नहीं
होता ,केवल दोहराकर मन में टांक लेना होता है ,ताकि सारे दिन वह स्मृति में
खिला रहे ।कल्पित कालपुरुष की तरह तत्पर और सटान,प्रत्यंचा से छूटने को
आग्रही तीर के समान । अविनाश भी यही करता है ।दोनों साथियों को इसकी इल्लत
है –बेफजूल । इस कस्बाई शहर में वे अपनी जोड़ी को साहित्य का मार्क्स ओर
एंगेल्स समझते हैं। पुराने दिन होते तो नेहरू और पटेल भी हो सकते थे ।
निंदुक उन्हें लालू और मुलायम भी कहते हैं । कहानी छोटी सी थी ।
‘एक गांव में सारे लोग बारिश के लिये प्रार्थना करना तय करते हैं,शाम के
वक्त सारा गांव इकट्ठा होता है –चौपाल पर। केवल एक बालक वहां ‘ऑड मैन आउट’
है,जो छतरी लेकर आया है । इसे कहते हैं-‘आस्था’-- कहानी खत्म ,बस इत्ती सी।
शेखर ने मेल का जवाब दिया ‘अबे ये कहानी है या कहानी का प्लाट...’
पलक झपकने के पहले क्लिक पर जवाब उड़ गया साथ में कहानी भी।
जब कभी बढिया कहानी लिखी जाती तो दोनो साथी सेलिब्रेट करते। सेलिब्रेट यानी
शहर के पार्क में जो अंधेरी सड़्कें होती वहाँ मीलों चलते जाते। वाकिंग
सेलिब्रेशन। पार्क के एक किनारे से घुस कर दुसरे छोर तक तीन मील का पैदल
चलना होता,फिर घूम कर दूसरी तंग पगडंडी तक तीन मील और। इस तरह सारी शाम
घूमते –टहलते, फिर गोल पार्क के पास निकल कर पब्लिक स्वीमिंग पूल से निकले
लड़के –लड़कियों के भीगे बालों को देखते ,ये गड़ियाहाट आते,वहाँ से पैदल ही
तिनकोनिया पार्क जहाँ कपिल आर्य का घर है। वहाँ से रासबिहारी मोड़ । रास्ते
में हजारों दुकानों में लाखों चीजें भरी होती,इन्होनें मजाल कभी एक धेले की
खरीददारी की हो। कहीं रुक कर चाय पीते हों, ऐसा भी नहीं है। जूते की
दुकानों के शो केश में जूते देखते,साड़ियों में लिपटी मैनेक्विन को आगे पीछे
से निहारते। स्वीमिंग पूल से निकली भीगे बालों वाली लड़कियां भी मैनेक्विन
सी दिखती। बल्कि ज्यादा खुर्राट। उन्हें ज्यादा देर देखने से मुंह
बिचकाती,कभी अंग्रेजी में हल्की गाली भी देती। इडियट –रॉस्कल,हिंदी की
गालियां ज्यादा अश्लील और कम प्रभावकारी मानी जाती हैं। हिसाब से मैनेक्विन
अधिक उदार निकलती।
अविनाश ने कहा क्यो बे ‘क्विड प्रो क्वो’ कहा था तूने-अब तेरी बारी है।‘
[क्विड प्रो क्वो का मतलब है किसी चीज के बदले उसी बहर की कोई चीज
देना।यहां मतलब कहानी के बदले कहानी है।]
मेरी बारी नहीं है ,मैने तो कल कहा ही था ,याद दिलाऊँ...’एक दो साल के
बच्चे को आप हवा में उछालें तो वो हंसता है क्योंकि उसे मालूम है कि आप उसे
गिरने नहीं देंगे, हाथों में थाम लेंगे, इसे कहते हैं-विश्वास-भरोसा।‘
इसलिये तुम्हारी कहानी सवाल नहीं, मेरे सवाल का जवाब भर है,वैसे तूने मेरे
से बेहतर लिखा है एक राउंड मुकम्मल हुआ, जियो बेटा।शेखर ने कहा ले छक्का..।
अब तक इन्हें भीड़ भरे शोरोगुल वाले शहर, जिसे वो कभी-कभी महानगर न कह कर
महानरक कहते थे ,में कोई असुविधा नहीं थी। अचानक गाड़ियों के मर्म भेदी
हॉर्न ,नागरिकों की चुल्ल और धक्कम-धकेल से घिरा इन्होंने खुद को रासबिहारी
मोड़ पर पाया। कहानी की बात जब तक चलती रहती शब्दों में.ध्वनि में(वैसे कई
भाषाओं में ध्वनि को ही शब्द कहते हैं) या दिमाग के रेखांकन में ,यही शहर
बर्दाश्ते काबिल हो जाता और ज्योंही कहानी का ख्याल उड़ा ये साला शहर याकि
नगर नरक में तब्दील हो जाता,जहां से भागने के अलावा कोई चारा नहीं।
घर चलते हैं –दोनों ने इकट्ठा कहा । इनके घर अपेक्षाकृत थोड़े शांत इलाकों
में हैं। इन्हें लगता है तुरंत अगर भाग न निकलें तो ये शहर इनका शिकार कर
लेगा,ये मारे जायेंगे -ऐसी मौत जिसका शहादत से कोई रिश्ता नहीं। कुत्ते की
