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वनगन्ध-3 अन्तत: एक दिन वह आ ही गई। अंकल और मिनी सीधे मेरे हॉस्टल पहूँचे। अंकल को अभिवादन कर स्वयं को बहुत बडा मानते हुए उसके सर पर हाथ फेर कर मैंने उससे पूछा, कैसी हो मिनी? वह हँस पडी, निखिल भैया, अब भी मिनी ही कहेंगे? मेरे लिये तो तुम वही मिनी हो, और वही रहोगी , नाक सुडक़ती मिनी। निखिल भैया! मैं उसे गौर से देख रहा था, उस स्वस्थ युवा आकृति में ढूंढ रहा था अपनी बालसखि मिनी को। उसकी बादामी आँखे अब बडी और गहरी हो गई हैं, बचपन वाली गोल नाक अब सुघड ग़्रीक नोज में बदल गई थी। हँसी में निश्छलता, किन्तु वही बचपन वाली जानी-मानी नीरीहता उसके चेहरे पर थी। बस यही भाव था जो उस बालसखि से मिलता था किन्तु अखर भी रहा था कि आखिर यह सेल्फ पिटी या सेल्फ रिजेक्शन अब क्यों? यह स्त्री सुलभ संकोच नहीं कोई मनोग्रन्थि ही थी जो उसके बचपन के साथ ही जडें पकड अब तक बढती चली आई थी। मैं ने मिनी के कॉलेज एडमिशन और हॉस्टल के अरैन्जमेन्ट्स के लिये पूरे दिन भाग-दौड क़ी। फिर रात को हमने साथ में एक अच्छे रेस्टोरेन्ट में डिनर किया और अंकल उसी रात ट्रेन से निकल गए और मैं मिनी को उसके हॉस्टल छोड आया। लौटते वक्त मिनी ने घबरा कर मेरा हाथ पकड लिया, ''निखिल
भैया पहली बार अकेले रहना होगा,
मुझे डर लग रहा है।''
अपने हॉस्टल आने के बाद देर तक मैं उसकी बचपन से लेकर अब तक की परिस्थितियाँ विश्लेषित करता रहा। मैं उससे सप्ताहांतों पर मिलता और ढेरों हिदायतें देकर चला आता। अकेले कहीं आने-जाने की अनुमति उसे मेरी ओर से नहीं थी। उसकी स्टेशनरी, किताबें और अन्य जरूरतों की चीजें या तो मैं ला देता या कैम्पस में बने एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स से वह खरीद लेती। हर शनिवार शाम को वह मेरी प्रतीक्षा करती, कभी-कभी मैं उसे बाहर ले जाता तब वह बेहद उत्साहित रहती, उसकी आँखे हँसतीं। मैं प्रयासरत था कि उसमें आत्मविश्वास जगाऊँ, उसे अवांछित तनावों और लोगों से बचा कर रखूँ, इसीलिए उसे अनुमति नहीं दी कि वह अपने हॉस्टल की उच्छृंखल लडक़ियों के साथ बाहर घूमे। मेरा मन चाहता उसे एक बेहद संयत, स्त्री सुलभ गरिमाओं से युक्त एक दुर्लभ युवती की तरह गढा हुआ पाऊँ। वह बहुमुखी प्रतिभाओं की धनी तो थी ही, पढाई में भी अच्छी थी और आकर्षक थी जिसकी वजह से मैं उसका लोकल गार्जियन होने के नाते घबराया रहता था कि युनिवर्सिटी के इस माहौल से मैं उसे कैसे बचा कर रखूँ। कुछ समय मैं ही बदलाव दृष्टिगोचर हुआ, आत्मविश्वास से भरी उसकी बातें मुझे सुख देने लगीं थीं, मेरे विचारों से सहमति जाहिर करती तो मेरा मुझमें विश्वास बढता। मुझे लगता मैं छेनी-हथौडी लेकर एक जीवंत संगमरमरी शिला गढ रहा हूँ। पता नहीं कैसी