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सूत्र
उसकी आंखों में एक अजब सी ऐंठन और तकलीफ थी। वह सड़क किनारे गिरी पड़ी थी
और उठ नहीं पा रही थी। एक लम्हे को मैं हिचका। एक घायल स्त्री को उस तरह
नहीं उठाया जा सकता जिस तरह किसी पुरुष को उठाया जा सकता है। लेकिन उसकी
तकलीफ की तीव्रता में यह सोचने का वक़्त नही था। मैंने कंधों के पास से उसे
उठाने की कोशिश की। समझ में आ गया, यह कोई स्त्री नहीं है, बस दर्द से
ऐंठती एक देह है जिसे तत्काल सहारा चाहिए। उसने लगभग मुझ पर झूलते हुए पूरा
ज़ोर लगाया और उठ कर खड़ी हो गई। लेकिन यह जिस्म की ताकत से ज़्यादा मजबूरी
थी जिसमें वह फिर बैठने को हुई। मैंने सड़क से लगी पुलिया पर उसे बिठाया।
‘बच्चे, मेरी बेटियां? वह पूछ रही थी। ‘हां-हां, सब ठीक हैं, किसी को चोट
नहीं आई है’, यह बात मैंने तीनों बच्चियों को धूल झाड़ते, किताबें समेटते
और सड़क पर गिरी पानी की बोतलें उठाते हुए देखकर कहा था। बेटियां भी तब तक
मां को घेर चुकी थीं- मम्मी-मम्मी. उनमें से सबसे छोटी वाली रो रही थी। एक
भलामानस उनकी स्कूटी किनारे लगा गया था।
‘तीन-तीन बच्चियों को इतने सारे सामान सहित स्कूटी पर बैठाने की क्या जरूरत
थी?’, यह बेतुका का सवाल पूछ कर मैं अपने-आप में कुछ झेंप गया। यह सुबह का
समय था और मैं टहल कर लौट रहा था। बीच रास्ते में यह स्कूटी वाली महिला
सबके साथ लदी-फदी दिखी, बड़े बेफिक्र भरोसे के साथ उसने एक टेंपो वाले को
रास्ता देने की कोशिश की और अचानक सड़क के किनारे की ढलान को ठीक से समझ न
पाने की वजह से गिर पड़ी। शुक्र है, बच्चों को चोट नहीं आई।
मगर उसे आई थी। वह रो रही थी। कुछ बदहवास भी थी। मैंने फिर टोका, आपको
अस्पताल ले चलते हैं। किसी ऑटो वाले को बुला लेते हैं।‘ नहीं-नहीं, उसने
तेज़ी से सिर हिलाया। इशारा किया कि घर पास में ही है। मैंने कुछ राहत की
सांस ली। बेटियों से पूछा। तब तक बड़ी बेटी जाकर पापा को बुला लाई थी।
पापा नाम का यह शख्स बिखरे खिचड़ी बाल लिए, आंखें मलता हुआ आया। साफ था कि
वह सोया हुआ था। कुछ नींद में पड़ा खलल हो या सुबह-सुबह झेलनी पड़ी यह
परेशानी, वह आते ही पत्नी पर बरस पड़ा- ‘कितनी बार तेरे को कहा, मुझे उठा
लिया कर या स्कूटी संभाल कर चला। लगी न चोट। सबको मुसीबत में डालती है।‘
फिर वह अपनी बेटियों पर बरस पड़ा- तुम लोग खड़ी क्या देख रही हो। चलो सब
घर। अब स्कूल नहीं जाना है।
चोट और दर्द से कराहती यह पत्नी लेकिन अचानक तड़फ सी उठी- स्कूल क्यों नहीं
जाएंगी? आप नहीं छोड़ोगे तो मैं छोड़ दूंगी।’ वह ठीक से बैठने की हालत में
नहीं थी, लेकिन बेटियों को स्कूल पहुंचाने के जज़्बे में कोई कमी नहीं थी।
उसके पति ने दांत पीसे- ‘सुबह-सुबह तमाशा मत कर। एक दिन नहीं जाएंगी तो
क्या हो जाएगा?’