मौत से इन्हें घृणा होती है। कहानी अधूरी छूट जाना शीघ्रपतन से ज्यादा
कोफ्त पैदा करता है,जैसे कोई पटाका सुलगे और छूटे ही नहीं। वैसे इस मामले
में कुत्ता ज्यादा भाग्यशाली है,उससे रश्क करते हैं, ये दोनो साथी जिन्हें
अपनी दोस्ती का सर्वाधिक साम्य लंगड़े और अंधे भिखारी से दिखता है।सामने
बिलबोर्ड पर सीताराम और प्रकाश की तस्वीरें हैं। जिसके नीचे तीन भिखारी
सारे दिन की कमाई को सहेज –संभाल रहे हैं।
पहला भिखारी चर्मरोगी था।घावों को वह किसी रंगीन चिप्स के रैपर,सस्ती,
मुफ्त की प्लास्टिक से ढक कर बांध रहा था।वह सबेरे उन घावों को खोल देता
,इससे भीख मिलने में सहुलियत होती। किसी आगंतुक,राहगीर को देख कर उसकी तरफ
यूं बढता जैसे उसे छूना चाहता हो,राहगीर इस छुअन से बचने के लिये रुपया
–अठन्नी फेंक देता। ये कारगर तरकीब थी। गाड़ियों,रिक्शाओं की खिड़कियों के
भीतर वो हाथ भीतर घुसा देता और भीतर बैठे औरतों-बच्चों के चेहरे को
छूने-सहलाने तक करीब हो जाता। एक दिन एक 30 वर्षिया शिक्षिका जिसकी नाक
डिम्पल कपाड़िया से मिलती थी,ने उसे आड़े हाथों लिया-छूना मत,खबरदार जो किसी
पैसेंजर को छुआ....’और दो रुपये का सिक्का उसकी ओर फेंक दिया। पास बैठे
नौजवान ने जो शक्ल से वामपंथी छात्र यूनियन करने वाला, साहित्य का औसत
विद्यार्थी था, ने कहा’आप शिक्षिका हैं,मदर टेरेसा को अपना आदर्श मानती
हैं,फिर गरीब से ऐसी घृणा….ये ठीक नहीं है...साथ वाले लड़के ने कहा ऐसी
हमदर्दी है तो घर ले जाईये,ये क्या मतलब हुआ, कोई गंदा-संदा आदमी ,भिखारी
रोगी आपको छुए,मुझे घिन आती है,मैं उसे कुछ दे सकता हूं पर सर पर चढे आना
अक्षम्य है.ये कैसा मानुष प्रेम-जनवाद है रे बाबा...भिखारी ये किस्सा अपने
साथियों को बयान कर रहा था।इसके घावों में खुजली चलती रहती है,जिसे ये
रात-दिन खोरता रहता है,कभी उंगलियों से,कभी बांस की कंची से कभी किसी टूटे
प्लास्टिक के कंघे से ।इसका नाम साथियों ने खोरु रखा हुआ है। ये न ही इसका
इलाज करवाना चाहता है ,न ही ये कि ये घाव ठीक हो जायें,रोजी रोटी का सवाल
है,आइडेंटीटी का भी,पॉलिटिक्स का भी(तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है
साथी/कॉमरेड -मुक्तिबोध)। लेकिन रात को खुजली से निजात मिले इसकी ख्वाहिश
ये रखता है,बहरहाल। उसने कमाई संभाली, 32 रुपये मिल गये लेकिन 2रुपये का
हिसाब नहीं मिल रहा। 34 होते तो वह उड़ियापाड़ा से आठ रोटी,आलूदम और एक
मच्छीझोल लेता। ये दुकान सारा दिन बंद रहती है ,शाम 8 बजे खुलती है,रात 1
बजे तक खुली रहतीहै।इसके ग्राहक केवल भिखारी हैं।सुपर ग्रोथ वाले भारत और
तरक्की करते रिसरजेंट बंगाल की भीमपलाशी वाले सेंसेक्स की छाया भी कभी इनकी
छाया से नहीं टकारायी है।
दूसरा भिखारी जिसके सारे बाल किसी अज्ञात बीमारी से उड़ गये थे ,केवल थूथन
की दाढी नहीं उजड़ी थी, का दिन अच्छा नहीं रहा। उसे साथी आर्टिस्ट कहते हैं
वो लोकल रेल में हारमोनियम बजा कर गीत गाता है,खुद को गवैय्या समझता
है-कलाकार। लेकिन साथियों ने भिखारी का मान दे रखा है तभी तो एक्सक्लुसिव
क्लब में शामिल कर रखा है। वह अब भी सचिन देव बर्मन के गीत ही गाता है,जिसे
जमाना छोड़े 35 बरस से ज्यादा हुये ,अब तो कोई जानता भी नहीं है,कोई-कोई
राहुल देव बर्मन के पिता के रुप में शिनाख्त कर लेता है।पंचम को गये भी तो
20 बरस हो गये। उसे पता नहीं के बालीगंज-ढाकुरिया की जिस लाईन में वह चलता
है इनका घर उसी गली मे था, पुल के नीचे।
वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जायेगा कहां...
