मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

धारावाहिक उपन्यास

आगे खुलता रास्ता

 
मूल और रूपान्तरण : नंद भारद्वाज

केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत राजस्थानी उपन्यास


 

भाग: दो

 

4.

 

    पिता के स्वर्गवास के बाद थोड़े ही दिनों में रामनारायण को यह बात समझ में आ गई कि अब पढ़ाई आगे जारी रखना आसान नहीं है। बड़े भाई लछमनराम ने सीधे मुंह मनाही तो नहीं की, लेकिन और बातों की ओट लेकर यह समझाने की कोशिश जरूर की कि अब अगर वह भी कुछ काम-धंधे में लगने की चेष्टा करे तो घर का गुजारा चलाने में थोड़ी सुविधा रहे। पीलीबंगा में उससे छोटा भाई हरिराम उसी साल आठवें दर्जे में आया था। स्कूल की छुट्टियों में रामनारायण कुछ दिन के लिए मां और छोटे भाई के पास आ गया था। मां के स्वर में उभरती चिन्ताओं को देखकर वह समझ गया था कि अब उसका किसी काम में लग जाना आवश्यक हो गया है।

     गर्मी की छुट्टियां खत्म होने के बाद स्कूल वापस खुल गये थे, लेकिन गुरमीत को रामनारायण कहीं नहीं दिखा। उसने लछमनराम के घर जाकर पता किया तो खबर मिली कि वह तो अभी गांव में ही है। गुरमीत उसी दिन अपने घर पर खबर देकर रामनारायण से मिलने पीलीबंगा आ गया।

    गुरमीत को अचानक अपने घर आया देख रामनारायण आश्चर्य-चकित रह गया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह उसकी खोज-खबर लेने यहां तक आ पहुंचेगा। उस रात गुरमीत पहली बार उसकी मां और छोटे भाई हरि से मिला था और उसने सभी से खूब बातें की। उसने मां को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि रामनारायण को अपनी पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए।

    दूसरे दिन वह उसे पीलीबंगा से हनुमानगढ़ ले आया। लेकिन बस की यात्रा में रामनारायण ने उसे यह बात अच्छी तरह समझा दी कि अब उसे पढ़ाई से ज्यादा किसी भी तरह के काम की जरूरत है। बड़े भाई अब परिवार से अलग रहते हैं और उनकी अपनी गृहस्थी है। नेमा की सगाई हो चुकी है। शादी होते ही उसकी भी अपनी जिम्मेदारियां होंगी। ऐसे में मां और पीलीबंगा वाले घर की सारी जिम्मेदारी उसी पर निर्भर है। इन हालात में पढ़ाई जारी रखने की कहां गुंजाइश है। गुरमीत उसकी बात सुनकर गंभीर हो गया था।

    ‘‘चंगा प्राहजी, फेर पैली त्वाडे काम दी फिकर करांगा। सानू डैडी नाळ गल कर लैण दैओ, फेर मैं तैंनूं दसांगा।’’ गुरमीत ने उसे तसल्ली देकर गली के मोड़ पर उससे विदा ली और रामनारायण भाई के घर की ओर रवाना हो गया।

    शाम को गुरमीत ने घर आकर उसे खबर दी कि सुबह उसके पिताजी ने उसे बातचीत के लिए फर्टिलाइजर के ऑफिस बुलाया है। वह रात भर इसी उधेड़बुन में रहा कि उसे कोई नौकरी करनी चाहिए या अपना पुश्तैनी काम संभालना चाहिए। बड़े भाई की यही राय थी कि उसे पीलीबंगा में ही रहकर कोई घर का काम-धंधा कर लेना चाहिए, ताकि मां और छोटे भाई की देखरेख होती रहे। यों उनकी अपनी जमीन है, जिस पर चौमासे में अच्छी फसल मिल जाती है। रामनारायण यह भी जानता था कि गांव में अपना कोई धंधा जमा लेना आसान नहीं है और खेती के काम का पिछले सालों में उसे बहुत कम अभ्यास रह गया था, पता नहीं कर भी पायेगा या नहीं। इस सारी उधेड़बुन में उसे अपने लिए नौकरी का विकल्प ही ज्यादा अनुकूल लग रहा था। लेकिन नौकरी इतनी आसानी से कौन देगा भला। वह रात भर ऐसे ही संकल्प-विकल्प में परेशान रहा।

    गुरमीत के कहे अनुसार सुबह दस बजे वह नहा-धोकर कंपनी के ऑफिस पहुंच गया। सरदार अमरजीतसिंह कुछ लोगों से बातचीत कर रहे थे। रामनारायण उन्हें प्रणाम कर कमरे में एक तरफ खड़ा हो गया।

