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पल्लव-3

उस पल तो उस उन्मत आह्वान का कोई उत्तर न दे सकी पल्लव।  परितोष ही घनीभूत हो आये सन्नाटे से घबरा कर चले गये, वह वहीं ठण्डे फर्श पर बैठी रो पडी।  यूं वजह कोई नहीं थी, वह कडा नकारात्मक उत्तर दे सकती थी, पर उसका पूरा वजूद सुन्न हो गया था।  क्या ये वही उसका अपना चिरप्रतीक्षित आह्वान न था विवाह के बाद पहले पल से ही तो वह ऐसे ही किसी आह्वान की प्रतीक्षा करती आई है, आज अगर ऐसा ही कुछ परितोष ने प्रस्तुत किया तो वह सर-ब-पांव कांप क्यों गई, अपने आप से डर कर रो पडी?

वह अवसाद तब छंटा जब एस टी डी बूथ पर जा कर अजित और बच्चों को फोन किया।  

''मैं भाग आना चाहती हूं अजित। ''
''
हे डोन्ट बी सिली   यू ऑनली वान्टेड दिस काइन्ड ऑफ द सक्सेस हूं  सच कहूं तो सिर्फ हाउस वाईफ होना तुम्हें अखरता रहा, तुमने अपनी प्रतिभाओं का सही मूल्य पाने के लिए घर उपेक्षित कर वही किया जो चाहा।  आज अवसर मिला है तो घर और बच्चों का मोह सता रहा हैं तुम हमेशा से वही पाना चाहती हो जो तुम्हारे पास नही होता, पाने के बाद चुकाई गई कीमत तक भूल जाती हो।  घर, सफलता, पति, माता-पिता सब एक समय पर एक साथ चाहती रही हो । '
''
अजित प्लीज  फ़ोन पर उपदेश नही  सच मैं होम सिक हो रही हूं। ''
''
अच्छा लो बच्चों से बात करो। ''

अजित तुम कहां जानते थे कि मैं किस निर्वात की ओर खिंची जा रही थी, जानते भी तो यही सोचते कि अच्छा अभिनय कर रही थी  बस इतना ही तो समझ पाते हो तुम लोग।  सीधे-साधे गलत या सही के निष्कर्ष पर पहुंच स्वयं को बहुत व्यवहारिक कहते हो।  मानसिक गूढताओं, परिस्थिति जनक प्रतिक्रियाओं के बारे में कहां सोच पाते हो तुम व्यवहारिक लोग।  पर सच मानो, उस पल मैं एक दुरूह सी फिसलपट्टी पर फिसली जा रही थी और अजित मैंने तुम्हें घबरा कर पकड लेना चाहा था।  

अगले ही दिन प्रोफेसर शलभ अपनी नई कृतियों की समीक्षात्मक चर्चा  में भाग लेने के बाद शाम की ट्रेन से चले गये।  उनके छोटे बेटे की सगाई थी अगले ही दिन ।  परितोष सर का व्याख्यान उसने सुना, तमाम परिचित -अपरिचित साहित्यकारों, प्रोफेसरों, और कई हिन्दी पढने तथा रूचि लेने वाले विद्यार्थियों के बीच बैठ।  गम्भीर वाणी, गहन सुधारवादी आलोचना, सधे हुए मगर कुछ उग्र विचार, मंत्रमुग्ध सी बैठी रही वह।  एक पल को ऐसा लगा कि मंच पर रोस्ट्रम पर खडे हैं वो और पूरे हॉल में बस वही अकेली है।  अजित की भुजाओं पर से उसकी पकड ढीली होकर खुलने लगी।  

सेमिनार हॉल से निकलते -निकलते मौसम बदल गया।  उमस भरे दिन का तीसरा प्रहर भी एक षडयंत्र के तहत, बादलों का जत्त्था और ठण्डी हवाओं का जाल लिये आ पहुंचा।  