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंय्या पायेगा कहां..
इतने में ट्रेन में पीछे से रेले का धक्का लगता है,जिसका वह आदी हो चुका है
उसे कोई फर्क नहीं पड़्ता,केवल गीत के प्रारम्भिक बोल बदल कर वह बदला लेता
है-
अबे कौन है? तेरा.....जायेगा कहां...
लेकिन सुर बरकरार रहता है कभी मुखड़े को, अंतरे को बीच में नहीं छोड़ा ,न ही
अधूरा तोड़ा।रेल में किसी के पैर पर पैर पड़ जाये तो मैं माफी मांग लेता
हूं,’माफ करिये मैं गरीब आदमी हूं,लाचार हूं...
‘अरे गरीब है तो पैर कुचल देगा,सर पे मूतेगा? किसे क्या कहिये,देशप्रेम से
लबालब हिंदोस्तान में,अमीर- बलवान को कुछ कह ही नहीं सकते,गरीब को कह कर ही
क्या करियेगा। ये किस्सा आर्टिस्ट बयान कर रहा था।
तू ट्युब रेल में क्यों नहीं जाता,वहां तेरे को कद्रदान मिलेगा..खोरु ने
कहा
टयुब रेल में भिखारी अलाउड नहीं है...
अबे तू तो आधा आर्टिस्ट है, आधा भिखारी...
अपने-अपने चूतड़ों पर हथेली मार कर वे हंसते हैं
आधा गृहस्थ भी तो है,तीसरा भिखारी छेड़ता है,उसे पता है कि पहले उसके साथ एक
औरत भी होती थी संगत को,वो वैष्णवी का भेष धरती थी,सफेद साड़ी, गैरू
पाड़,ललाट पर चंदन का टीका। एक बार बर्दवान से बोलपुर के रास्ते गुसकड़ा
स्टेशन पर छूट गयी थी फिर वापस नहीं लौटी।किसी खैपा के साथ बैठ गयी, शायद।
खैपा ने उसे सात तार वाली वीणा के बारे में बताया,यह भी जोड़ा कि स्त्री के
शरीर/तन में भी सात तार होते है,जिनमें लय छुपी होती है,जिसे झंकृत करने
लिये एक आदमी चाहिये ,और इसी की जूस्तजू उसे रहती है। एकतारा ,दोतारा
रावणहत्था, रबाब,सितार मोहनवीणा,रुद्रवीणा उसे सब बजाना आता था। मृदंग,
बांसुरी तो वह बगैर साज के ही बजा लिया करता था।यह तीसरा भिखारी राजा
कहलाता है,वैसे है काना -राजा,यह अंधा बन कर भीख मांगता है,काला चश्मा
पहनता है, रात को भी। कोई ससम्मान बुलाये-पुकारे तो राजा वरना काना ,दोनों
नाम चलते हैं।
अपने सारे दिन की कमाई को सम्भालते हैं, ये लोग्। आज डुबकी लगाने चलेगें
,कई दिनो से गंगासागर नहीं गये।ये कालीघाट के पीछे वाले नाले के लिये
निकलते हैं जिसे कोई-कोई आदि गंगा का मान देता है। वहां एक आदमी लाल-काली
सुराहियों में दारु बेचता है। पिछले रात की बारिश से उपजे कीचड़
कादो,दुर्गंध को सूंघते कचड़े के पहाड़ को पार कर,चमकीली पन्नियों,फूटी
बोतलों,पुराने कागज के गट्ठरों और प्लास्टिक के कचड़े के समुद्र को पार कर
वहां पहुंचते ही इनकी बांछे खिल जाती हैं।
लगाओ एक –एक ग्लास ..उसकी मां को ...
ये खिलखिलाते हैं, दारु बेचने वाला सागर इन्हें तवज्जो नहीं देता,केवल
गिलास आगे बढा देता है साथ में एक कागज की पुड़िया
ये पुड़िया खोलते हैं,उसमें नमक है,गिलास की दारु में तीन उंगलियों तर्जनी,
मध्यमा, अनामिका के अग्र भाग टर्पोल्यों को भीगो कर बहुत सारा नमक चिपकाते
हैं,अंगूठे और कनिष्ठा से नाक दबा कर पूरा गिलास खाली करते हैं-एक दम
में,फिर तीनों उंगलियों का नमक चाटते हैं,कई-कई प्रकार की वीभत्स आवाजें
निकालते हैं..हा.. खा.. थू..छक्क.
.फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुये एक दूसरे को मुखातिब होते हैं,हाथ के बाहरी
हिस्से से मुँह पोंछते हैं..उसकी मां को चो... तीनों इकट्ठे कहते हैं।
लगाओ एक एक और ,इस बार ‘पावर’देना बे...
दुकानदार को पता था उसने पहले ही तीन गिलास पावर तैय्यार रखे थे ‘अब
आहिस्ते-आहिस्ते पी...
और कुछ है बे…
वह मिट्टी की हांडी से चाट पेश करता है,इसका 7 रुपया देना...
7 रुपया? क्यों तेरी दुकान क्या रिवर बार हो गयी है?
खा के देख,मीट है,नॉन वेज,रिवर बार नहीं बे.. ओपन एअर रिवर बार बोल...
मांस है?हुँह ! काना बोला,मीट दुकान में जो छांट कुत्ता भी छोड़ देता है,वही
आंत –फांत साला एक किलो में डेढ मन मिर्च और एक क्विंटल अदरख देकर तू ‘चाट’
बनाता है,तीन दिन पैखाना के समय याददाश्ती रहता है-7 रुपये का,भैंचो छांट
को चाट बताता है...
अबे जहर को जहर मारता है अभी मजा ले,खोरु ने उसे शांत किया...
पावर धीरे धीरे नसों में उतर गया। अदरख और मिर्च के नाग/बिच्छू के साथ..
खोरु के सारे घाव बदन से उड़ कर आसमान में चिपक गये
आर्टिस्ट ने कहा वो देख मेरी वैष्णवी...
सप्तर्षि के उपरी छोर पर वशिष्ठ नक्षत्र के पास अरुंधति नजर आने लगी।
आर्टिस्ट राजा से बोला तू मेरे को आधा गृहस्थ बोल कर चिढाता है न,…तू मेरा
दोस्त है, कभी ये प्रसंग मत उठाना,मैने राजा के अलावा तेरे को कभी कुछ और
पुकारा..हम लोग एक दूसरे को प्यार न करें तो कैसे जिंदा रहेंगे,तू बोल!
राजा ने पहली बार चश्मा उतारा,उसकी डब-डब करती सजल आंख अब एक से हजारों हो
गयी और आसमान में ,खुल-बंद का खेल करने लगीं।
ये खालिस पारा है दुकानदार बोला देख तामाशा पारे का...हैय्या हो हैय्या..
उस रात नाले का पानी काले तरल द्रव से रुपाली पारे में तब्दील होने लगा।
अरे ये तो चांदी जैसा है,एक ने कहा
और जो पी रहा है खालिस पारा है, दुकानदार बोला
धीरे धीरे चांदी की चिलकती नदी उनके पैरों को भिगोने लगी। अन घुटने डूबे,
अब कमर, अब पानी छाती तक आया...डुबकी लगाने के माकूल
ये इसमें डुबकी लगाने लगे,इनका मन हुआ कि पानी में ऐसे डूबे कि कभी उपर आना
ही न पड़े। ईश्वर हमें मछली बना दे,केंचुआ बना दे,घोंघा बना दे,यहीं डूबते
तैरते रहें,बाहर आने की कोई जरुरत ही न रहे।नदी की तलहटी में जायें वहां से
मिट्टी, पत्थर, सीप, बालू मुंह में पकड़ कर बाहर लाये और किनारे पर बिखेर
दें। इस सारे कचड़े को मिट्टी, पत्थर, बालू, सीप में नहीं बदला जा सकता।
शैवाल और नदी तल की रहस्यमयी खुशबू में क्या सारा किनारा डूब नहीं सकता?
आर्टिस्ट ने गाना शुरु किया
‘बंधु चोले जाईबा रे,बंधु कबे आइबा रे,
दूर कोनो परदेशे ,बंधु चोले जाइबे रे; कबे आइबा रे,
ए पोड़ा कपाल सोनार कांकन हानी,
फागुन आमार जाइबे वृथा जानि....
ये तीनों भूमि पर चित्त लेटे रहे,सारी दुनिया अदृश्य हो गयी,सारे जीवन में
आकाश भर गया –केवल आकाश---केवल आकाश...
खुजली,उड़े हुए बाल और कानी आँख पर चाँद तारों और बादलों की महीन चादर ने
मल्लम लगाना शुरु किया। मछलियां, केंचुए और घोंघे अतल जल की रुपाली नदी से
निकल कर सुनील आकाश में उड़ने लगे।जलचर, थलचर, नभचर, स्तनपायी,लैंगिकों के
सारे भेद मिट गये।आर्टिस्ट ने धीमे से कहा-
हम लोग इस दुनिया में रहते हैं ,या हमीं लोग ये ‘दुनिया हैं’….