    ‘‘आव पुत्तर, एक मिनट बैठ।’’ उनके स्वर में वही मिठास थी। वह कमरे में रखी कुछ खाली कुर्सियों में से एक पर बैठ गया। सरदार अमरजीत ने लोगों का काम निपटाकर उन्हें विदा किया और उसे अपनी टेबल के सामने वाली खाली कुर्सी पर आकर बैठने का इशारा किया। रामनारायण उठकर उनके सामने आकर बैठ गया।

    उन्होंने अपने सामने पड़े कागजों को समेटकर एक तरफ ट्रे में रख दिया। कुछ क्षण आंखें बंद किये सोचते रहे और फिर रामनारायण की ओर देखते हुए बोले, ‘‘देखो बेटा, अभी तो मैं तेरे को छोटा-मोटा टैम्परेरी काम ही सुझाऊंगा। हमारा मैनेजर भी अभी टूर पर बाहर गया हुआ है, परसों तक आ जायेगा, तब तक तू दो-चार दिन नंबरटेकर जी के साथ थोड़ा काम देख-समझ ले। हुम्.... और तनखा-वनखा की बात बाद में देख लेंगे। तू ग्यारहवीं पास बंदा है, वर्कचार्ज का काम तो तुझे दिलवाया ही जा सकता है। बाकी मेरी तो बहुत इच्छा थी कि गुरमीत के साथ तू भी अपनी पढ़ाई जारी रखता।’’

    ‘‘क्या करूं पापाजी, हालात के आगे मजबूर हूं।’’ रामनारायण सिर्फ इतना ही मुश्किल से बोल सका और गर्दन झुका ली। 

    ‘‘ओ कोई चिन्ता नहीं करना, पुत्तर! वाहे गुरू सब ठीक करेंगे।’’ इतना कहकर उन्होंने अपनी मेज पर पड़ी घंटी बजाई, जिसके जवाब में एक अधेड़-सा आदमी आकर उनके सामने खड़ा हो गया।

    ‘‘अब्दुल मियां, जरा देख के आओ, नंबरदार जी आ गये क्या? अगर हों तो कहना, बड़े बाबू ने याद किया है।’’

    ‘‘हुजूर, वे अपने कमरे में ही हैं। अभी बुलाकर लाता हूं।’’ कहता हुआ अब्दुल फौरन वापस मुड़ गया। उसके बाहर जाते ही सरदार अमरजीतसिंह ने रामनारायण को काम के बारे में कुछ जरूरी हिदायतें दीं। उसका मुख्य काम अभी रेल डिब्बों की भराई और उनके कागज तैयार करवाना रहेगा। बाकी दूसरे काम नंबरदार और दूसरे स्टाफ के साथ रहकर समझने होंगे। वह सावधानी से उनकी बातें सुनता रहा और हामी में अपनी गरदन हिलाता रहा। वह यह सब जानकारियां ले ही रहा था कि उसे अपनी पीठ पीछे किसी के आने की आहट हुई, साथ ही अभिवादन का स्वर भी, ‘‘सत् श्री अकाल प्राहजी!’’

    ‘‘सत्श्री अकाल! आओ, सुखबीर! बैठो।’’ सरदार अमरजीत ने उसे सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा। रामनारायण ने देखा, एक तीस-एक साल का जवान सरदार उसके पास रखी खाली कुर्सी पर आकर बैठ गया था।

    ‘‘देख पापे, ये अपणा मुंडा है रामनारायण, गुरमीत के स्कूल का साथी, उसका जिगरी यार!’’

    सुखबीर ने पास में बैठे रामनारायण की ओर देखा और मुस्कुरा कर बोला, ‘‘बहुत खुशी हुई जी आपसे मिलके!’’

    रामनारायण ने भी मुस्कुराते हुए सुखबीर का गर्दन झुकाकर अभिवादन किया।

    ‘‘इस बंदे को दो-चार दिन अपणै साथ रखो और इसको माल की ढोवाई, डिब्बों की सही तरीके से भराई और रेल्वे के जरूरी कागजों का सारा काम ठीक तरह से समझा दो। पढ़ा-लिखा बंदा है, सब समझ लेगा। बस, कोई दिक्कत नीं होणी चाहिए।’’ सरदार अमरजीत ने एक ही सांस में सारी हिदायतें दे दी थीं। सुखबीर ने सार रूप में सारी बातें समझते हुए रामनारायण की पीठ पर थपकी दी और अपने साथ चलने का इशारा किया, ‘‘चंगा प्राहजी, आप फिकर ना करो। मैं ऐनूं सब समझा देवांगा। आओ पापे!’’ कहते हुए वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ। रामनारायण भी उसी के साथ कुर्सी पीछे खिसकाकर उठ गया था। दोनों ने सरदार अमरजीत से विदा ली और उनके कमरे से बाहर आ गये।     

