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अंतिम
योद्धा          

भाग -5

आपने अब तक पढ़ा -

इन्द्रियलोलुप तात्कालीन देवराज इन्द्र एक अयोग्य शासक साबित हुआ एवं प्रजा के हित एवं लोकतंत्र की पुनर्स्थापनार्थ देवगुरु बृहस्पति ने अपने परम गुप्तचर स्वेताक को पाताल नरेश ( वर्तमान उ. अमेरिका ) दैत्यराज बली को आक्रमण हेतु आमंत्रित किया । इसी आमंत्रण की लाभ हानि पर विचार करते देवगुरु बृहस्पति अपने रथ पर आरुढ़ होकर उत्तर की ओर प्रस्थान करते है। नगर व दूर्वाक्षेत्रों को पार कर देवगुरु का रथ अगम वनपथ पर अग्रसर होता है।
अपहरान्ह तक उस वन को पार कर हिमश्रंगों के पास स्थित एक अत्यंत मनोरम किन्तु विशाल सरोवर के तटबंध पर रथ पहंुचता है। अश्वों के श्रम से क्लांत होने के कारण सारथि तनिक विश्राम की अनुमति चाहता है। अनुमति प्रदान कर देव गुरु स्वयं एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो जाते है।

अनायास एक चिंघाड़ से उनका ध्यान तिरोहित होता है। वन संे श्वेत गज समूह तृष्णा तृप्ति हेतु आता है एवं जलक्रीड़ाए करता है। तभी एक दल प्रमुख का पांव एक विकराल मकर जकड़ लेता है। एक प्रहर द्धन्द के पश्चात् अंततोगत्वा गज पराजित हो कर भू - लुंठित हो जाता है एवं मकर उसे जल में खींचने लगता है। तभी सहसा भीषण गर्जन के साथ एक वृताकार आग्नेय अस्त्र वन से तीव्रगति से संघानित मकर का सिर विच्छेद कर जल में समा जाता है और गज जल से बाहर आता है।) अब आगे--
दुग्धवर्णी जल मकर के रक्त से रक्तिम हो उठा था। भीषण वृताकार आग्नेयास्त्र जलसमाधि ले चुका था। देवगुरु बृहस्पति की दृष्टि उस आगम वन क्षेत्र की ओर उठी जहां आग्नेयास्त्र का संधान किया गया था। सहसा वृक्षों एवं गुम्फित पत्रों में हलचल प्रतीत हुई एवं एक धीर - गम्भीर वीर पुरुष तटबंध की ओर अग्रसर होता दृष्टिगोचर हुआ।

नीलवर्णीय उस पुरुष का चेहरा अत्यंत तेजमय था। उसके उन्नत भाल पर स्वेद बिन्दु झिलमिला रहे थे। आरवेट खेल रहे इस राजपुरुष के कर्ण कुंडल हीरक कणियों से देदीप्यमान थे। उसके नेत्र अत्यंत मोहक एवं विशाल थे। तीक्ष्ण नासिका और नयनाभिराम मुखारविन्द वाले इस संुदर परम पुरुष के कठोर ऊरु प्रदेश पर एक यज्ञोपवीत एवं उतरीय थां। उसके हस्तकमल सुदीर्घ एवं सुडौल थे। उसकी चरण पादुकाएं अत्यंत मूल्यवान् एवं रत्नजटित थी। उस तेजस्वी पुरुष के वाम पक्ष के अंस पर एक विशिष्ट प्रकार का तूणीर था जिसमें अत्यंत तीक्ष्ण विषबाण एवं उसी प्रकार के चमचमाते कुछ वृताकार आग्नेयास्त्र थे। उस पुरुष के नासापुटों से तीव्र श्वसन प्रतीत हो रहा था मानो वह समय गति को पृष्ठ में धकेल कर आया हो।    

वह कमलनयन विधुत सी गति एवं चपलता से तटबंध पर उस असहाय गज के पार्श्व में जाकर उसके विदीर्ण पांव को टटोलने लगा। कुछ निमिष पश्चात् उस दिव्य पुरुष ने उठकर एक चमकते हुए बाण का अनुसंधान कर उसे अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कर दिया। बाण के भीषण गर्जन से आहत् बृहस्पति ने दोनो हथेलियों से अपने कर्ण आवृत कर लिए । बाण तड़ित उर्जा सा आकाश में जाकर अनगिनत चमकीले रजत बिन्दुओं में बदल गया।  