ऐसी दार्शनिक चिंताओ के सौरजगतीय घटाटोप में ये तीनों जैसे किसी सैटेलाइट
यान से महाकाश में छूटे तीन यात्रियों की तरह एक दूसरे का हाथ नहीं छोड़ रहे
थे....कोई गा नहीं रहा था लेकिन धरती से लगे कानों में ये गीत बजने लगा –
लाल पहाड़ीर देशे जा,रांगा माटीर देशे जा,
एखान तोके मानाइचे ना रे,इक्के बारे मानाइचे ना रे...
तेज हवाएं चलने लगती हैं,नदी के बहते पानी के विपरीत बादलों की उन्नीस
अक्षौणी सेना भागी जा रही है।ये महसूस करते हैं किसी यान पर या लकड़ी के
फट्टे पर ये कभी नदी, कभी आसमान में बहे जा रहे हैं। यही आकाशगंगा है क्या?
इन्हें संदेह होताहै। इतने तेज की एक दूसरे का हाथ कस कर पकड़ लेते
हैं,बच्चे ज्यों मेलों में अपने 2 साल बड़े भाई का हाथ थामते हैं।जवान होती
लड़कियां छोटे भाई का हाथ थामे स्कूल से लौटती हैं ज्यों। सौरमंडल की नाना
गतियों के बारे में इन्हें कोई शंका न रही। उड़िया पाड़ा का दुकानदार रात ड़ेढ
बजे तक इनका इंतजार करता रहा फिर सप्तर्षि मंडल को टालीगंज की तरफ छिटक
जाता देख, उससे मुँह फेर कर थोडी नाराजगी से वहीं फुटपाथ पर अपना बिस्तर
लगा लेता है।
तारों की कोलाहल से दुश्मनी है, खरगोशों की भी। जब तक शहर चिल्ल-पों में
धंसा रहता है ये इधर का रुख भी नहीं करते।
दुकान बंद होती देख ज्यों उल्लू को सिग्नल मिल गया। किरासन की लैम्प पर
जैसे ही दुकानदार ने हाथ मारा और झांप गिराया। उल्लू उड़ चला शिकार पर,भोजन
की तलाश में। आज शायद कोई बढिया चूहा-छुछूंदर मिल जाये। चांद को देखते ही
उसे नन्हे खरगोश की लाल आँखे याद आ गयी,जिसे कल उसने घुप अंधेरे मे टोह तो
लिया था,लेकिन न जाने कैसे वह बच कर निकल गया।इसके बाद एक कल्पयुग यूं ही
बहता रहा,आकाशगंगाओं ,मंदाकिनियों की बेखबर स्वगति। इन घटनाओं का किसी
रोजनामचे में दर्ज होना सम्भव न हो सका। ऐसी मायावी नक्षत्र भाषा जिसकी
लिपि अब तक बन ही न पायी। इन तीन लाशों पर चाँदनी बरसती रही,हवा धूल-मीट्टी
और बालू बिखेरती रही,झिंगुर और रंगीन कीट मर्सिया गाते रहे,पेड़ों के अबूझ
रंगों से लदे पत्ते और टहनियां उनहे हवा झलती रही,बादल कभी झीनी कभी गाढी
चादर ओढाते रहे। साढे चार बजे नसीमेसहर ने इनके गालों को सहलाकर इनके बालों
में उंगलियाँ फेर कर इन्हें सहस्त्र वर्षों की अकाल मौत से जगाया।
खोरु ने आँखे मलते देखा, रात जहाँ चाँद को छोड़ा था ठीक वहीं सूरज खड़ा
है।पृथ्वी गर्म हो रही है, धीरे –धीरे।
देख बे! उसने साथियों को झिंझोड़ते हुये कहा,मैने कहा था न, दिन में पृथ्वी
के ताप से गर्म हो कर वही सूरज बन जाता है,रात को ठंढ से मुलायम हो कर
चाँद..
क्या बोला ? आर्टिस्ट ने पूछा, फिर वही बेसिर पैर की बातें। चाँद और सूरज
एक ही हैं?
और नहीं तो क्या! देख रात जहाँ छोड़ा था वहीं खड़ा है..,
राजा ने जम्हाई लेते कहा मैं कुछ नहीं कह सकता,हो सकता है खोरु की बात ठीक
हो,रात-दिन में गरम और ठंढे होने की बात तो ठीक लगती है,तू इसे मान ले तो
तेरा क्या बिगड़ जायेगा...
आर्टिस्ट ने टोका पृथ्वी की जो प्रतिछाया पड़ती है, वही चाँद पर दाग जैसी
दिखती है और ये सूरज की रौशनी से सम्भव हो पाता है जो दूसरे छोर पर होता
है...