    वह पहला दिन और आज की घड़ी। जिप्सम के जिन मटमैले पत्थरों और उसके सफेद चूरे से बचने के लिए रामनारायण स्टेषन के उस इलाके में जाने तक से डरता था, अब सारा दिन उसे जिप्सम की उसी उड़ती सफेदी में अपनी दैनिक रोजी पकानी थी। सप्ताह भर तक उसने ऊंट-गाडों से जिप्सम की ढुलाई, माल गाड़ी के डिब्बों में एक निष्चित मात्रा तक माल की भराई और रेल्वे के बाबुओं के साथ बैठकर समूची कागजी प्रक्रिया का कार्य अपने जेहन में बिठा लिया था। वह इस नये काम में इतना व्यस्त हो गया कि उसे सप्ताह भर तक गुरमीत के पास जाकर आभार जताने तक का मौका नहीं मिल पाया था। आखिर रविवार को उसे छुट्टी मिली। वह सवेरे ही साफ-सुथरे कपड़े पहनकर गुरमीत के घर जा पहुंचा।

    गुरमीत ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए उलाहना दिया, ‘‘क्यों काके, नौकरी मिलते ही यारों को भुला दिया।’’

    ‘‘नहीं गुरमीत, तुझे कैसे भूल सकता हूं। असल में जिप्सम की सफेद मिट्टी में दिनभर काम करते ऐसा बुरा हाल हो जाता कि घर पहुंचने के बाद आधा-पौन घंटा तो कपड़ों और शरीर पर चिपकी सफेदी उतारने में ही बीत जाता। फिर थोड़ा-बहुत घरेलू काम में भी हाथ बंटाना पड़ता। लछमन की भी यही इच्छा रहती है कि नौकरी से बचा हुआ कुछ वक्त मैं उनके काम को भी दूं ताकि उन्हें भी कुछ सहारा मिले। अब तुम्हीं बताओ इन हालात में कैसे आ पाता।’’

    ‘‘ओ कोई गल नहीं यार, अपणी तरफ से तो तू हमेशा मस्त रह, जब फुरसत मिले आ जाया कर! तेरा ही घर है, पर ये बता, तुझे काम पसंद आया कि नहीं?’’

    ‘‘अरे काम में क्या बुराई है यार! मुझे तो खाली खड़ा रहना पड़ता है, और वह भी छाया में। असली काम तो उनको करना पड़ता है, जिन्हें धूप में गाडे-गाड़ियां भरनी या खाली करनी होती हैं या तगारियों से बड़े-बड़े डिब्बे-बोगियां भरनी पड़ती हैं। किषोर या जवान लड़के-लड़कियां तो इस काम में निभ जाते हैं, लेकिन अधेड़ और बूढ़े औरत-मर्दों को देखकर तो मेरा जी भी कच्चा पड़ने लगता है। वाकई दो टाइम की रोटी कमानी कितनी मुकिल है।’’ यह बात कहते हुए रामनारायण का स्वर उदासी में डूब गया था।

    ‘‘वाह पुत्तर, क्या पते की बात कही है! जो बन्दा मेहनत से काम करने वाले की इज्जत करता है, वाहे गुरू के दरबार में भी उसी की कदर होती है।’’ उसी समय सरदार अमरजीतसिंह अपने सिर पर पटके का सिरा खौंसते हुए अपने कमरे से बाहर आये और पास आकर उन्होंने रामनारायण की पीठ थपथपाई। वह तुरंत कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उनके पैरों की ओर झुक गया। उन्होंने उसे बीच में ही थाम लिया। खुद कुर्सी पर बैठते हुए बात-ही-बात में उन्होंने यह सूचना भी दे दी कि कंपनी के इस ऑफिस में उसे पांच-सात महीने, फिलहाल कच्चे वर्कचार्ज के रूप में काम करना पड़ेगा, फिर उसका बाबू की नौकरी के लिए टैस्ट होगा, उसे पास कर लेने के बाद कंपनी में उसकी सेवाएं नियमित हो जायेंगी। लेकिन इस दौरान उसे पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम करना होगा।

    रामनारायण ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह उनकी बात को गांठ बांधकर रखेगा और उनकी उम्मीदों पर हर तरह से खरा उतरने की कोशिश करेगा।

