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पल्लव-4

रेत की दीवार सा संयम इन स्वरों से निकली आंधियों से धाराशायी हुआ जा रहा था।  उधर अपनी विवशताओं में डूबती-उतरती वह उन्मादी सी, सुदर्शन देह, निःशब्द उसके समक्ष  नेत्र जल रहे थे उनमें आंसुओं का फेनिल ज्वार उमडने को था।  आवेश का वह कंपा देने वाला ज्वर एक सुनहरा आग उगलता ड्रैगन सब कुछ भस्म कर देना चाहता था।  

'' ये यह पल मत छीनो मुझसे! इस एक पल से मेरी जीवन यात्रा का समस्त संघर्ष सुखमय हो जायेगा।  जिन्दगी की जद्दोजहद ने मुझे मरूस्थल बना दिया है।  कुछ भी सरस नही मेरे भीतर , पल्लव ।  आगे के शब्द परितोष के आंसुओं और हिचकियों में डुब गये।  उफनती तरंगो का सारा फेन समेटती पल्लव, परितोष को अंदर ले आई।  अपना आप भूल वह उसे ही सांत्वना देती रही।  

बडे यत्न से संजोए किसी खण्डित स्वप्न सीवह घडी।  ईस टूटती-बिखरती घडी क़ो क्या सही अर्थ दे सकती है पल्लव ? ननहीं।  हिस्टीरिया के रोगी सा परितोष कभी उसे कस कर जक़डता कभी छाेड देता।  वह संभालते-संभालते थक गई थी।  रात का दूसरा प्रहर खत्म होने को था।  

''सर''
''
सर नही पल्लव ! परितोष !''
''
मैं जाऊं ?''
''
जा सकोगी ?'' एक तप्त उच्छवास, उन्माद के संक्रमण से भरा पल्लव की सांसों से प्रविष्ट हो देह के हर कोश में भर गया।  पल्लव कांपने लगी।  परितोष का कसाव ढीला हुआ तो पल्लव ने जमड लिया।  

परितोष चौंका  कांपते होंठ, नाक पर जमी पसीने की नन्ही बूंदे, अधमुंदी आंखे।  शोर मचाती चल रही थी नब्ज, सच ही ज्वर चढ या था, जल रही थी पल्लव की ताम्बई देह।  

''पल्लव तुम्हें तो बुखार है !''
''
परितोष '' विप्लव भरी आतुर पुकार का लगभग वैसा ही आतुर उत्तर   पल्लव के नशीले कसावों से हतप्रभ हो परितोष बोला -
''
मेरी ओर देखो पल्लव !''

आंखे खुली , लाल लाल डोरों में बंध गया वह।  

''पल्लवएक बार फिर पूछ लो अपने विवेक से। ''

पल्लव वहां कहां थी, एक मादक गंध से भरा जंगल पसरा था।  लगभग अचेत पल्लव के नासारंध यह फर्क तक नही जान पा रहे थे कि ये परितोष के पसीने की महक है या गीली मिट्टी की।  गले में कांटे चुभोती प्यास थी कि हर पल बढती जा रही थी भारती जी की  कनुप्रिया  के वे अंश जिन्हे पल्लव ने बार-बार पढा था, आज पहली बार अपने अर्थ बताते नेपथ्य में गूंज रहे थे।  

लो मेरे असमंजस ! अब मैं उनमुक्त हूं
और मेरे नयन अब नयन नही ,
प््रातिक्षा के क्षण हैं
और मेरी बांहें, बाहें नही हैं पगडण्डियां हैं
और मेरा यह रूपहली धूपछांव वाली सीपी सा जिस्म
सिर्फ एक पुकार है
उठो मेरे उत्तर !
और पट बन्द कर दो
और कह दो इस समुद्र से
कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जायें
और कह दो दिशाओं से कि वे हमारे कसाव में
आज घुल जायें

''तुमने कोई अपराध नही किया है , बस यही याद रखना।  तुमने मेरी और अपनी थकीहारी आस्था को थोडा सा विश्राम दिया है।  बस संयत रहना। ''