तब तक रुआंसी सी बड़ी बेटी की आवाज़ निकली- एग्ज़ाम है आज से।
पापा नाम के उस शख़्स ने चिड़चिड़ाते हुए अपनी बेटियों को देखा, फिर कुछ
अनचाहे ढंग से वहां खड़े एक अनजान शख़्स को- यानी मुझे, और फिर अपनी पत्नी
की ओर पलट कर बोला- तो जा रहा हूं छोड़ने इन्हें। तू दिखवा लियो डॉक्टर को।
महिला ने सिर हिला दिया। थोड़ी देर में उस शख़्स ने कार निकाली- तीनों
बच्चियों को बैठाया और धूल-धुआं उड़ाता चला गया।
मैं असमंजस में था। मैंने कहा- ‘आपको चोट लगी है। मैं ले चलूं....डॉक्टर के
पास?’
‘नहीं भाई साहब आप जाओ, थैंक्यू।‘ इस थैंक्यू में कुछ मिनट पहले उसको सहारा
दिए जाने का आभार कम, जल्दी से मुझसे पीछा छुड़ाने की हड़बड़ी ज़्यादा थी।
मैंने भी सिर हिलाया और तेज़ी से निकल गया। बाद में वह महिला डॉक्टर के पास
गई या नहीं, मुझे पता नहीं चला। हालांकि मैं रोज़ उसके घर के सामने से
टहलता हुआ निकलता था। उसकी स्कूटी भी खड़ी दिखाई पड़ती थी। एकाध बार इच्छा
हुई कि जाकर उसका हाल-चाल लूं। लेकिन हर बार उसके खिचड़ी बालों वाले पति की
चिड़चिड़ाई आंखें याद आ जातीं और ख़ुद उस महिला का टालता हुआ थैंक्यू।
इसके बाद एकाध बार सड़क पर स्कूटी से जाती उस महिला से सामना भी हुआ। वह
धीरे-धीरे फिर से बच्चों को स्कूल छोड़ने लगी थी। दो-तीन बार तेज़ी से मेरे
सामने से पार हुई, एक बार स्कूटी पर किक मारती भी नज़र आई, लेकिन उसकी
आंखों में परिचय का कोई भाव नहीं दिखा। वह बस अनजान की तरह बढ़ जाया करती।
बेशक, बच्चों की आंखों में मेरे प्रति परिचय का भाव लगातार दिखता।
लेकिन एक दिन वह महिला अचानक एक दुकान में दिखी- अकेली नहीं अपनी बच्चियों
के साथ भी। वहां भी मुझे देखकर वह तेज़ी से दूसरी ओर देखने लगी। लेकिन उसकी
बड़ी बेटी ने मुझे पहचाना। कुछ सकुचाए हुए ढंग से नमस्ते की। फिर उसने मां
की ओर मुडकर कुछ फुसफुसाते हुए कहा। मैं समझ गया, वह बता रही थी कि उसी दिन
वाले अंकल हैं। मां तब भी मेरी ओर नहीं मुड़ी। लेकिन बाकी दोनों बेटियां
मुझे देखने लगी थीं। मैंने मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया। वे मुस्कुराने लगीं।
मैंने पूछ लिया, ‘किस क्लास में हो तुम लोग?’ ब़ड़ी वाली छठी में थी, दूसरी
वाली चौथी में और सबसे छोटी वाली पहली में।‘
‘मम्मी तुम लोगों का बहुत खयाल रखती है न? रोज पहुंचाती है तुम लोगों को।‘
मैंने जान-बूझ कर यह वाक्य कहा- पता नहीं, उस महिला का संकोच तोड़ने के लिए
या फिर इस उम्मीद में कि इसके बाद वह मुझसे बात करेगी।
इस बार वह सामान ख़रीदती हुई ही मुस्कुराई। जाहिर है, उसका ध्यान बच्चों के
साथ मेरी बातचीत पर था। बड़ी बेटी ने सिर हिलाया- ‘मां ही सब करती है।‘
दूसरी वाली तपाक से बोल पड़ी- ‘हमेशा पढ़ने के लिए बोलती है, खेलने नहीं
देती।‘ बेटी का यह शिकायती लहजा सुन मैं हंस पड़ा और मां झेंप गईं। ‘बहुत
शैतान हैं सब’, स्फुट ढंग से बोल पाई। मैंने कहा, ‘नहीं, बच्चियों को ख़ूब
पढ़ाइए।‘
इस बातचीत के बाद बस हमारे रिश्तों में इतनी भर क़रीबी आई कि हम सब
एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते। मैं टहलता हुआ मिलता और वे तीनों- यानी
चारों- स्कूटी पर मिलते। एकाध दिन मुझे निकलने में देर हो जाती तो मां को