    साल भर वर्कचार्ज की दिहाड़ी मजदूरी में रामनारायण को हर वक्त इस कच्ची नौकरी के छूट जाने का डर-सा बना रहा। सरदार अमरजीत यों मुंह पर तो हमेशा उसका हौसला ही बढ़ाते, लेकिन उन पर दूसरे दबाव भी कम नहीं थे। आखिर साल भर बाद कंपनी के बीकानेर शाखा कार्यालय में प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र के वर्कचार्ज और टेम्परेरी कर्मचारियों की एक लिखित परीक्षा आयोजित की गई, जिसमें रामनारायण ने भी पूरी तैयारी से भाग लिया। वह टैस्ट में सफल रहा और अगले ही महीने उसे हनुमानगढ़ के ही शाखा कार्यालय में जब नियमित नियुक्ति मिल गई, तब जाकर उसके जी में कुछ निश्चिंतता आ पाई। नौकरी पक्की होने के दूसरे ही महीने बड़ी बहन रुख्मां के ससुराल से उसके लिए सगाई का प्रस्ताव आ गया। मंझले बेटे नेमा की सगाई के लिए बद्रीराम ने अपने सबसे बड़े बेटे लछमन के ससुराल वालों से पहले ही हामी भरवा रखी थी, इसलिए वे भी अब शादी के लिए उतावली कर रहे थे। रिश्तेदारों के बढ़ते दबाव को देखते हुए मां ने अपने बड़े बेटे को पीलीबंगा बुला लिया और दो महीने बाद की तारीख तय करके महाजन और सूरतगढ़ के रिश्तेदारों को सगाई की रस्म के लिए बुलवा लिया।

    ये गर्मियों के दिन थे। जेठ मास के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी को रिश्‍तेदारों की मौजूदगी में नेमाराम और रामनारायण की सगाई की रस्म पूरी कर दी गई। उसी के साथ दीपावली के बाद देव-ऊठनी एकादशी को नेमा और मार्गशीर्ष की कृष्णा पंचमी को रामनारायण का विवाह शुभ लग्न-मुहूर्त के अनुसार निश्चित कर दिया गया। उन दिनों बेटों के विवाह में यों भी तैयारी की जरूरत कम ही होती थी। दोनों अपने-अपने काम-धंधे में लगे हुए थे। दोनों की अपनी-अपनी नौकरी थी। बड़ा भाई लछमन अब पीलीबंगा की तरफ से निश्चिंत था। उसने रामनारायण की नौकरी लगने के बाद लकड़ी के कारखाने वाली नौकरी छोड़ दी थी, क्योंकि अपनी स्वयं की दुकान के लिए अब हर वक्त एक जिम्मेदार आदमी की जरूरत दिनो-दिन बढ़ती जा रही थी। घर का आदमी न होने से आने वाले ग्राहक और नये कारीगर लड़के भी इधर-उधर सरक जाते और लछमन को आए दिन लोगों के उलाहने सुनने पड़ते। थोड़ा-थोड़ा करते उन्होंने काम भी काफी बढ़ा लिया था और समय पर काम पूरा न होने के कारण अब नये ऑर्डर भी कम होने लगे थे। उसे लगा कि अब नौकरी छोड़ने में ही सार है, अन्यथा इतने बरसों से कमाई हुई साख बेकार चली जाएगी। आखिर तो घर के काम को सहेजना और बढ़ाना ही इसे शुरू करने का मूल मकसद था।

    दस दिनों के अन्तराल में दोनों भाइयों के विवाह सम्पन्न हो गये। विवाह के बाद गौने पर दोनों बहुए पहली बार पीलीबंगा वाले घर में ही आयीं। दोनों एक महीना ससुराल में रहकर मल-मास शुरू होने पहले अपने-अपने पीहर लौट गयीं। जितने दिन वे ससुराल में रहीं, नेमा तो केवल शनिवार और रविवार को ही कारखाने की नौकरी से छुट्टी मिलने पर पीलीबंगा आ पाता था, लेकिन रामनारायण दूसरे-तीसरे दिन शाम को हनुमानगढ़ से आकर अगले दिन सवेरे निकल जाता। कंपनी की नौकरी अभी नयी-नयी ही थी, इसलिए ज्यादा छुट्टियां लेना ठीक नहीं था। बड़े बाबू अमरजीतसिंह की भी यही हिदायत थी। दोनों भाइयों की जिन्दगी का एक शुरुआती चरण पूरा हो गया था और अब वे दोनों पूरे घरबारी थे - उनके अपने-अपने सपने थे और अपनी-अपनी अलग जिन्दगियां।

*    

 5.