Paल्लव तो संयत ही रही पर तुम्हें क्या हुआ था ? उसे पाने की लालसा दिन प्रतिदिन प्रबलतम क्यों हो उठी थी।  वह तेजस्वी व्यक्तित्व डूब गया था अपनी ही प्यास में ।  क्लान्त चेहेरा, टूटी सी मुस्कान ।  पुरानी विहंसती मुखाकृति अब उस चेहेरे में ढूंढे नही मिलती थी।  क्या कहे पल्लव क्या समझाये, आत्मग्लानि से भर जाती।  लौटकर फिर गृहस्थी और थीसिस के अंतिम अध्यायों में उलझ कर रह गई थी वह।  प्रोफेसर शलभ व्यस्त थे, असिन्टेन्ट लेक्चरर्स के इन्टरव्यूज होने थे।  शलभ सर ने पल्लव को भी एप्लीकेशन देने को कहा था, पल्लव ने तभी कह दिया था कि अजित का ट्रान्सफर इस वर्ष के अन्त तक कभी भी हो सकता है।  सो प्रोफेसर शलभ की एम ए की कक्षायें भी उसे ही लेनी होती थी।  उस दिन विभाग की एक मीटिंग में बैठे हुए पल्लव की नोटबुक सरका कर परितोष ने चुपके से लिख दिया, ''क्या करूं जिसे दैहिक तुष्टि का तीव्र आकर्षण माने बैठा था वह कमबख्त प्रेम निकला और वह भी चालीस की उम्र में तुमसे ही होना था''

पल्लव ने घबरा कर नोटबुक बन्द कर ली।  उस दिन वह लाइब्ररी के एकान्त में परितोष से बहुत झगडी थी।  

''जानते थे ना आप शुरू से कि मैंने आपकी कोई अपेक्षा पूरी करने का वादा नही किया था, आप जानते थे मेरी सीमाएं ।  अब बस ।  आपने मेरी एप्लीकेशन भी क्लर्क से मेरे डोक्यूमेन्ट्स लेकर दे दी है।  क्यों कर रहे हैं आप यह सबपता है न अजित का ट्रान्सफर  इस वर्ष के अन्त तक कभी भी हो सकता है और मुझे जाना ही होगा। ''
''
, तुम्हे नही जाना चाहिये।  मैं और शलभ सर दोनों यही चाहेंगे कि यह पद तुम भरो, ऐसा अवसर गंवा दोगी तुम्हारे भी बच्चे बडे हो रहे हैं उनके भी भविष्य की सोचो, उनके लिये यहां से अच्छे स्कूल कहां मिलेंगे? जंगलों, छोटे शहरों में पति के साथ ये यायावरी क्यों? अब तो सेटल हो जाओ! ये प्रतिभा यूं व्यर्थ न करो  ।  
''
ज़ानते हैं ना, आपके इन्हीं तौर तरीकों की वजह से पूरे हिन्दी विभाग में कानाफूसियां चल रही हैं।  प्रितोष.... असंभव को क्यों संभव करना चाहते हो ? ''  आवेग से पल्लव का गला रूंध गया था।
''
उस खण्डित स्वप्न का भूल नही सकते क्या ?''
''
भुला दूं ? क्यों मेरा मन तो उसकी पुनरावृत्तियां चाहता है। ''

परितोष पल्लव के रूंधते स्वर से बेखबर आंखे मूंदे बोलते रहे।  

''जी तो चाहता है कि तुम्हें उठा कर तुम्हारे ही आर्किड्स और फर्न से भरे जंगलों में भाग जाऊं। '' पल्लव की कठोर दृष्टि की अवमानना करते हुए फिर बोले, '' मैं एक साहित्य सम्मेलन में मॉरिशस जा रहा हूं, चलोगी? पूरे पन्द्रह दिन तक हिन्दमहासागर के तट पर कुछ काम करेंगे, साथ लिखेंगे और अपने उसी खण्डित स्वप्न का एक और खण्ड जी लेंगे। ''
''
मैं क्या करूंगी, वहां मुझे किसने बुलाया है? मैं कोई जानी मानी साहित्यकार भी नहीं आपकी तरह?'' ''मेरे साथ सेरी सहयोगी बन कर चलो। ''
''
किसे भुलावा दे रहे हो परितोष ? प्लीज ये प्यार का हठ छोड दो। ''