वापस लौट कर स्कूटी लगाता मैं देखता। इन तमाम दिनों में एक बार भी बच्चों
के पापा उन्हें छोडते नज़र नहीं आए। हो सकता है, वह काम से देर रात गए
लौटता हो और सुबह सोया रहता हो- मैंने सोचा।
एक दिन जब मैं कुछ पहले टहलने निकला तो तीनों बच्चियां अपने बैग के साथ
खड़ी थीं और मां की स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी। मुझे लगा, मुझे रुक
जाना चाहिए। मैं सोच ही रहा था कि बड़ी वाली बेटी तेज़ी से मेरे पास आई-
‘अंकल कल आप टीवी पर थे न?’ मैं हंसने लगा। इत्तिफाक से कल शाम एक टीवी
चैनल वाले ने बुलाया था और मैं शिक्षा के सवाल पर विषेषज्ञ बना बैठा हुआ
था। ‘देखा था तुमने?’ उसने सिर हिलाया और कुछ कहना चाह रही थी कि स्कूटी
स्टार्ट हो गई। बच्चिय़ां जल्दी-जल्दी बैठने लगीं- इस बार मां ने मुस्कुरा
कर सिर हिलाया और नमस्ते की।
धीरे-धीरे हम लोग परिचित से हो चले थे, कुछ सहज भी। बेशक, एक-दूसरे के नाम
और काम से बेखबर। हफ़्ते में एकाध बार वे मुझे दुकानों में मिल भी जाते।
मैंने ध्यान दिया कि शनिवार को वह महिला अक्सर तीनों बच्चों के साथ दुकान
पहुंचती है। ऐसी ही एक मुलाकात में मैंने पूछ लिया, ‘आपके पति क्या करते
हैं।‘
‘जी, बिजनेस है अपना’, कुछ सहमे हुए लहजे में उस महिला ने कहा।
‘मैं प्रोफ़ेसर हूं- कॉलेज में पढ़ाता हूं।‘ मैंने अपने बारे में बिना पूछे
बताया।
बड़ी बेटी की आंखें फैल गईं- ‘कॉलेज में?’
‘मम्मी बोलती है, हम तीनों कॉलेज में पढ़ेंगे।‘ यह सबसे छोटी बच्ची थी जो
अचानक बोल पड़ी थी।
मैं हंसने लगा- हां, तुम सब कॉलेज में पढ़ोगी।
इस बार उस महिला ने जैसे कृतज्ञ निगाहों से मुझे देखा।
उस रात मेरे भीतर एक अजब सी कसक रही। कुछ लोगों के लिए कॉलेज में पढ़ना भी
एक सपना हो सकता है। पता नहीं, कैसा है यह परिवार। महिला तो पढ़ी-लिखी लगती
है।
कुछ दिन बाद फिर मुझे वे बच्चे दुकान में दिखे। मैंने अगल-बगल देखा, मां
नज़र नहीं आई। बड़ी वाली बेटी ने मुझे देखकर नमस्ते की। पीछे-पीछे दोनों
बच्चियों ने भी। मैंने अचानक पूछा- ‘अरे, मम्मी कहां है तुम लोगों की?’
‘आज नहीं आई है, तबीयत ख़राब है’- बड़ी बेटी ने जल्दी से कहा।
मैं सिर हिला रहा था तब तक छोटी बेटी की बात सुनकर चिहुंक पड़ा- ‘पापा ने
मारा है- बहुत ज़ोर से, चल नहीं पा रही।‘
‘चुप्प,’ दोनों बहनें अचानक एक साथ बोलीं- बिल्कुल सहम कर अगल-बगल देखती
हुई। तब तक बड़ी बहन मुझे देखकर रो पड़ी। मैंने उसको चुप कराने की कोशिश
की, लेकिन उसने तेज़ी से दोनों बहनों का हाथ पकड़ा और लगभग दौड़ती हुई
दुकान से निकल गई।
मैं बिल्कुल स्तब्ध था। सुनता था, घर में महिलाएं पिटती हैं, कामवालियों के
अपने पतियों से झगड़े और मारपीट की ख़बर भी पता चलती थी, लेकिन तीन-तीन
स्कूल जाती बच्चियों के परिवार में स्कूटी चलाने वाली एक महिला की पिटाई-
यह मेरी कल्पना से बाहर था।
अगले दो-तीन दिन मैं उनके घर के पास अपनी चाल बहुत मद्धिम कर लेता। बार-बार
इच्छा होती कि भीतर जाकर हाल-चाल पूछ लूं। एक बार मन हुआ कि जाकर उसके पति
से मिलूं और उसे डांट लगाऊं। लेकिन क्या पता, इस तरह का दख़ल उस महिला की
मुसीबत कम करता या बढ़ा देता।