   आजादी के बाद देश के अन्य भागों की तरह पश्चिमी राजस्थान में भी खनिज दोहन का काम कुछ इस रफ्तार से बढ़ा कि इस मरुस्थलीय भू-भाग में, जहां कहीं भी जिप्सम की बहुतायत थी, वहां के ज्यादातर क्षेत्रों से जिप्सम निकालकर उन केन्द्रों को भेजा जाने लगा, जहां इस खनिज से उर्वरक और अन्य उत्पाद तैयार किये जाते थे। आजादी से पहले बना सिन्दरी फर्टिलाइजर कारखाना एक ऐसा ही संस्थान था। आगे चलकर यही संस्थान भारतीय उर्वरक निगम के रूप में काम करने लगा, जिसका प्रादेशिक मुख्यालय जोधपुर में स्थापित किया गया। बाड़मेर, जैसलमेर, नागौर, बीकानेर, श्रीगंगानगर आदि जिलों में जमीन के नीचे जिप्सम के विशाल भंडार मौजूद थे। यही जिप्सम उर्वरक निर्माण, सीमेंट, सफेदी और लघु उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में काफी उपयोगी समझा जाता था। राजस्थान के विभिन्ना जिलों में मौजूद इस खनिज के अगले पचास-साठ साल तक समाप्त होने के कोई आसार नहीं थे। यों देश के दूसरे भागों में भी जिप्सम के कई भंडार मौजूद थे और यह सारा जिप्सम मालगाड़ियों के जरिये सीधे बिहार के सिन्दरी फर्टिलाइजर कारखाने में कच्चे माल के रूप में पहुंच रहा था। खाद के अलावा इमारती पाउडर, चुनाई की ईंटें बनाने और दूसरे लघु उद्योगों में भी जिप्सम की मांग लगातार बढ़ती जा रही थी।

    बाबू रामनारायण के मन में धीरे-धीरे यह विश्वास जमने लगा था कि कंपनी में उसकी यह नौकरी अब लंबी चलेगी। प्रदेश के दूसरे केन्द्रों की बनिस्पत हनुमानगढ़ में काम एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। उसके आस-पास के क्षेत्रों की खदानों में काम अब सिमटने लगा था। शायद यहां से निकलने वाली जिप्सम की किस्म के बारे में कंपनी अधिक आश्वस्त नहीं दीख रही थी। इसलिए केन्द्र में स्टाफ सीमित ही रखा गया था। इस केन्द्र के ऑफिस में एक मैनेजर, दो इंजीनियर, एक हैड-बाबू, दर्जन भर बाबू, कुछ ओवरसियर, सुपरवाइजर, नंबर-टेकर, ड्राइवर, खलासी, चौकीदार, चपरासी आदि सब मिला कर कोई पैंतालीस के आस-पास कर्मचारी काम कर रहे थे। बाकी फील्ड स्टाफ के रूप में कुछ नियमित कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर और ठेकेदारों के अपने आदमी होते थे, जो काम की जरूरत के हिसाब से घटते-बढ़ते रहते थे।  

    बद्रीराम के स्वर्गवास के बाद उनके बेटों में वह एकता और आपसी लगाव कम ही बना रह पाया, जो वे देखना चाहते थे। यह तो वे जानते थे कि परिवार में जितने बेटे होते हैं, उनकी अपनी गृहस्थियां बनने के बाद उन्हें अपने जीवन-निर्वाह की चिन्ता खुद ही करनी होती है, लेकिन वे सभी बेटों से और खासकर बड़े बेटों से यह उम्मीद जरूर करते थे कि जब तक छोटे भाइयों के घर नहीं बस जाएं, तब तक कोई घर से अलग होने की बात नहीं करेगा और न पुश्तैनी जमीन-जायदाद को बांटने की उतावली करेगा। लछमन तो फिर भी सबसे बड़ा होने के कारण पिता की इस इच्छा का ध्यान रखता था और यों हनुमानगढ़ जैसे शहर में परिवार की जरूरत के अनुसार इंतजाम भी था ही, इसलिए उसे कोई उतावली नहीं थी। नेमा शुरू से उन्हीं के साथ रहा और उन दोनों के ससुराल भी एक ही घर में थे, इसलिए उन्हें साथ रहने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। यों दोनों भाइयों ने उसी प्लॉट में दो अलग-अलग घर बनाकर अपनी-अपनी गृहस्थियां जमा ली थीं। रामनारायण की दुविधा यह थी कि वह किस घर को अपना समझकर वहां रहे, जबकि हनुमानगढ़ में नौकरी के कारण रहने के लिए एक घर की जरूरत तो उसे भी थी ही। दिक्कत तब पैदा हुई जब उसने उसी प्लॉट में अपने हिस्से की बात कही। लछमन का यही कहना था कि वह उन्हीं के साथ रहे और फिलहाल अपनी पत्नी को गांव के पुश्तैनी घर में रखे। उनका सोचना था कि हरि के ब्याह के बाद जायदाद का बंटवारा कर लिया जायेगा।