श्रृध्दा उसके हृदय में थी कि वह आँखे मूँदे मेरा हर आदेश मानती रही। कभी-कभी मैं स्वयं आशंकित हो उठता। एक ही वर्ष में मानसी एक चुस्त, आत्मविश्वासी मानसी थी। अब वह मुझ पर पूरा अधिकार जमाने लगी थी। फिर उसने नया शगल शुरू किया कविताएं लिखना, मेरे कान खडे हुए कहीं प्रेम-व्रेम का चक्कर तो नहीं! पर वे तो मकई के कच्चे दूधिया दानों सी कविताएं थीं। इस बीच मेरी पी एच डी की थीसीस पूरी हो गई। मैं उसके मूल्यांकन और वायवा की प्रतीक्षा में था। साथ ही यूनिवर्सिटी ने असिस्टेन्ट लैक्चरर के पदों के विज्ञापन निकाल दिए थे, इधर पी एच डी की डिग्री मिलने में देर हो रही थी उधर दो वर्षों बाद ये पद विज्ञापित हुए थे। मैं तनाव में था और हॉस्टल भी खाली करना था। उस बेगाने से शहर में एक घर ढूंढना था, बडे क़ठिन दिन थे मगर आज याद आते हैं तो वह संघर्ष भी सुखकर लगता है, मुझे याद है मैं और मानसी पूरे शहर की खाक छानते रहे तब जाकर एक छोटा सा घर मिला था वह भी यूनिवर्सिटी से बहुत दूर। वह घर ढेरों जाली के झरोखों वाला था। दरअसल यह एक बहुत बडे घर का छोटा सा आउट हाउस था। ढेरों पेडों से घिरा, आगे कच्ची जमीन से घिरा दो कमरों का घर था। इस घर में एक मीठा सा एकान्त बसा करता था। गूँजती थी तो बस गौरेय्यों के नन्हे चूजों की चीं-चीं। हम दोनों को एक ही निगाह में यह घर पसंद आगया, क्योंकि हमारा बचपन सिविल लाईन्स की ऐसे ही विशाल पुराने घरों में बीता था। हमारे मकान-मालिक एक रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर थे। उन प्रौढ दम्पत्ति को मेरा वहाँ रहना एक सहारा सा लगा। मानसी का परिचय देकर मैंने उसके मेरे पास आने जाने की अनुमति उनसे ले ली थी। यहाँ रहकर मेरी गतिविधियाँ बढ ग़ईं। पढाई के साथ मैं लैक्चररशिप के इन्टरव्यू के साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा। मैंने अपनी वन्य-जीवन के प्रति रुचि को भी एक साकार तथा सार्थक रूप दिया, एक संस्था ‘प्रकृति’ बना कर। जिससे धीरे-धीरे कई स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी और कुछ उत्साहित लोग जुड ग़ए। मानसी को तो शामिल होना ही था, पर मैं नहीं चाह रहा था कि अन्य गतिविधियों की वजह से उसकी पढाई में व्यवधान आये। लेकिन अब तक उसने जबरन छीनकर और स्नेह से ठग कर मुझपर अपना अधिकार जमा लिया था। मुझे इसमें भी एक खुशी मिलती थी मेरा आखिर था ही कौन ऐसा जो मुझे इतना मान देता और मुझे अपना आदर्श मान मेरे पीछे आँखे मूँदे चलता। मैं उसे कहता भी था, अब तुम में अपनी समझ विकसित हो गई है। अब तुम असहाय पौधा नहीं एक वृक्ष हो जो स्वयं अपना पोषण कर सकता है। सप्ताहान्तों में अकसर वह मेरे घर चली आती। मैं नहीं भी मिलता तो वह अपनी वाली चाभी (जो कि मैंने ही उसे दे रखी थी) से