करीब हफ़्ते भर बाद फिर मुझे स्कूटी दिखी। इस बार फिर महिला ने मुझे देखा
लेकिन पुरानी जान-पहचान का कोई चिह्न चेहरे पर नहीं था। शायद बेटियों ने
बता दिया था कि उसकी पिटाई की ख़बर मुझे है। एक पिटी हुई औरत के तौर पर
अपना कुचला हुआ अभिमान लिए वह मुझसे मिलना नहीं चाहती थी। एक दिन वह दुकान
में भी दिखी, लेकिन मैं टोक पाऊं, इसके पहले तेज़ी से निकल गई। साफ तौर पर
वह मेरे सामने पड़ना नहीं चाहती थी।
इस बीच सड़क पर उसका पति भी दो-एक बार मुझे दिखा। मुझे देखकर उसके चेहरे पर
एक तनाव सा आ जाता। मुझे लगने लगा था कि इसे मालूम है कि मैं इसकी बेटियों
से बात करता हूं। मैंने एक बार अपनी ओर से अभिवादन के लिए सिर हिलाया। उसने
कुछ हड़ब़ड़ाए से अंदाज़ में अभिवादन का जवाब दिया और फिर निकल गया। क्या
उसे मालूम है कि मुझे यह बात भी पता है कि वह अपनी पत्नी को पीटता है? मुझे
कोई अंदाज़ा नहीं था।
लेकिन मैंने तय किया था कि इस आदमी से बातचीत करूंगा। एक दिन इत्तिफाक से
वह मुझे सैलून में मिल गया। रविवार का दिन था और हम दोनों को अपनी बारी का
इंतज़ार करना था। मैंने उसे देखकर फिर सिर हिलाया। मैंने टोक दिया- क्या
करते हैं आप? उसने बताया कि उसका कपड़ों का कारोबार है। वह शर्ट बनवाता है
और दुकानों तक पहुंचाता है। ‘सिर्फ़ शर्ट? पैंट नहीं?’ मैंने मुस्कुराते
हुए पूछा। उसने कहा कि वह शुरू से कमीज के ही धंधे में है। कई लोग ऐसा करते
हैं। बस एक ही काम करते हैं। यह आसान है। मैंने फिर बच्चियों की पढ़ाई के
बारे में पूछा। अचानक उसका लहजा कुछ रूखा हो गया- ‘पढ़ रही हैं सब, पता
नहीं क्या करेंगी।‘
मुझे हैरानी हुई। बेटी पढ़ाओ बेटी बढ़ाओ के दौर में भी एक बाप ऐसा है जिसे
अपनी बेटियों की पढ़ाई पसंद नहीं। या बहुत सारे पिता ऐसे ही हैं जो बेटियों
का पढ़ना नापसंद करते हों? मेरी और बात करने की इच्छा नहीं हुई। मुझे खयाल
आया कि मैं ऐसे आदमी के साथ बात कर रहा हूं जो अपनी पत्नी को पीटता है। मैं
चुप रहा, वह भी चुप रहा।
लेकिन वह घर और फाटक मेरे लिए जैसे अपने घर और फाटक में बदलते जा रहे थे।
यह अलग बात है कि मैं आज तक इस घर में दाखिल नहीं हुआ था, लेकिन वहां से
रोज़ गुज़रते हुए मुझे ज़रूर उन बच्चों का ख़याल आता। वे स्कूटी से जाते
दिखते तो तसल्ली सी होती- कि जैसे अपने ही बच्चे पढ़ाई कर रहे हों। वे भी
मुझे देखकर जैसे खिल उठते। अगर वे नज़र नहीं आते तो एक बेचैनी सी लगती जो
अगले दिन उनके दुबारा दिखने तक बनी रहती। उनको देखकर चैन आ जाता।
एक दिन फिर हमारी मुलाकात दुकान में हुई। इस बार बेटी ने मां को मेरी ओर
दिखाकर इशारा किया। मां कुछ हिचकती हुई मेरे पास आई। उसने कुछ हिम्मत जुटा
कर कहा- नमस्ते भाई साहब। ‘नमस्ते-नमस्ते।‘- मैं अचानक ख़ुश हो गया था।
‘आपसे कुछ बात करनी है’, उसने नज़र झुकाए हुए ही कहा। ‘जी बताएं’, मैंने
कहा। उसने बाहर चलने का इशारा किया- वह दुकान में बात करना नहीं चाहती थी।
बाहर उसकी स्कूटी लगी हुई थी। वहीं वह खड़ी हो गई। अगल-बगल देखने के बाद
उसने धीरे से पूछा- ‘भाई साहब, कुछ काम मिल सकता है?’ मुझे खयाल आया कि इस
परिवार के पास इस स्कूटी के अलावा एक कार भी है। फिर अचानक यह संकट क्य़ों?