इसे तुरंत काटते हुये खोरु ने कहा अबे प्रतिछाया पड़ेगी तो बीच में कोई आइना
होना चाहिये,ऐसे ही नहीं बनती छाया...
अबे साले कोढी ये आकाश ही वो आईना है,दर्पण का मतलब समझते हो?
इससे क्या साबित हुआ के चाँद सूरज एक नहीं हैं...
अब काना से रहा न गया,बोला क्या सबेरे-सबेरे चिक-चिक लगा दी,मैं जानता
हूँ,चाँद और सूरज कभी एक नहीं हो सकते..
कैसे? तुझे ईश्वर ने कान में कहा?
चाँद स्त्री है,सूरज पुरुष,ये एक कैसे हो सकते है?
इस पर दोनों को साँप सूंघ गया,चुप्प...
और सुन बे आर्टिस्ट मैंने एक बार चाँद सूरज दोनों को देखा है- इकट्ठे भी
,अब बोल...साला प्रतिछाया समझाता है,दर्पण दिखाता है...ऐसे सौरजगत की विकट
अबूझ प्रश्नों से इनके दिन का आगाज हुआ।
(वह श्लोक क्या है जिसमें सूर्य उषा के पीछे-पीछे जाता है,)
इसके बाद एक महीना गुजर गया । अविनाश और शेखर से कुछ लिखा ही नहीं गया।एक
मर्तबा एक दो पन्ने की शुरुआत भी की जिसे दरोगा का भैंसा चर गया। दूसरी बार
की चेष्टा सोद्देश्य और दुनिया को बदलने के ख्वाहिशमंदों
(साहित्यकारों,कलाकारों ,इल्मदारों) के जूलूस में फँस कर खो गयी,ऐसे कि
‘वो भीड़ थी के खुद से बिछुड- के न मिल सका ,आया हूं सारे कुचाओ बाजार देख
कर...
और तीसरी बार लोकतंत्र जनवाद के ट्रैफिक जाम में(जो टालीगंज बेहाला के जाम
से ज्यादा कुख्यात है) फँस कर वह वापस घर को चला गया,फिर कभी उस रुट पर न
जाने के इरादे को परमानेंट मान कर। लिखने के बाद शेखर को ये भी याद नहीं के
अविनाश को इसका मजमून बता सके।वह पूरी बात को याद करने की कोशिश करता है।
वह शनिवार था,6 बजे उन्हें प्वायंट जीरो पर मिलना था,प्वायंट जीरो यानी शहर
के पार्क के कोने में बना टावर, जहाँ कॉलगर्ल और मेल सेक्स वर्कर अपना
प्रशाधन करते हैं,युद्ध में जाने के पहले की तैय्यारी करते हैं। रचना भी तो
एक युद्ध ही है,इसलिये ये जगह इन्हें भी माकूल लगती है।ये इनकी प्रिय जगह
है, यहाँ से सारा शहर दिखता है,एरियल व्यु। यहाँ तमाम लड़कियों के नाम करीना
,एश्वर्या,काजोल ,विपाशा, प्रियंका ही होते है,सभी की वय 18-23 के पार कभी
नहीं जाती,सभी दावा करती हैं मैं प्रोफेशनल नहीं हूं,न ही ऐसी-वैसी हूं ।
इस बाजार में वह नयी उतरी है –ऐसे दावों से उसका मान बढता है ,कमसकम वो ऐसा
ही सोचती हैं। ये लोग अकसरहा वहां जाते थे,बैठने-बतियाने कभी चुप रहने भी।
कभी सलाई माँगने से शुरु हुई बातचीत ,सिगरेट के लेने देने तक पहुँच कर लगभग
परिचय-दोस्ती के मुहाने तक पहुँच चुकी थी ।इनके सानिध्य में लड़कियाँ आतंकित
नहीं होती थी,किसी लागलपेट की गुंजाईश इस लिये नहीं थी कि ये जान चुकी थी
ये रेगुलर ग्राहक नहीं हैं,इसमें इनका चरित्रवान होना कम और मालदार न होना
ज्यादा कारगर था। वैसे ये अब खर्चीला मामला बिल्कुल नहीं रहा। लड़के भी यहाँ
लड़कियों की तरह सजते थे,स्टोर के शोरुम से टक्कर लेते। उन्हें लड़कियों से
भी कम्पीट करना पड़ता,ये बराबरी की लड़ाई नहीं होती। ये सभी एक दूसरे से
परिचित थे ,परिचित यानी,शाम के झुटपुटे के बाद मैदान के इस भाग के रेगुलर
कमर,फ्रीक्वेंट विजिटर। उस दिन अविनाश ने एश्वर्या से दियासलाई मांगी थी(
वैसे नये लोगों के लिये ये एक कोड भी है),बदले में एक सिगरेट उसकी ओर बढाई।
उस दिन बारिश का इमकान था इसलिये सारे लोग धीरे –धीरे एक ही जगह इकट्ठा हो
गये ,सर छिपाने की दूसरी जगह न थी।पूजा के तुरंत बाद यह मंदी का मौसम था।
काजोल ने पूछा आप लोग अक्सर यहाँ क्यों आते हैं?