घर आकर बहुत उलझी वह, कर लूं जॉइन लेक्चररशिप अजित मना नही करेंगे, बच्चों के लिये आज नही तो कल सेटल होना ही होगा ।  अजित का हर ट्रान्सफर शहर में हो यह जरूरी भी नही सारी रात स्वप्न में हिन्द महासागर लहराता रहा।  

बस इसी दुराग्रह को लेकर अगले दिन परितोष, शलभ सर के ऑफिस में जा पहुंचे थे ।  वहीं वह भी बैठी थी, शोधग्रन्थ के अंतिम अध्याय का प्रारूप लिये ।  उफ! कितना अपमानित महसूस करती रही वह शलभ सर के समक्ष।  शलभ सर उसे ही समझाते रहे देर तक    

''परितोष का ऐसा असंयत व्यवहार तो तब भी कभी नही देखा जब वह एम ए कर रहा था।  सदा से मितभाषी रहा, हां आक्रोश था उसमें सब सुधार कर रख देना चाहता था।  पितृहीन हो कर भी अपनी प्रतिभा के बल पर छात्रवृत्तियां ले यहां तक पहुंच गया, पर रहा फक्कड ही।  जब तक मां रही समझाती रहीं, मुझे भी कहती रहीं कि मैं ही उसे शादी के लिये मना लूं पर इसे कोई नहीं भाया।  अब  अभागा !  इसने मुझे पिता का सा सम्मान दिया है, अब इस अभागे को बस तू ही समझा सकती है। ''
''
जी सर । '' पल्लव भीगते मन से वहां से उठ आई।  

और आज परितोष मॉरिशस के लिये चले भी गये।  शुबह पांच बजे ही उठ गई थी पल्लव, सबका नाश्ता बनाया, बच्चों की स्कूल युनिफार्म निकाल कर आया को उन्हें स्कूल भेजने की हिदायतें दीं, फिर स्वयं तैयार होकर चाय बनाई और अजित को जगाया।  सुबह की एक क्लास का बहाना बना वह चली आई थी, कैम्पस के लगभग जनविहीन हिस्से में जहां प्रोफेसर्से के कुछ सरकारी आवास हैं।  वहीं परितोष रहते हैंजब वह पहुंची तो परितोष सो ही रहे थे।  उनका एकमात्र सेवक रघु चाय बना रहा था।  

''नमस्ते दीदी जी । ''
''
नमस्ते रघु, सर कहां हैं ? ''

अल्पभाषी रघु ने संकेत से बताया वही सुदर्शन सी काया वही तकिये को जकड क़र सोने की पगली सी आदत, चेहरे पर बिखरे कुछ काले सफेद बाल, विलासी अधर, तीखी क्रूर नाक, लम्बी सधी देहाकृति, खूब उजले पैर ।  एक पैर पलंग की पाटी से लटका पडा था, आधी देह उघाड रजाई भी नीचे लोट रही थी।  

''दीदी चाय ले लो, मैं जरा हॉस्टल का काम कर आऊं । '' उसका सम्मोहन तोड रघु चाय की ट्रे पकडा गया।  
''
परितोष  चाय उठो ना !''
''
उ अभी नही रघु  बाद में । ''
''
मैं रघु नही पल्लव हूं  उठो भी !''
''
इतनी सुबह तुम यहां? '' हडबडा कर परितोष उठ बैठे।
''
अच्छा न लगा हो तो चली जाऊं ? आज जाना भी है या नही , मैं बेवजह ही विदा देने तो नहीं आ गई?''
''
ऐसे ही विदा देने आना था तुम्हें तो लो मैं जाता ही नही हूं, तुम्हें भी यहीं रख खुद भी चैन से रहता हूं। ''  फिर वही आधरहीन हठ !
''
अच्छा चाय पी लो । ''
''
रख दो न टीपॉय पर ''
''
परितोष  कपडे मुस जायेंगे  प्लीज  क्लास भी लेनी है अभी। ''
''
देखो पल्लव आज सब भूल जाओ। '' प्रितोष की भुजाएं घेर कर उसे रजाई के भीतर उठा लाई।
''
चुप्प आज कुछ मत कहो , बस अंतिम बार अपनी देह से आत्मा में होकर गुजर जाने दो। ''
''
परितोष ''
''
हूं  पल्लव, अपने घर में सद्यस्नात, नम बाल लिये, सिंदूरी बिन्दी लगाये यूं तुम्हें एक बार पा लूं तो मन की बहुत पुरानी साध पूरी हो जाये। ''