लेकिन मैंने यह नहीं पूछा। बस जानना चाहा- वह किस तरह का काम कर सकती है।
‘जिससे पांच-छह हजार रुपये मिल जाएं।‘ बोलते-बोलते उसकी आंख डबडबा गई। उसने
खुद को संभाला। बताया कि वह दसवीं में पढ़ रही थी कि शादी हो गई। शादी के
समय सबने कहा था कि आगे पढ़ने देंगे। लेकिन पति ने कहा- इसकी ज़रूरत क्या
है। फिर ब़डी वाली बेटी हो गई। इसके बाद उसे भी खयाल नहीं आया। कई साल बीत
गए। लेकिन वह अखबार रोज़ पढ़ती है, टीवी भी देखती है, उसी ने मुझे टीवी पर
देखा था और अपनी बेटियों को बताया था, वह बहुत सारे काम कर सकती है,
बेटियों को स्कूल छोड़ने के लिए ही उसने स्कूटी सीखी। वह बेटियों को पढ़ाना
चाहती है- आगे बढ़ाना चाहती है। बेटियां बहुत तेज हैं उसकी।
इसके बाद उसने बताया- पति का बिजनेस मंदा पड़ गया है। तरह-तरह के नए नियम आ
गए हैं। एक दुकान ली थी जो मंदी में बंद हो गई। घाटा भी हो रहा है। अब
बच्चों की फ़ीस भरना मुश्किल है। पति कहता है, एकाध साल घर में बैठ जाएंगी
तो कोई फ़र्क नहीं प़डेगा। लेकिन वह किसी भी सूरत में पढ़ाई नहीं
छुड़वाएगी।
मैं सब चुपचाप सुनता रहा। यह पिटती हुई औरत खुद खड़े होने की कोशिश में है।
लेकिन मैं इसको क्या काम बताऊं? कहां इसकी मदद करूं? मगर मैंने मदद का
भरोसा दिलाया और उसे अपना फोन नंबर दे दिया। कहा कि वह ज़रूर संपर्क में
रहे।
वह अचानक खुश हो गई। जैसे मेरा फोन नंबर उस डूबते के लिए वह तिनका हो जो
उसे उबार लेगा। उसकी आंखों में कुछ कृतज्ञता भी थी कुछ आत्मीयता का एहसास
भी।
मैं समझ गया था कि वह मुझे फोन करेगी। अगले तीन-चार दिन हर सुबह-शाम मुझे
खयाल आता। लेकिन फोन नहीं आया। रोज़ टहलता हुआ मैं उसके घर के सामने अपनी
चाल मद्धिम कर लेता। स्कूटी बाहर ख़डी मिलती, लेकिन कोई नज़र नहीं आता।
मुझे डर सा लगने लगा। कहीं वाकई बच्चियों की पढ़ाई छूट न गई हो। इसके बाद
एक दिन मुझे वहां ताला लटका मिला। मुझे लगा, परिवार शायद कहीं बाहर गया हो,
लौट आएगा। लेकिन न स्कूटी दिख रही थी न कार। मेरा मन अजीब-अजीब रहने लगा।
एकाध महीने गुज़र गए। मुझे रोज़ लटका हुआ ताला ही मिलता।
दो-तीन महीने पार हो गए। मेरे पास कोई जरिया नहीं था कि उनसे संपर्क कर
सकूं। बच्चियों के नाम तक नहीं मालूम थे। किस स्कूल में पढ़ती हैं- यह भी
पता नहीं था। कई दिन मेरा मन अशांत रहा। एक दिन अचानक मैंने देखा कि वह घर
खुला हुआ है। मैंने तत्काल फ़ैसला किया- गेट पर पहुंच कर घंटी बजा दी। मुझे
उम्मीद थी कि कोई बच्ची निकलेगी या उनका पिता निकलेगा। लेकिन जो शख़्स
निकला, वह एक अनजान आदमी था। उसने पूछा, क्या काम है। मैंने कहा कि यहां जो
लोग रहते थे, उनसे मिलना है। उसने बताय़ा कि उसने यह घर ख़रीद लिया है और
वही यहां रहता है। मेरा दिल डूब गया। फिर मैंने पूछा कि क्या वह मुझे पिछले
मकान मालिक का पता दे सकता है? यानी उस शख़्स का, जिससे उसने घर ख़रीदा था?