 

    रामनारायण की दुविधा यह थी कि वह बड़े भाइयों में किसी के साथ ठीक से तालमेल नहीं बैठा पा रहा था। नेमा का मकान थोड़ा छोटा था, इसलिए उसके पास तो वैसे ही कोई गुंजाइश नहीं लग रही थी। लछमन को उसे अपने साथ रखने में कोई ऐतराज नहीं था, लेकिन उसकी पत्नी के रूखे व्यवहार के कारण रामनारायण को कठिनाई का सामना करना पड़ता - कभी नहाने के लिए बाथरूम खाली नहीं मिलता तो कभी खाना बनने में देर-सबेर हो जाती, जबकि रामनारायण का हर हाल में दस बजे तक ऑफिस पहुंच जाना जरूरी था। अब वह शाम को दुकान को भी कम समय दे पाता। पीलीबंगा के नाम पर भाभियां कभी हंसी-ठिठोली भी कर बैठतीं। रामनारायण उनके इस व्यवहार से थोड़ा असहज-सा हो जाता। इसलिए वह यही चाहता था कि उसे रहने के लिए एक कमरा अलग दे दिया जाए और प्लॉट में अलग हिस्से की गुंजाइश रखी जाए।

    उन्हीं दिनों ऑफिस के परिसर में बने आवासों में साथी लिपिक की बदली के कारण एक आवास खाली हुआ था। उसने हैड-बाबू से निवेदन किया कि यह आवास उसे आवंटित कर दिया जाए, ताकि वह भी अपनी पत्नी के साथ वहां आकर रह सके। हैड-बाबू ने उससे अर्जी लेकर तीसरे ही दिन उसे आवास आवंटित कर दिया। रामनारायण उसी दिन अपने कपड़े-लत्ते और कुछ घरेलू सामान लेकर उस आवंटित आवास में रहने के लिए आ गया। रसोई के लिए कुछ जरूरी सामान उसे खरीदना पड़ा, बाकी खाट-बिस्तर और छोटा-मोटा घर-गृहस्थी का सामान कुछ तो बाजार से खरीद लाया और कुछ पीलीबंगा जाकर घर से ले आया। अपनी गृहस्थी को जमाने के लिए वह पीलीबंगा से कुछ दिन के लिए अपनी पत्नी गीता को भी साथ ले आया।

    शादी के होने के बाद पति-पत्नी पहली बार अकेले एक-दूसरे के साथ रहे। पीलीबंगा में मां और छोटे भाई की मौजूदगी के कारण वे अपने सोने के कमरे में न तो उजाला रख पाते और न खुले मन से कभी बात ही कर पाते।

    पीलीबंगा में उनके घर की गिनती गांव के साधारण घरों में ही होती थी, जहां न साधनों की इफरात थी, न कोई ऐसी कमी जिसके कारण परिवार के सदस्यों को कोई परेशानी महसूस होती हो। परिवार की जरूरत के मुताबिक घर में पर्याप्त कमरे और साधन-सुविधाएं मौजूद थीं। रिहाइशी मकान के चारों ओर सीने की ऊंचाई भर ईंटों से बनी चहार-दीवारी थी। अगले हिस्से में खुला अहाता था और मुख्य-द्वार के रूप में गली के बाहर खुलती बड़ी पिरोल थी, जो आठ फीट ऊंची खिड़क से बंद रहती थी। दो पल्लों वाली इसी बड़ी खिड़क के एक पल्ले में खिड़कीनुमा एक छोटा पल्ला खुलता था, जिससे घर मंे आना-जाना होता था। 

    घर में दो बड़े कमरे थे, जिनके आगे एक लंबा बारामदा और फिर खुला आंगन था।  आंगन के पश्चिमी भाग में रसोई थी और पूरब में एक अकेला-सा कमरा जिसके आगे कोई बारामदा नहीं था। बस उसके दरवाजे पर एक पट्टी-सी लगी थी, ताकि बरसात की बौछार सीधी दरवाजे पर न पड़े। यों तो घर के सभी हिस्सों में घर के सभी सदस्यों का आव-जाव रहता है, लेकिन यह अकेला कमरा एक तरह से हरि के कब्जे में था। रसोई के बगल से छत की ओर जाती सीढ़ियां थीं और उससे आगे बाहर की ओर खुलते दरवाजे की बैठक, जिसका एक दरवाजा भीतर आंगन में खुलता था। छत की ओर जाने वाली सीढ़ियों के पास खाली जगह थी जहां कुछ खाटें और घर का अतिरिक्त-सा सामान पड़ा रहता था।