बाहर ठण्डी हवा पीपल के पत्तों को सिहराये दे रही थी।  न जाने कब बन्ध खुले और निर्वसन देह सुख की वापी में सिहरती उतर गई।  जाने क्यों वह परितोष के साथ एकाग्र हो चरम सुख की सीमाएं छू आती है, यहां वह सब याद नही आता, ओह, गैस बन्द की या नही, सुबह जल्दी उठना होगा बच्चों के टेस्ट है''

परितोष के अस्तित्व में स्वयं को खोकर वह सोचती है कि देह से आत्मा और आत्मा से होकर अलग छिटक जाने की इस प्रक्रिया में अंन्तिम पडाव आये ही ना।  मत जाओ परितोष ! कहीं मत जाओ   तुम्हारी अधूरी आकांक्षाओं का आकाश होना स्वीकार है मुझे ।  

बहुत सारी क्लान्ति, पीडा देह के पोर-पोर में, और आत्मा के हर स्पंदन में लिये परितोष यात्रा की तैयारी करते हैं।  पल्लव साथ देती है।  क्लास, लाइब्ररी  और टाइपिस्ट के अपॉइन्टमेन्ट को भूल परितोष की फ्लाइट जाने तक उसके साथ है।  अब परितोष सधा  है तो पल्लव भावुक 

''डियर, यही तो अद्भुत है प्रेम में कभी स्ट्रेंग्थ देता है, कभी वीक कर जाता है। ''  परितोष ने उसे हलके से बांध लिया। ''   तू मेरे लिये जीवन दायिनी है पल्लव ।  पर अब मैं तुझे कमजोर कर अपने लिये कोई सुख नहीं मांगूगा।  तू कुछ ना भी कहेपर मैं अपराधी हूं तेरा । '' सर नही परितोष  हां पल्लव  अच्छा अब विदा दो, चार बजे हैं, सर्दियों की शाम जल्दी ढल जाती है।  
एक अटपटा सा संक्षिप्त अथ्याय जिस अप्रत्याशितता से आ जुडा था उसी तरह अधूरा सा छूट गया।  उसे अब तक यही लगता रहा कि वह उनसे जुडी क़ब वह तो मात्र उनके अधूरे सुख का आधार बनी थी।  किन्तु  यह उनका अधूरा सुख ही तो उसके अपने अवचेतन का सुख था जिसके तहत वह कई बार स्वयं से लड झगड, परितोष को कडे शब्द कह कर भी खुद को उडेल आई थी  पल्लव ! मैंने पूरा अखबार पढ लिया, बच्चों ने आकर अपना होमवर्क भी कर लिया और तुम हो कि यहां अनमनी सी बैठी हो, खाना बनाने का मन न हो तो बाहर कही चलें ?''

''हां अजित ''

लौटते समय अजित ने कहा ,

''नही संभल रहा पी एच डी का स्ट्रेस तो छोड दो !''
''
नही अजित, अब तो लास्ट चैप्टर भी लगभग टाइप हो गया है।  वायवा की डेट भी शलभ सर जल्दी ही फिक्स करवाने को कह रहे थे।  बस जरा थक गई हूं। ''
''
चलो सब ठीक हो जाएगा, कुछ दिन छुट्टी ले लो''
उस रात पल्लव ने पहल की,
''
अजित, मुझे प्यार करो 

मनीषा कुलश्रेष्ठ

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