उसने सिर हिलाया और आकर दिल्ली के करोल बाग का एक पता दिया। साथ में फोन
नंबर भी।
मैंने नंबर मिलाया। उधर से एक शख़्स की आवाज़ गूंजी- हां जी बोलो। मैंने
कहा कि जी, मैं इंदिरापुरम से बोल रहा हूं- इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद से।
उसने फिर कहा, जी बोलो। मैंने कहा- आप वही हैं न जिनका कपड़ों का- यानी
शर्ट्स का कारोबार है?
‘नहीं जी, वो हमारे किरायेदार थे- सुनील शर्मा जी। कई महीने पहले छोडकर चले
गए।‘ कहां गए, यह उन्हें नहीं मालूम था। कहां उनकी दुकान है, यह भी नहीं
मालूम था।
मैं फिर हताश था। बस मेरी जानकारी में एक नाम आ जुड़ा था- सुनील शर्मा।
लेकिन यह इतना आम नाम था कि इससे कहीं भी खोजना बेकार था। लेकिन मैंने सोचा
था कि खोज जारी रखूंगा।
लेकिन पूरा साल बीत गया। धीरे-धीरे खोज का मेरा उत्साह भी ठंडा पड़ता चला
गया। इसके बाद दो-तीन-चार और छह साल बीत गए। वे लोग मुझे कभी-कभी याद आया
करते। लेकिन मुझे पता नहीं था कि वह परिवार मुझे याद भी करता है या नहीं।
ज़िंदगी फिसलती जाती है, पता नहीं चलता। 12 साल बीत गए। पूरा शहर, पूरा
ज़माना बदल चुका था। मैं भी उन सबको भूल चुका था। मेरा टहलना बदस्तूर जारी
था। बस कभी-कभी स्कूटी पर कोई महिला कहीं दिख जाती तो एक लम्हे के लिए उस
परिवार का ख़याल आ जाता। लेकिन इसके अलावा मेरी मसरूफ़ियतें बहुत थीं।
यूनिवर्सिटी में सेमेस्टर सिस्टम लागू हो जाने के बाद काम बढ़ गया था। इसके
अलावा अलग-अलग जगह सेमिनार अटेंड करना, टीवी चैनलों पर जाना- यह सब मुझसे
सारी ऊर्जा छीन लेते। धीरे-धीरे मेरी हैसियत भी बड़ी हो रही थी। मुझे
कॉलेजों में मुख्य अतिथि बनाया जाने लगा था।
ऐसे ही एक कार्यक्रम में अचानक एक लड़की मुझसे मिली- नमस्ते अंकल..सर।
मैंने सिर झटका- यस बेटा। ‘मेरा नाम निष्ठा है।‘ मैं सुन रहा था। ‘‘आप
इंदिरापुरम में रहते हैं न?’ ‘हां, तुम भी वहीं रहती हो?’
‘अब नहीं। हम रहते थे वहां। आप सुबह-सुबह टहलते थे। एक बार हमारी स्कूटी
गिर गई थी तो आपने मम्मी को उठाया था।‘
मुझे जैसे करेंट लगा। लगा कि कोई जादू हो गया है। बरसों बाद अचानक एक खोया
हुआ सामान मिल गया है। मैं बिल्कुल आह्लदित हो उठा- ‘हां तुम तीन बहनें
थीं- तुम्हारी दो छोटी बहनें?’
वह हंसने लगी- ‘बड़ी बहनें। मैं सबसे छोटी थी। तीसरी वाली।’ मैं अवाक था-
इतना समय बीत गया। ‘तुमने मुझे कैसे पहचान लिया?’
‘बस, पहचान लिया। आप टीवी पर आते थे। आपने मम्मी को नंबर दिया था। हम लोग
सोचते थे, आपको फोन करेंगे।‘
‘अब कहां हो तुम? कहां हैं तुम्हारी मम्मी?’