कुछ ही निमिष में उतर दिशा में भीषण गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। समूचे सरोवर का जल कंपित होने लगा और देखते ही देखते एक विशाल वाहन जिसमें कई चक्र थे एवं जिसे गज खींच रहे थे वन में से प्रकट हुआ । उसमें उपस्थित अनुचरों ने तेजस्वी पुरुष को दण्डवत् किया तत्पश्चात उस घायल हस्ति को उस वाहन में चढ़ाने का प्रयत्न करने लगे। अब तक चकित बृहस्पति अचंभित थे। सहसा तेजस्वी दिव्य पुरुष की दृष्टि दूर वृक्ष तले उपस्थित बृहस्पति पर पड़ी । उसके मुखारविन्द पर एक निश्छल हास्य फैल गया जिसमें उसकी धवल दन्तावली दमक उठी ।    

बृहस्पति की ओर अग्रसर होते हुए उस धीर - वीर पुरुष ने करबद्ध अभिवादन करते एक अत्यंत कोमल एवं मधुर किंतु गंभीर वाणी में कहा-

'' देवगुरु बुहस्पति का क्षीर सागर के इस अगम क्षेत्र में विष्णु स्वागत करता है महामने!``
''
मैं धन्य हुआ तात`` बृहस्पति के नेत्र प्रेम और श्रद्धा से निलमित हो गए। उस दिव्य पुरुष ने बृहस्पति को आलिंगन बद्ध कर स्नेह प्रदर्शन किया और प्रश्न किया- ''महाभाग , पूर्वसूचना रहित इस अचानक आगमन का प्रयोजन ?``
''
तात की अभ्यर्थना मात्र ।`` बृहस्पति की वाणी कंपित थी।
''
आप सम्पूर्ण देवप्रजाति के मार्गदर्शक है प्रयोजन निश्चय ही गर्भ में है``
महातेजस्वी विष्णु के मुखारविन्द पर स्मित हास्य उपस्थित था।

''
मकर भाग्यवान था सो इन कर कमलों से मुक्त हुआ `` देवगुरु बृहस्पति उस परम पुरुष के सम्मुख नतमस्तक थे।
''
श्वेतगज दुलर्भ  प्रजाति है एवं इस अभ्यारण्य में सुरक्षित है। अत: आखेट के मध्य चिंघाड़ सुनकर मुझे इस ओर आना पड़ा ।
''
देव  का प्रकृति प्रेम अनुकरणीय है`` बृहस्पति ने विनम्रतापूर्वक कहा।
''
क्षमा करे महामना । यह सृष्टि हित है सम्पूर्ण जीवन श्रंखला की क्रमबद्धता ही हम सजीवों की सार्थकता है। इनकी समाप्ति का भय हमें असहजता एवं असुरक्षा प्रदान करता है अत: इनकी रक्षा एक उचित निवारण है।``
''
देव के विचार मनस्वी है``
''
अरे! हम यहीं पथ पर ही वार्ता करेंगें ? आज तो महामना देवगुरु मेरा आतिथ्य स्वीकार कर कृतार्थ करें `` परमपुरुष विष्णु के मुखमंडल पर स्नेह की आभा देदीप्यमान थी।
''
मै देव से चर्चार्थ ही प्रस्तुत हुआ हूं`` बृहस्पति ने स्नेह से प्रत्युत्तर दिया।
दोनो महाभाग बृहस्पति के रथ पर आरुढ़ हुए एवं रथ सरोवर के तट पर निर्मित पाषाण पथ पर अग्रसर हुआ। सम्पूर्ण निस्तब्धा मात्र रथचक्रों की गड़गहट से भंग हांे रही थी। शीतल समीर के झांेको से परम तेजस्वी विष्णु की अलकावलियां लहरा रही थी। शीघ्र ही रथ उस स्थान पर थम गया जहां पथ समाप्त हो रहा था एवं हिमश्रंगों का छोर सरोवर तट तक फैला था।
विष्णु ने प्रथम रथ से उतरते हुए देवगुरु को अवलम्ब प्रदान किया। दोनों परम पुरुष वहां उपस्थित एक नौका में विराजमान हो गए। नौका में उपस्थित नाविक ने उन्हें प्रणाम किया । नौका तीव्र गति से हिमश्रंगों के पृष्ठ भाग की ओर जाते हुए अदृश्य हो गयी।

क्षीर सागर अत्यंत शांत एवं श्रेष्ठ तड़ाग था जो हिम पर्वतांे की श्रंखला के दो ओर विस्तारित था। सरोवर तक आने वाला पथ एक निश्चित स्थान पर समाप्त हो जाता था। तत्पश्चात् महाभाग विष्णु के निवास तक पहुंचने का एक मात्र साधन नौकायन ही था।