क्या करें, शाम के बाद कहाँ जायें,फिर भीड़-भाड़ में हमारा दम घुटता
है,गाड़ियों के हॉर्न से तो यहाँ राजभवन और राइटर्स बिल्डींग भी सुरक्षित
नहीं है...
अच्छा बताइये राइटर्स बिल्डिंग क्यों कहते है? मैं कई बार सोचती हूं किसी
से पूछूँ ,पर मजाक उड़ने के डर से नहीं पूछा..
फिर आज भला क्यों चुप्पी तोड़ी?
नहीं आप लोग भी तो राइटर टाईप हैं पढे लिखे हैं, शायद जानते हों?
हम लोग जैसे राईटर से उस बिल्डिंग का कोई मतलब नहीं है,हम लोग लेखक वाले
राइटर है,यानी बेकार,वहाँ कलमगीरी करने वाले बाबूओं को राईटर कहतेहै,वो काम
करते हैं, किरानी समझिये -पगार पाते हैं-सैलरी। शायद इससे ये नाम पड़ा हो,
वैसे मैंने भी कभी इस पर ध्यान से नहीं सोचा...
फिर आप लोग यहाँ करते क्या हैं?
शेखर ने बातचीत का रुख मोड़ने को कहा’तुमने भी सुना होगा यहां शाम के बाद से
ही एक आदमी गाना गाता है पक्का राग,अंधेरे में उसे छिप कर सुनना बड़ा अच्छा
लगता है,केवल ध्वनि, जैसे शून्य से आवाज आती है...
विपाशा हँस पड़ी उस पारस बूढे की बात कर रहे हो? अरे वो कोई गाना वाना नहीं
गाता,वो तो गले में किसी तकलीफ की वजह से डॉक्टरी सलाह पर यहाँ आकर
चिल्लाता है।
इधर कभी नहीं आयेगा क्योंकि उसे देखते ही हम उस पर टूट पड़ेगें और सिगरेट की
पूरी डिब्बी लूट लेगें।उसे कभी भी रास्ता छोड़ कर घास पर चलते नहीं देखा
होगा,वह रास्ता नहीं छोड़ता है वहां थोड़ी रौशनी होती है ,वो थोड़ा सुरक्षित
महसूस करता है।
शेखर अविनाश की तरफ देखने लगा जिसे हम सालों से शास्त्रियसंगीत का आलाप
समझते हैं वह डॉक्टरी सलाह पर चिल्लाना भर है? ये कैसे हो सकता है? वहाँ
उपस्थित 2-4 लोगों ने भी इसकी ताईद की तो कहने को कुछ बचा नहीं-अपने को
जानकार समझने वालों के लिये यह एक सदमे की तरह था।
उसका नाम पारसंगीत है-पारससंगीत से घिस कर बना शब्द।
विपाशा कहने लगी वो बचपन में इसी रेलवे लाईन के किनारे वाली झुग्गी में
रहती थी।बल्कि प्लेटफार्म के नीचे बंकर नुमा स्पेस में। 6 साल की उम्र तक
वो यहीं थी फिर सिलीगुड़ी चली गयी थी,अब 19 साल बाद लौटी है। मैं अब भी वहाँ
खड़ी हों कर उस जगह को निहारती हूँ ,मेरे बचपन को ढूंढती हूं ,मै कालीधन
स्कूल में पढती थी। आप को पता है मेरे एक चाचा सियालदह से बजबज रेल में
जाते तो घर के आँगन से हम फेंककर उनका टिफिन बॉक्स गार्ड के बाजू डाल देते
थे। तब यहां गाड़ी रुकती नहीं थी। मुझे बार बार यही दृश्य याद आता है और कुछ
नहीं...मेरा सारा बचपन एक फ्रेम में बंद है।
शेखर ने देखा कि जहाँ वह घर बता रही है वहाँ से रेलवे लाईन 40 फिट दूर
है,ये कैसे सम्भव है तुम अगर टिफिन बॉक्स को चालिस फिट फेंक सकती हो तो
कॉमंवेल्थ गेम क्यों नहीं गयी? भारत को एक मेडल मिला जाता। सारे लोगों की
नजरें बदल गयी,झूठ पकड़ा गया,हिकारत सबके चेहरे पर अँक गयी
मैं सही कह रही हूं मेरे चाचा जीवित होते तो मैं प्रमाण दे सकती थी ।फिर
उसने मुँह झील की रौशनी की तरफ फेर लिया। बारिश के छींटों से बचने के लिये
ये लोग धीरे धीरे सीढियों से उपर की तरफ चढते जा रहे थे,करीब 20 फ़िट उंचे
बरामदे नुमा स्पेस में ये पहुँचे। यहाँ से रेलवे लाईन और वो जगह साफ दिखती