वह कुछ संजीदा हो गई। हमारे अगल-बगल लोग इकट्ठा थे- ध्यान से सुन रहे थे।
मैंने कहा, तुम रुको, मैं इन सबसे विदा लेकर बात करता हूं। उसने कुछ देर
प्रतीक्षा की। मैंने सबसे हाथ मिलाया, विदा ली और देखा, निष्ठा इंतज़ार कर
रही थी।
‘कहीं बैठते हैं।‘ मैंने कहा। आप हमारे घर चलेंगे, उसने पूछा था।
‘घर?’ मैं एक पल के लिए हिचका। जिस घर को कई बरस पहले अपना सा मानने लगा
था, वहां दाखिल तक नहीं हो पाया, लेकिन वही घर अब आवाज़ दे रहा है। मैंने
पूछा, पास में ही है घर?’ उसने बताया, बस थोडा सा आगे है, कीर्तिनगर में।
मैंने अपनी कार निकाली। वह कुछ संकोच के साथ बैठ गई। रास्ते में उसने
बताया, दोनों बड़ी बहनें जॉब में हैं। वह कॉलेज के आखिरी साल में है।
कंपीटीशन देने का इरादा है। ‘अब मम्मी को हमने नौकरी करने से रोक दिया है।‘
मैंने कहा, अच्छा वह नौकरी करती थीं? और पापा कैसे हैं? अचानक निष्ठा चुप
हो गई। फिर धीरे से उसने कहा- पापा के साथ हम नहीं रहते। मैं चुप सा हो
गया। मेरी समझ में नहीं आया कि अब आगे क्या कहूं।
निष्ठा ने ही बात आगे बढ़ाई- ‘मुझे याद है, मैंने आपको बताया था एक बार कि
पापा ने मम्मी को बहुत मारा है। मुझे उस दिन घर में ख़ूब मार पड़ी थी।
लेकिन मां को पापा हमेशा मारते थे। हमारी पढ़ाई छुडा देना चाहते थे। ख़ुद
पीने पर पैसा ख़र्च करते थे और कहते थे- हमें पढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं।
एक दिन अचानक मां बोली, बच्चियां तो पढ़ेंगी। तो उन्होंने बाल पकड़ कर
मम्मी को घर से निकाल दिया। आस-पड़ोस वाले देख रहे थे, किसी ने कुछ नहीं
कहा। हम सब रोते-रोते मम्मी के पीछे-पीछे बाहर आ गए।‘
‘फिर?’ मुझे तो इन सबकी कोई खबर ही नहीं थी। एक परिवार किन-किन हालात से
गुजरता है, कैसे बिखरता, टूटता और संभलता है- यह सब जैसे अब भी मेरे लिए
अजूबा था। ‘मां कुछ दिन के लिए हम सबको लेकर मेऱठ चली गईं- मामा लोगों के
पास। वहां सबने कहा, यहीं रुक जाओ। पापा ने भी वो घर छोड दिया। फिर मां कुछ
पैसे और अपने गहने लेकर लौटीं- हम लोग इस इलाके में आ गए। एक परिचित ने एक
फर्नीचर दुकान में मां को नौकरी दिला दी। हम लोग पढ़ते रहे।‘
वह जितनी आसानी से कह रही थी, उतनी आसानी से मैं सुन नहीं पा रहा था। जैसे
बार-बार कोई गोला हलक में अटक जा रहा हो। आखिर एक अनजान परिवार से ऐसी
हमदर्दी क्यों?
हम लोग एक तंग से कुछ बड़ी गली के भीतर एक मकान के सामने खड़े थे। उसने
किनारे गाड़ी रुकवाई और कहा कि ऊपर चलिए।
ऊपर पहुंच कर मेरे पांव ठिठक गए। एक बुज़ुर्ग महिला ने दरवाज़ा खोला था। वह
भी मुझे देखकर एक क्षण को ठिठकी। फिर उसकी आंखें हैरानी से पसर गईं- ‘आप?’
‘मेरे कॉलेज में आए थे, मैंने पहचान लिया। इनको भी सब याद है- मैंने कहा,
घर चलिए। ले आई इनको। मम्मी, अच्छी सी चाय पिलाओ हम लोगों को।‘ निष्ठा मुझे
बैठाते हुए बोल रही थी।
मम्मी- यानी उस महिला को भी- मेरे अप्रत्याशित आगमन के झटके से उबरने में
वक़्त लगा। वह धीरे से बुदबुदाई- पहले तो मैं पहचान ही नहीं पाई आपको।
अब वह मुस्कुरा रही थीं। उनकी धीमी आवाज़ के बावजूद यह साफ़ था कि वक़्त ने
उन्हें अजनबी लोगों से बात करने का आत्मविश्वास दिया है। ‘मेरी बेटियां
आपको याद किया करती थीं। टीवी में आने वाले अंकल!‘ वह हंसने लगी थी।
‘मैं भी आप लोगों के जाने के बाद परेशान रहा। रोज़ देखता था कि आप लोग शायद
लौट आएं।‘
‘आप अब भी टहलते हैं?’