घर खोल मेरी किताबें चाव से पढती। मैं देर शाम लौट कर आता तो पाता कि कमरा अस्तव्यस्त है, किताबें बिस्तर पर बिखरी हैं, नमकीन का डिब्बा आधे से ज्यादा खाली है और वह स्वयं मेरे बिस्तर पर बेसुध सोई है। मैं खीज-खीज कर भी हँस पडता। फिर उसे हॉस्टल के गेट बन्द होने की चिन्ता में छोडने भागता। जिन प्रतिभाओं की वजह से वह अपने कॉलेज की हर सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों में अग्रणी रहती उन्हीं की वजह से सहज ही उसके इर्द - गिर्द एक छोटी - मोटी सी भ्रमरों की संख्या आ जुटी थी, कोई सहेली का भाई तो कोई किसी का क्लासमेट। बस वही मेरा सरदर्द था। किसी भी अनहोनी की कल्पना मुझे डरा जाती, आये दिन तो लडक़ों के बीच किस्से सुना करता था। बीच-बीच में मैं उसे अप्रत्यक्षत: धमका जाता कि कुछ उसके बारे में सुना तो गार्जियनशिप छोड दूँगा। एक बार पता नहीं किस रौ में बह कर उसने मेरा विरोध किया तो मैं तिलमिला गया था। बात तो छोटी सी थी, पर मैं ही आवेश में आ गया था। वह कॉलेज के बाद अपनी एक सहेली के साथ ‘उत्सव’ फिल्म देखने चली गई। बात किसी तरह मुझ तक पहुँची, मैं जाकर उसे इन्टरवॅल के बीच उठा लाया उसकी सहेली को हॉस्टल छोड उसे घर ले आया। ''जानती
हो एडल्ट मूवी है यह।''
मैंने तो सहजता से शुरूआत की,
वह अजीब से भाव से
तन कर बोली,
यह उसका अंतिम अस्त्र था और मैं घायल शेर सा बिफर गया। कौन है यह? क्यों करूं इसकी इतनी चिन्ता, गार्जियन होने का यह अर्थ तो नहीं कि इसकी हर गतिविधि पर नज़र रखता रहूँ। आखिर मैं स्वयं पर काबू पाकर बस इतना ही कहा, ''शाम हो गई है जाओ हॉस्टल, गेट बंद हो जाएगा। अब तुम स्वतन्त्र हो, वयस्क जो हो। मेरे पास मत आना अब क्योंकि मेरे मूल्य भिन्न हैं, जिन्हें मैं तुम पर बेकार ही थोपता रहा।'' भरे हुए मन उसने सामान उठाया, सर झुका कर वह चल दी, सहसा ठिठक कर बोली, ''
सॉरी निखिल भैया,
गलती मेरी थी,
मैंने आपको नाराज क़र
दिया,
अब नहीं आऊँगी यहाँ।
'' और उस रात इस अजीब से एक-दूसरे पर थोपे अनाधिकृत अधिकारों का विश्लेषण करता रहा, कौन है वह मेरी? क्यों उस पर से अपना प्रभाव कम होता देख मैं आहत हुआ था? किन्तु शीघ्र ही मैं ने महसूस किया कि वह कई प्रकार के छोटे-मोटे विरोध करने लगी है। मैं ने इसे उसके विकसित होते व्यक्तित्व का हिस्सा मानना चाहा, पर कहीं लगा कि वह अपनी हरकतों से जानबूझ कर मेरा ध्यान आकर्षित कर रही है। न जाने कौनसी मनोवैज्ञानिक गुत्थी थी? जिसका एक सिरा मुझे मिला केवलादेव पक्षी विहार की ट्रिप के दौरान। मैं तो बस गार्जियन होने के कर्तव्य को अतिरिक्त सजगता से निभा रहा था। परिभाषाओं में ही विश्वास नहीं था मेरा, तो इस संबंध क्या नाम देता। बालसखि, बाँधवी जो भी थी बहुत प्रिय थी। किन्तु वह क्या चाहती