    घर के उत्तर-पूर्व में बनी बैठक के आगे एक ऊंची-सी चौकी थी। उसी चौकी के पास घर के आंगन में खुलता दो पल्लों वाला एक बड़ा-सा दरवाजा था, जिसके दोनों पल्ले काफी भारी थे और उसकी बनावट भी पुराने जमाने के जड़ाऊ किवाड़ों जैसी थी। इस दरवाजे को बंद करने के लिए पल्लों के पीछे एक लकड़ी की ही भोगल बनी थी, जो कुंडी का काम देती थी। घर के उत्तर-पष्चिम वाले कोने में पिछले वर्षों में एक स्नानघर और शौचालय भी नये ढंग का बनवा दिया गया था। पहले तो गांव छोटा ही हुआ करता था, इसलिए घर में शौचालय रखने का रिवाज कम ही घरों में था, लेकिन इन्हीं वर्षों में गांव काफी बड़ा हो गया था और उनके घर से जंगल काफी दूर हो गया था। यही सब देखते हुए औरतों और बच्चों के लिए घर में शौचालय का इंतजाम जरूरी हो गया था। घर में यह सुविधा बन जाने के बावजूद उनके पिता बद्रीराम ने इस सुविधा का उपयोग कभी नहीं किया। उन्हें तो गांव के आस-पास के जंगल ही में जाने की आदत थी और इस बहाने सवेरे-सवेरे उनका घूमना भी हो जाता।

    भीतर के कमरों में से एक मां की देखरेख में था और दूसरा उसके और गीता के पास, जो सारे दिन सूना पड़ा रहता था। शादी के बाद घर का सारा काम, खासकर रसोई, बर्तन मांजना, घर की सफाई और कपड़ों की धुलाई सारे काम गीता के ही जिम्मे थे। सूर्योदय से पहले उसे रोटी बनाने के लिए हाथ की चक्की पर आटा भी पीसकर रखना होता था और सफाई का काम निवड़ने के बाद गांव के कुए से कभी-कभी पानी का घड़ा भी सिर पर रखकर लाना होता था। यों घर में पानी एकत्र करने का एक छोटा-सा कुंड भी था, जिसमें हरि अमूमन ऊंट-गाडेवाली टंकी से पानी डलवा लेता था।

    गीता को घर का रोजमर्रा का काम निपटाते अमूमन रात में काफी देर हो जाती। वह अपने कमरे में तभी जा पाती जब घर के सारे लोग खाना खाकर सोने को जा चुके होते। रामनारायण जब भी घर आता, उसे अमूमन देर रात तक गीता का इंतजार करना पड़ता। कभी-कभी तो इंतजार करते उसे नींद ही आ घेरती। देर रात गये आंख खुलने पर पता चलता कि गीता कब की उसकी बगल में आकर लेट चुकी है। दिन भर काम की थकान से सोई पत्नी को जगाना उसे ठीक नहीं लगता। उसे गीता से हमदर्दी-सी होती और मन में कहीं अफसोस भी कि वह उसे कुछ भी सुख या आराम नहीं दे पा रहा है।

    ऑफिस के अहाते में चार बड़े और बारह छोटे मकान थे। छोटे मकानों में दो कमरे और एक रसोई थी, इसके अलावा बाहर वाले दरवाजे के पास स्नानघर और शौचालय। बीच में खुला चौक था, जो गर्मी की रातों में बड़ा सुविधाजनक रहता। बड़े मकानों में मैनेजर, दो इंजीनियर और हैड-बाबू अमरजीतसिंह रहते थे। इसी अहाते के पश्चिमी छोर पर दो गाड़ियों के गैराज थे और उन्हीं से लगते ड्राइवरों और चौकीदारों के एक कमरा-रसोई वाले छोटे मकान। कॉलोनी की शुरूआत में ही दक्षिण की ओर खुलते मुंह का दफ्तर था, जो सुबह से रात तक अमूमन खुला ही रहता था। दफ्तर के आगे के खुले मैदान में पहले तो कुछ दूब भी हुआ करती थी, लेकिन आजकल कम पानी और सार-संभाल के अभाव में वहां उजाड़-सा हो गया था। इस मैदान में शाम के वक्त कॉलोनी के और आस-पास के बच्चे खेलते रहते। इन खेलों में सबसे आसान और प्रिय खेल था मार-दड़ी का खेल, जिसमें एक रबड़ या कपड़े की चिन्दियों से बनी गेंद हुआ करती थी। उसमें खेलने वाले चाहे जितने हों, किसी को खेल से बाहर रखने की जरूरत नहीं होती।