‘हां, वह अभ्यास छूटा नहीं। शायद फिर कोई मिल जाए स्कूटी से गिरने वाला,
जिसको उठाऊं।‘
वह झेंप सी गईं- ‘हां, आपने उठाया था मुझे।‘
लेकिन मेरी शिकायत बाकी थी- ‘आपने फोन नंबर लिया था- याद है आपको? कहा था,
फोन करूंगी। लेकिन जाते हुए भी नहीं बताया।‘
अचानक उनके चेहरे पर उदासी का साया मंडरा गया- ‘हां, उन दिनों का सबकुछ याद
है। मेरे पति ने...फोन भी छीन लिया था मेरा। आपका नंबर बचा ही नहीं। आपके
घर का पता भी नहीं था।‘
मैं इंतज़ार करने लगा, वे कुछ कहेंगी। वे समझ गईं। निष्ठा भी समझ गई। उसने
कहा, तुम बात करो, मैं चाय बना लाती हूं।
उस महिला की आवाज़ बहुत मद्धिम थी- ‘मेरा जीवन उन दिनों बहुत मुश्किल था।
मैंने काफी कुछ झेला। मुझे हमेशा लगता था कि पढ़ी-लिखी होती तो ये दिन नहीं
देखने पड़ते। मैंने इसीलिए तय किया था कि अपनी बेटियों को ज़रूर पढ़ाऊंगी।
जब लगा कि इसमें मुश्किल होगी तो सब छोड़छाड़ कर निकल आई।‘
मैंने बहुत हिचकते हुए पूछा, ‘आपके पति?’
इस बार उन्होंने आंख में आंख डाल कर कहा- ‘मैंने उनको छोड़ दिया। वे यहां
आते हैं, बात कर लेती हूं, बेटियां मिल लेती हैं, लेकिन हम लोगों ने अपना
जीवन ख़ुद बनाया है। बहुत मुश्किल से। बहुत छोटी नौकरियां कीं, अपमान झेले,
गहना बेचा, लेकिन तय किया कि वापस नहीं जाना है। मेरी बेटियों ने भी झेला,
लेकिन इससे और मजबूत हो गईं सब।‘
निष्ठा चाय ले आई थी। इस बीच वह मोबाइल पर अपनी बहनों से बात कर रही थी।
उसने दोनों बहनों को बताया कि मैं आया हूं। उन्होंने कहा कि वह मुझे रोके
रखें, खाना खिलाकर भेजें, तब तक वे भी चली आएंगी। मैं हैरान था, प्रमुदित
भी- सबको मेरी याद है।
मां समझ गई थी। उसने कहा, ‘आपको पता नहीं है, आप इन बच्चों के लिए क्या
अहमियत रखते हैं। हमारे जीवन में बहुत कम चीज़ें थीं जो हमें सुरक्षा का
एहसास कराती थीं। इन बच्चियों को हमेशा याद रहा कि मां स्कूटी से गिरी तो
आपने कैसे उठाया था। वे आपको देखकर खुश हो जाती थीं। आपसे दो बात हो जाए,
इसलिए मेरे साथ दुकान चली आती थीं।
मेरी आंख में कुछ धुंधला सा रहा था। मैं कैसे बताता कि इन अनजान चार
प्राणियों का घर मुझे अपना घर लगने लगा था, कि वहां आकर पांव थिर हो जाते
थे, कि उनके जाने के बाद एक सन्नाटा मेरे जीवन में भी चला आया था।
खाना खाने के लिए मैं नहीं रुका। लेकिन वादा किया कि दुबारा आऊंगा। मैंने
अपना फोन नंबर भी दिया। कहा, इस बार किसी भी सूरत में खोए नहीं।
रास्ते भर सोचता रहा- कौन लगते हैं ये लोग मेरे? क्यों याद करते रहे मुझे?
और मुझे क्यों याद आते रहे ये लोग? क्या किसी को एक बार सड़क से उठा देना
भी इतना मूल्यवान हो सकता है कि वह जीवन भर की उम्मीद में बदल जाए?
या यह मेरे जीवन में घटी प्रेम कहानी है जिससे हम सब बेख़बर रहे?
-प्रियदर्शन
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