कुछ समय पश्चात् नौका हिम पर्वतों के पृष्ठ भाग में फैले उस शांत सरोवर के मध्य स्थित एक द्धीप की ओर बढ़ रही थी जो सर्पिलाकार था। किसी उच्च शिखर से इस क्षेत्र में दृष्टिपात करने पर सघन वनस्पति  वाला यह द्धीप कुंडली लगाकर बैठें रोमिलहरित सर्प सा प्रतीत होता था। नौका प्रस्थान केन्द्र पर बने दो मणिमहल उस सर्प के नेत्र के समान दीखते थे। शीघ्र ही नौका उस द्धीप के नौकायन केन्द्र के समीप काष्ठनिर्मित स्थल तक पहुुंच गई जहां नाविक ने अत्यंत चपलता से उसे एक काष्ठ स्तंभ से पाशबद्ध किया। विष्णु व बृहस्पति नौका से काष्ठ स्थल पर उतर गए।

''सहस्त्रनाग द्धीप पर विष्णु आपका स्वागत करता देवगुरु `` वीरोचित वेशभूषा से  विभूषित कांतिमान देह के स्वामी धीर -गम्भीर विष्णु ने देवगुरु का स्वागत किया।

''मैं कृतार्थ हुआ देव`` बृहस्पति ने सम्मान पूर्वक प्रत्युतर दिया।

संध्या घिर आने से हल्का अंधकार फैल चुका था। सम्पूर्ण द्धीप विभिन्न प्रकार के दीपकालोक से जगमग कर रहा था।

''इस द्धीप पर प्रत्येक वस्तु प्रकृति प्रदत है महामना`` सम्पूर्ण दीपकों पर लगे यंत्र सूर्य के प्रकाश को ग्रहण कर स्वयं में ऊर्जा स्वरुप एकत्र करते है तत्पश्चात संध्या होते ही स्वयंमेव जगमगाहट बिखेरने लगते है।

इसी प्रकार समस्त स्नानागारों में उष्ण जल की व्यवस्था भी सूर्यप्रकाश पर आधारित है। भोजनालयों की पाकशालाओं में काष्ठ के स्थान पर सौर ऊर्जा प्रयुक्त होती है।

भवन निर्माण कला में भी द्धीप पर उपलब्ध वस्तुएं साम्रगी एवं पाषाण प्रयुक्त हुए है।``

विष्णु द्धीप व्यवस्थाओं का उल्लेख कर रहे थे एवं बृहस्पति चकित होकर श्रवण कर रहे थे।
''
यहां तक कि महाभाग को आश्चर्य होगा कि प्रयुक्त  खाध सामग्री भी द्धीप एवं इस सरोवर से उपलब्ध वस्तुओं पर ही आधारित होती है एवं वस्त्रों का निर्माण यहां पाए जाने वाले एक विशिष्ठ वृक्ष के पर्ण एवं छाल से होता है।
''
देव सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के निर्माता एवं स्वामी है`` बृहस्पति ने आश्चर्य एवं श्रद्धा से कहा।
''
हां महामना, स्वपोषित अर्थव्यवस्था स्वान्त सुखाय व परजन हिताय का मूल मंत्र है। हमें प्रकृति  से प्राप्ति का अधिकार अवश्य है किन्तु तृष्णा वश प्रकृति का विदोहन हमें लक्ष्मीवान् नहीं अपितु दरिद्र ही बनाएगा`` विष्णु के मुखारविन्द पर तेज था।    
''
समस्त देवभूमि, मनु प्रजाति एवं दानवेन्द्र आप श्री को लक्ष्मीपति की उपमा देकर आदर प्रकट करते है।`` बृहस्पति के मन में स्पष्ट सम्मान था।

शीघ्र ही दोनों महापुरुष सुंदर पथ को पार कर एक विशालग्रह में प्रविष्ठ हो गए  जो गुम्बदाकार था। उस गुम्बद में कोई वातायन नहीं था। केवल एक प्रवेश द्धार था जो स्वचालित था एवं प्रवेश करने के साथ आवृत हो जाता था। तथापि सम्पूर्ण गुम्बद में वायुसंचरण स्पष्टत: प्रतीत होता था। समताप जलवायु वाली विशिष्ठ शैली से निर्मित इस गुम्बद में अत्यंत मूल्यवान आसन लगे थे जिन पर सभी वस्तुएं प्रकृति निर्मित थी। सम्पूर्ण गुम्बद में एक धवल एवं निर्मिल प्रकाश फैला था। यह प्रकाश गुम्बद में जडे उन सहस्त्रों दीपकों का था जो सौर उर्जा प्राप्त कर आठोंप्रहार प्रकाशित होते थे।