''पल्लव! ''
''
जी सर?''
''
तुम्हारा जवाब पढ लिया है मैंने। ''
''
कौनस जवाब? '' पल्लव निश्चिंत थी, परितोष किस जवाब की बात कर रहें हैं, अनुमान भी न लगा सकी।
''
वही '' अब सशंकित हो गई पल्लव ।
''
सुबह तुम्हारे कमरे में आया था मैं, तुम्हें बुलाने पर तुम शायद नहा रही थी ।  वह बिस्तर के पास, टीपॉय पर फडफ़डा रहा था  '' ओह । वह कागज क़ा टुकडा? खीज हो आई अपने आप पर।  छिः! ऐसी बकवास यूं खुली छोडनी चाहिये थी? घनी शर्मीन्दगी।  उफ! वह कागज क़ा टुकडा क्या था, एक गले तक भर आया आवेग ही था, जिसे घबरा कर उसने पास पडे ख़ाली पन्ने पर उलट दिया था।  कल रात आवेग में चढती-उतरती उस कागज क़े टुकडे क़ो वही छोड वह सो गई थी, सुबह उठी तो पौने नौ बजे थे, सीधे नहाने चली गई।  फिर ।
''
हूं ! पल्लव, चुप क्यों हो गई ?''
''
मैंने किसी सवाल का कोई जवाब नही दिया। ''  तल्लख हो आई पल्लव ।
''
अच्छा छोडो , चलो कही चलते हैं।  मौसम अच्छा है ना?''
''
, मैं अपने कमरे में जाउंगी। '' भर क्यों गई कमबख्त ये आवाज ! 
''
पल्लव इधर देखो। '' कह कर परितोषने सडक़ पर ही उसका चिबुक उठा दिया।  आंखों में एक ज्वार उफनने को था। परितोष हतप्रभ बांह थामे खडा रहा।  तभी  तेज ग़डग़डाहट के साथ बारिश शुरू हो गई।  गनीमत थी कि सेमिनार हॉल से युनिवर्सिटी गेस्टहाउस तक जाने वाली ये सडक़ उस वक्त निर्जन थी।  फिर भी पल्लव का संकोच उसे बहाये जा रहा था।  
''
चलो पल्लव। '' शीघ्र ही संयत हो दोनें चल पडे।  पल्लव भीग गई थी, कमरे में पहुंचते ही उसने शॉवर लेकर कपडे बदले।  प्रितोष भीगे कपडों में ही सिगरेट सुलगा अपने कमरे की बालकनी में जा बैठा।  बादलों का आवेग भी अब थम चला था।  

कैसी आकांक्षा है यह? कैसी व्याकुलता? रोमान्स या अफेयर का सवाल नही है, यह तो स्पष्ट है फिर ये आकर्षण क्यों, वह भी इस उम्र में, एक विवाहिता के प्रति? याचक न हो कर भी कमजोर पड रहा हूं शायद ! उसने वह भावुक लिखावट वाला पर्चा निकाला, तभी से।  

सील गये उस पर्चे पर बिखरे थे पल्लव के कमजोर होते भाव 

न तुम याचक हो ,
न दाता
तुम निर्लिप्त होकर भी
किसी अव्यक्त आकांक्षा में
हाथ बांधे, आंखें मूंदे
वन देवता का अभिनय करते
कनुप्रिया के सम्पूर्ण के लोभी
चतुर कृष्ण तो नही

न यह कोई प्रतिख्यान नही, यह तो है एक मर्माहत प्रतिक्रिया।  मैं उसे और कमजोर नही करूंगा।  प्रेम..? हं.... वह तो छूट गया बहुत पीछे कही उम्र के साथ।  अब इस उम्र में मैं ही तो स्वच्छंद हूं , वह तो दाम्पत्य से जुडी है।  मैं क्यों ऐसा आह्वान कर बैठा? क्यों भूल गया था कि ये भारत आज भी कहीं  एक लम्बी सांस ले परितोष अंदर चला आया।  एक और सिगरेट सुलगा ही रहा था कि दरवाजे पर आहट हुई, दरवाजा खुला था, पल्लव भीतर चली आई।  शाम के सात बजे थे, आकाश साफ था, फिर मन में आकर्षण की मरोड उठी।  जर्द पीली साडी सुर्ख लाल बांधनी का बॉर्डर।  ये पल्लव हमेशा बिना बांहों के ब्लाउज क्यों पहनती है ? शायद जानती है कि उसकी बांहें आकर्षक हैं।  

''सर आपने कपडे तक नही बदले, क्या इन भीगे कपडों में ही बाहर चलने का प्रोग्राम बना रहे थे?''