थी यह मैं समझ कर भी नहीं समझ सका। मैं बस इतना ही जानना चाहता था कि मेरी हर बात मानने का आदेश अंकल ने उसे दिया है। उसका यूँ मुझमें लीन होते चले जाना मुझे असहज कर रहा था। उसने मेरे घर आना भी कम कर दिया, कभी आती भी तो पौधों की क्यारियाँ सवांरती, जो हमने साथ-साथ लगाए थे या अपने प्रेक्टकिल के लिये चार्टस और फाइल्स बनाती रहती। मुझसे जरूरी बातें ही करती। एक बार हम दोनों साथ पढ रहे थे तब उसने कहा था कि आप लैक्चररशिप से उपर क्यों नहीं सोच रहे? आप इण्डियन फॉरेस्ट सर्विसेज क़े लिए क्यों नहीं प्रीपेयर करते? मैंने उसे बताया कि बस एक साल और फिर वह आयु सीमा भी निकल जाएगी। अब इस एक साल मैं क्या-क्या कर लूं! फिर भी मैंने एप्लाई कर दिया था क्योंकि पापा भी ऐसा ही कुछ चाहते थे। मैं अब पूरी तरह पढाई में डूबा था। किसी तरह वायवा की डेट फिक्स हुई और लैक्चररशिप के इन्टरव्यूज से पहले ही मुझे पी एच डी की डिग्री मिल गई। इन्टरव्यूज भी हुए और अब मैं परिणामों की प्रतीक्षा में था। उसकी भी तीसरे सैमेस्टर की परीक्षाएं खत्म होकर चुकी थीं। सो एक दिन मैंने उसे फोन किया; ''केवलादेव
बर्ड सेंक्चुरी के बारे में क्या खयाल है?
'' वह बेहद उत्साहित थी। भरतपुर पहुंच कर तो एक नई पुलक उसे अस्थिर बना रही थी। वह एकदम अलग लगी, एक वनकन्या सी जिसे मैं जानकर भी नहीं जानता था। एक पालतू मुनिया जो अपने जंगल में लौट कर बौरा गई हो। वह बाँह पसारे अपना जंगल पहचान रही थी। मुझे लगा मैं उसे पहली बार देख रहा हूँ। सुघड देहयष्टि, बहुत ही प्राकृतिक आकर्षण वाला चेहरा उस पर उनमुक्त भाव। मेरी दृष्टि उसके हर क्रिया-कलाप पर थी, पर मैं उसे उपेक्षित कर रहा था हमेशा की तरह लोगों के बीच मैं कभी उसे महत्व नहीं देता था। सच पूछो तो उसकी यह स्वछंदता मुझे अच्छी ही नहीं लग रही थी, मैं उसे संयत देखना चाह रहा था। ग्रुप के सारे लडक़ों का ध्यान उस पर जा रहा था। माना सभी उत्साहित थे पर मिनी को तो मैंने संयत रहना सिखाया था। वह इधर-उधर सूखे विचित्र आकृतियों वाले तने, बया के अधूरे घोंसले इकठ्ठे करती घूम रही थी। हम सब सुबह पहूँचे और नहा-धोकर, नाश्ता कर केवला देव की झीलों में उतरे देशी-विदेशी आप्रवासी पक्षियों को देखने के लिए उत्सुक थे। हम बडे सदस्य अलग-अलग समूह बना रहे थे और बर्ड वॉचिंग के सही तरीकों पर निर्देश दे रहे थे। पर मानसी अब भी अस्थिर थी, उत्साह का अतिरेक उसे उडाए लिये जा रहा था। उसने पहले ही मान लिया था कि उसे मेरे समूह में जाना है। पर न जाने मुझे उसके इस अतिरेक उत्साह पर पानी फेरने में एक दुष्ट किस्म का मजा आया, मैंने सबके सामने उसे कडे स्वर में परितोष के समूह के साथ शामिल होने का आदेश दिया। |
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