भोजन में समस्त आहार सामग्री द्धीप पर उपलब्ध वनस्पति अथवा सरोवर में उपलब्ध सामग्री पर आधारित थी। समस्त व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट थे। भोजन के मध्य प्रत्येक कुछ पल के पश्चात गुम्बद की छत से रक्तिमवर्ण का प्रकाश सीधे भोजन सामग्री पर  गिरता था व निमिष मात्र में ही अदृश्य हो जाता ।

'' ये अंतरिक्ष में स्थित अवरक्त किरणें है जो भोजन  की उष्मा एवं गुणवता को निरंतर स्थापित रखती है। गुम्बद के शीर्ष पर स्थित विशिष्ट यंत्र द्धारा इन किरणों को एकत्र कर भोजन पर प्रसारित किया जाता है।`` विष्णु ने बृहस्पति की जिज्ञासा शमन का प्रयास किया।

''देव का पुरुषार्थ एवं कुशाग्र बुद्धि श्लाधनीय है`` बृहस्पति ने प्रशंसा की।

''सृष्टि का सम्पूर्ण सदुपयोग द्धितीय पुरुषार्थ में वृद्धि करता है महामने`` विष्णु ने मोहक मुस्कान के साथ कहा ।

भोजनोपरान्त दोनो पुरुष उस विशाल गुम्बदनुमा कक्ष के एक विशिष्ट हिस्से में आ बैठे जहां अत्यंत सुखदायी एवं सुविधा जनक आसन थे।

'' देव को विदित ही हैं, वर्तमान देवराज की कार्यशैली`` बृहस्पति मूल प्रश्न पर आ गए।

'' हां, मरुत , रुद्रादि सम्पूर्ण देव असंतुष्ट है`` विष्णु के स्वर में गांभीर्य था।

''यही नही, मनुसम्राटों से भी राजनयिक संबंध विच्छेद हो चुके है। `` बृहस्पति के स्वर में चिंता थीं। ''देवगुरु क्या प्रयास कर  रहे  है?``

''समस्त विचारकों से विभिन्न बैठकों के पश्चात स्थिति का आकलन एवं विश्लेषण कर मैं इस परिणाम पर पहूंचा हूं कि देवराज को इन्द्र पद से च्युत करना आवश्यक है`` बृहस्पति ने कहा।

''सो देवगुरु ने कार्य किया?`

''हां , अपने विश्वसनीय गुप्तचर स्वेताक को मैने पाताल नरेश दैत्यराज बली के पास भेजा है कि वे एक बार देवराज को पराजित कर वन गमन को विवश करें ``

सहसा विष्णु ने आसन के सम्मुख स्थित विशालकाय आरसी में झिलमिलाते प्रकाश बिन्दुओं पर एक यंत्र से प्रकाश प्रक्षेपण किया  और तत्क्षण ही उस पटल में एक दृश्य उभरा जिसमें स्पष्टत: दैत्यराज बली को संदेश प्रदान करते हुए स्वेताक दृष्टिगोचर हो रहा था।

''देवगुरु को प्रत्युत्तर दें कि वे निश्चिन्त रहें, शीघ्र ही इन्द्रासन रिक्त होगा``, दैत्य राज बली का स्वर गुम्बदनुमा कक्ष में गूंजा।

      विष्णु ने पुन: यंत्र से प्रकाश प्रक्षेपण किया और समस्त दृश्य समाप्त हो कर वह यंत्र सामान्य आरसी बन गया।

''महामना का संदेश स्वीकार हुआ `` विष्णु ने बृहस्पति को देखते हुए कहा।

''कदाचित परिवर्तन का यही एकमात्र मार्ग था`` बृहस्पति ने ंगंभीरता से कहा।

''किंतु दैत्यों का इतिहास कहता है कि वे प्रस्थान में विश्वास नहीं रखते । यदि बली ने विजय के पश्चात् इन्द्रासन महामना को हस्तगत नहीं किया तों ?`` विष्णु के नेत्रों में प्रश्न था।

''इसलिए मैं देव के सम्मुख उपस्थित हुआ हंू कि विकट परिस्थितियों में श्रीमान् ने ही देव प्रजाति को उबारा है। संकट आसन्न है और देव आपकी शरण है।`` बृहस्पति का स्वर कंपित था।

दिव्य पुरुष विष्णु के श्रीमुख पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट थी।

( क्रमश: )

   

- अरविन्द सिंह आशिया
क्टूबर 1, 2007

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