थी। सारे लोगों ने अंदाजा लगाया और जांचने की जद से कंकर झील के पानी में
फेंकने लगे,कोई कोई रेलवे लाइन की तरफ भी। किसी का कंकर वहाँ तक नहीं
पहुँचा ।आखिरकार ये तय हो गया कि विपाशा झूठ बोल रही है या फिर स्मृतिभ्रम।
कई बार जिस बात को हम हुआ चाहते हैं या जिसके होने से हमे तस्कीन मिलती
है,हम उसकी कल्पना कर लेते हैं और फिर समयांतर में ये कल्पना के रेशे इस
कदर पक्की लकीर बन जाते हैं कि हमे लगता है ऐसा सचमुच हुआ होगा।सारे लोग
विपाशा की खिल्ली उड़ाने लगे, तुम ये लेदर इंडस्ट्री छोड़ो अगली बार
कॉमनवेल्थ गेम में जाना,अचानक सीढियों से उतरता एक आदमी दिखा जो शायद पहले
से ही यहां छिपा बैठा हो और इनकी बातें सुन रहा हो,
अरे ये तो पारस खुसट है!
वही हूँ ,तुम्हारे मुँह लग कर क्या फायदा? लेकिन विपाशा सच बोल रही है,पहले
रेलवे लाईन झुग्गियों के पास थी,करीब 15 साल पहले रेलवे लाईन को 10 मीटर
दूर सरकाया गया,मुझे याद है...
अपनी बात को सच होते देख विपाशा दौड़ कर पारस से लिपट गयी और फिर दहाड़ मार
कर रोने लगी जैसे उसे कोई खोया हुआ खजाना मिल गया हो। जबकि सबसे ज्यादा कहा
सुनी इन्हीं दोनों की थी,खुसट विपाशा के आतंक से ही उधर का रुख नहीं करता
था।
अरे चुप हो जा पगली, पारस ने कहा और सिगरेट की पूरी डिब्बी लड़कियों के
हवाले कर दी। ये सारे लोग टावर के उपरी छोर पर आ गये ,यहाँ 40 फुट की उँचाई
से सारा शहर दिखता था। माचिस की डिब्बियों से रेल के कमरे,धीमी चाल में
रेंगती सदर्न एवेन्यु की मोटरें,झील के पानी में नहाती रंगीन झिल मिल
रौशनी,दूसरी तरफ दूर से आती एक तेज रौशनी जो बीच में कोई रुकावट न पाकर
इनके चेहरे पर स्पॉट लाईट सी चमकती थी।
और सुनो पारस बोला मैंने गाना सीखा है,राहुल देव मेरा सहपाठी भी था,उसकी
मौत के बाद मैंने गाना छोड़ दिया। डॉक्टर वाली बात फरमाईशी मनचलियों से बचने
के लिये मैंने ही उड़ायी थी। और वह लेक गार्डेन जाने वाली अंधेरी सुरंग में
गुम हो गया,अपने पीछे सुरलहरी की एक लकीर खींचते हुये।
मौसम बदलने का सर्दी आने का इमकान अविनाश को सबसे पहले यहीं से होता है,जिस
दिन उसे लगा कि कल से स्वेटर पहन कर आना चाहिये और शर्ट का उपर वाला बटन
टटोला,बन्द करने को, वो जान जाता था कि सर्दियां पहुँच रही हैं।कवि ने कहा
है- ‘फूल खिलें ,न खिलें ,आज वसंत है...
सिउँली और रात की रानी की खुशबू का राज था,उपर नक्षत्रों का आग़ाज था,जैसे
पारस इनकी गुप्तचरी कर रहा था,एक खरगोश टावर की छत से पारस की गुप्तचरी में
था वह कूदा और लाल आंखो के स्थायी डोरे उन सबकी स्मृति में आँक कर भाग चला।
अविनाश और शेखर भी सीढियाँ उतरने लगे ,अविनाश ने टोका तेरी क्विड प्रो क्वो
का क्या हुआ? शेखर ने कहा अभी फॉरवर्ड करता हूँ घन्टी बजी .स्क्रीन चमकी
जैसे बिजली कड़क गयी हो दूर कहीं ,आवाज के पहले की चौंध।
मेसेज था ‘हर रात बिस्तर पर जाते वक्त कोई गारंटी नहीं होती के कल सुबह
जिंदा उठेगें,फिर भी हम कल की योजना बनाते है,सपने देखते हैं,इसे कहते
हैं—उम्मीद।
- विजय शर्मा
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