    कॉलोनी में क्वार्टर मिल जाने के बाद अपनी गृहस्थी जमाने के लिए रामबाबू मां से इजाजत लेकर कुछ दिन के लिए गीता को साथ ले आये थे। गीता के लिए भी पति के साथ इस तरह अपनी रुचि का घर बसाने का यह नया ही अनुभव था। एक दिन का अवकाश लेकर पति-पत्नी दोनों जरूरत की कई चीजें बाजार से खरीद लाए। घर-गृहस्थी के सामान के साथ उसने पत्नी के लिए उसकी पसंद की एक साड़ी भी खरीदी। दरवाजे खिड़कियों के लिए नये पर्दे और कुछ सजावट का सामान लिया, जो उस पुश्तैनी घर में रहते उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था।

    सामान लेकर घर लौटने के बाद दोनों ने मिलकर अपने उस नये आशियाने को मनोयोग से सजाया। सजावट को एक-दूसरे की आंखों में देखा-सराहा और इस पूरी प्रक्रिया में खुद को आनंदित अनुभव किया। शाम को काम से निवृत्त होने के बाद रामनारायण थोड़ी देर के लिए बड़े बाबू से मिलने उनके घर चला गया। उसी दौरान गीता ने अपनी रुचि से हलुवा, पुड़ी, दो सब्जियां, दाल, चावल आदि तैयार कर लियेे। घंटे भर बाद रामनारायण घर लौट आया। हाथ-मुंह धोकर खाने के लिए बैठने पर जब गीता ने घर से लाए कैरी के अचार के साथ नये बर्तनों में पति को सारे व्यंजन परोसे तो वह देखकर दंग रह गया।

    उनकी शादी हुए आठ महीने बीत गये थे, लेकिन पति-पत्नी के रूप में साथ रहकर गृहस्थी बसाने, एक-दूसरे की रुचियों को करीब से जानने-समझने और अपनी पसंद का खाना बनाने-खाने का यह पहला ही अवसर आया था। गीता बेहद उत्साहित थी। आज घर का सारा काम इतनी जल्दी निपट गया कि साथ बैठकर बातें करने और एक-दूसरे में डूब कर जीने के लिए उनके पास जैसे पूरी रात बची हुई थी। दिनभर की भागदौड़ के बावजूद गीता को किसी तरह की थकान या सुस्ती छू भी नहीं गयी थी।

   कॉलोनी के इस छोटे-से मकान में अपने जीवन-साथी के साथ एकान्त में बीती वह रात रामबाबू के जीवन की एक यादगार रात बन गई। उनके लिए तो वही जैसे पहली सुहागरात थी। उन्होंने बल्ब की मद्धिम रोशनी में गीता की सांचे ढली अनावृत्त देह को पहली बार खुली आंखों से निहारा, उसके उमगते अंगों में कौंधती चमक देखी और अनबोली उमंगों को अपने आत्मिक स्पर्श से सहलाते हुए उस अधखुली लज्जा के अदृश्य बंधन खोल दिये। पहली बार उन्होंने अपने अंतस की गहराई में उतरते दैहिक-सुख का मनचींता आनंद एक-दूजे की आंखों और समूची देह में पसरते महसूस किया। वे सारी रात एक-दूसरे की सांसों को पीते इस तरह सोए रहे, मानो पूरी जीवन-नैया इसी अवस्था में पार कर लेनी हो। कब उनकी आंख लगी और कब उनके सपने एक-दूसरे की इच्छाओं में घुल-मिलकर एकमेक हो गये, इसके सूत्र तो उन्हें बरसों बाद खोजने पर भी नहीं मिले।

    गीता बड़ी मुश्किल से यहां सिर्फ दो सप्ताह ही ठहर पाई। दूसरा सप्ताह पूरा होने तक तो गांव से दो-तीन बुलावे आ चुके थे। खुद हरि ने आकर रामबाबू को खबर दी कि मां की तबियत ठीक नहीं है, इसलिए भोजाई को जल्दी गांव पहुंचा दें। गीता अपनी शादी के बाद कुल जमा चौदह दिन पति के साथ इस आनंदलोक में अकेली रह पाई और फिर उसी पुश्तैनी घर में वापस पहुंच गई।

 

तीसरी  किश्त ...अगले अंक में

  भाग -1  /  भाग - 2/ भाग 3


नन्द भारद्वाज
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com