ये पल्लव भी, हर बात उलझी स्थिति को सुलझा कर सहज हो सामने आ खडी होती है।  तू अपूर्वा है पल्लव, मत आ मेरे पास
''
आओ पल्लव '' परितोष का स्वर भीगा सा था
उसे खोया सा पा कर वह असमंजस में थी।  क्या कहे क्या न कहे फिर परितोष ने ही पूछा, ''सच में कहीं चलना चाहती हा?
''
हां, यहां का खाना खा-खा कर मेरा तो जी उब गया है, सोच रही थी, कहीं बाहर जाकर चायनीज ख़ाया जाये'' उसने सहज होने का हरसंभव प्रयास कर परितोष का चेहरा देखा, उतरा-उतरा, उदास-उदास!
''
मैं तो इलाहाबाद के बारे में कुछ भी तो नही जानता , क्या तुम्हें पता है
''
ढूंढ लेंगे सर '' उत्साह से पल्लव बोली ।  वह अपने स्वभाव के अनुसार जल्दी ही इस अस्वाभाविक बोझिलता से उबर जाना चाहती थी।  ''सर मैं और अजित तो हर नये शहर में यूं ही एक्सप्लोर करते हैं, रेस्टोरेन्ट्स और ढाबे''

अजित !  पल्लव का बेटर हाफ ! हलकी सी ईष्या ।  

आखिर ढूंढ ही लिया गया शहर के एक कोने में एक चायनीज रेस्टोरेन्ट, खाना भी ठीक ही था।  पल्लव बात करती रही अपने  होम स्वीट होम' के बारे में फिर अचानक पूछ बैठी ।  

''सर आप क्यों नहीं बसे ?''
''
इतना व्यक्तिगत प्रश्न भी पूछ रही हो और सर-सर लगाये जा रही हो।  प्रितोष ही काफी न होगा पल्लव?
''
अच्छा अब टालिये मत हां...। ''
''
दरअसल बहुत सालों तक तो सही सोचता रहा कि शादी और जॉब रचनाकार को बांध लेते हैं, ऐसे क्षय होती कई विलक्षण प्रतिभाएं भी देखी।  फिर लेक्चरशिप के लिये तो शलभ सर ने समझाया कि रचनाकार के लिये पहले आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है।  और रही शादी, उसके लिये किसी ने ज्यादा तर्को के साथ नही समझाया।  मां थी तो तभी कुछ रिश्ते आये भी पर मानसिक स्तर की कमी को उच्च आर्थिक स्तर से कम्पनसॅट न कर सका ।  यूरोप गया, वहां एकाध अकर्षणयुक्त, अथकचरे  अफेयर आ जुडे पर शादी जैसा कुछ नही हुआ बस यूं ही उम्र बीतती चली गई। ''   
''
उम्र बीत गई ? अडतीस-चालिस में तो वेस्ट में लोग सेटेल होने की सोचते हैं।  और भारत में भी कई ऐसे उदाहरण होंगे। ''
''
छोडो भी ! अच्छा ये बताओ कि तुम्हारी कविताओं में इतने जंगल क्यों होते हैं ?''
''
कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट की पत्नी हूं, और बचपन का बडा हिस्सा भी उत्तरप्रदेश के सबसे उर्वर गांवों में बीता।  जंगल मेरा ऑबसेशन हैं। ''
''
पल्लव तुम गद्य में कहानियां भी लिखा करो, तुम्हारा एक्सप्रेशन अच्छा है। ''
''
इतना पेशेन्स भी तो नही है सर। ''
''
सर कह कर तुम मुझे खुद से बहुत बडा बना कर रख देती हो। ''

वैसे दूरी बनाये रखने का अच्छा बहाना भी है , कहना चाहता था परितोष पर कहा नही।  

लौटते हुए पल्लव ने सोचा, सब संभल गया है।  लेकिन सीढियां चढते हुए दोनों के बीच फैली नीरवता एक विप्लव का आह्वान करती रही।  

''कॉफी पीना चाहोगी? ''  संयत स्वर थे वह मना न कर सकी ।  अपने विवेक की पोटली कस कर पकड परितोष के साथ उसके कमरे की बालकनी में चली आई।  बालकनी तक चढ आई भीगी चमेली की बेल में अब भी कई फूल टंके थे और नशीली महक फैला रहे थे।  बादलों से भरी उमस जगाती रात में कॉफी पी गई।

उठने को उध्दत हुई वह ,
''
चलूं अब, कल वाला पेपर देख लूं जरा '' मुडी ही थी वह कि एक अतीव ऊष्मा से भरा अस्फुट स्वर हवा में तैरा,
''
पल्लव'' 

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