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पंचकन्या - 11 एक और खास बात जो कि इन कुमारियों में एक सी है वह यह कि सभी 'मातृविहीन' कन्याएं हैं। अहिल्या‚ सत्यवती और द्रौपदी का जन्म अप्राकृतिक था‚ इनमें से किसी की मां नहीं थी। हमें 'तारा' की माता के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। मन्दोदरी की माता का नाम 'हेमा'‚ बस एक परिचय भर के लिये है। मातृविहीना गंधकाली और पृथा‚ अपनी किशोरावस्था में ही अपने पिताओं द्वारा त्याग दी गईं और दोनों दो ऋषियों की दया पर छोड़ दी गईं और अविवाहित अवस्था में ही मां बन गईं और बिना किसी विकल्प के उन्हें अपने प्रथम संतान को त्यागना पड़ा। पृथा की माता के नाम का उल्लेख तक नहीं आता जब वह पिता द्वारा कुन्तीभोज को दी गई थी। जैसा कि कुन्ती की धर्म मां यानि कुन्ती भोज की पत्नी का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता और उसे केवल एक धाय द्वारा पाला गया। और अगर द्रौपदी ने अपनी मां की छवि अपनी सास में ढूंढनी चाही तो उसे दुखपूर्ण धोखे के साथ बहुपति विवाह में धकेल दिया गया जिसकी वजह से वह अनेक अश्लील अफवाहों का शिकार बनी‚ जिसकी दुर्भाग्यपूर्ण अति तब हुई जब कर्ण ने भरी सभा में उसे वेश्या कहा कि जिसका वस्त्रयुक्त और वस्त्रविहीन होना कोई मायने नहीं रखता।. जैसा कि यह उसकी पीड़ा के लिये पर्याप्त न था‚ कुन्ती ने कहा कि वह अपने पांचवे पति सहदेव का विशेष ध्यान रखे‚ मां की तरह! किसी भी अन्य स्त्री को ऐसी अजीब सी दशा से नहीं गुजरना पड़ा होगा कि‚ अभी इनसे पति की तरह इनसे सम्बन्ध रखो‚ फिर बड़े जेठ या देवर का मान दो‚ एक अन्तहीन चक्र की तरह। समानान्तर रूप से हम पाते हैं कि अहिल्या‚ सत्यवती‚ द्रौपदी को मातृत्व के गुणों में कोई महत्ता नहीं दी जाती। अहिल्या के पुत्र ने अपनी मां को छोड़ दिया और स्वयं जनक की राजसभा में रहा‚ बाद में अवश्य अपनी मां के राम द्वारा मुक्त किये जाने पर और समाज द्वारा स्वीकार किये जाने पर कुछ राहत भरे शब्द अवश्य उसने कहे। वाल्मिकी के पास माता और पुत्र के सम्बन्ध को लेकर अहिल्या और शतानन्दा के लिये कोई शब्द नहीं थे। व्यास अपने दोनों जनकों द्वारा त्यागे गये थे और उन्होंने अपने जीवित रहने का श्रेय प्रकृति को दिया। द्रौपदी के पांच पुत्र बस नाममात्र को परिचित हैं‚ जिन्हें उसने कभी पाला पोसा नहीं। उसने उन्हें पांचाल भेज दिया और स्वयं पतियों के साथ वनवास में चली गई ताकि अन्याय व अपमान के घाव कभी भर न सकें और वह उन्हें कुरेद कुरेद कर सदैव ताजा बनाए रखे। वास्तव में विद्वान‚ बंकिमचन्द्र से आरंभ करें तो सौ वर्ष पूर्व ही उन्होंने उसके मातृत्व को लेकर प्रश्न उठाया था कि अन्य पाण्डवपुत्रों ह्य घटोत्कच‚ अभिमन्यु‚ बभ्रूव्हानाहृ से अलग इन पांच पुत्रों का उल्लेख नाम के अलावा कहीं हुआ ही नहीं‚ और हो सकता है कि महाकाव्य में से काट छांट द्वारा नष्ट हो गये हों। द्रौपदी को लेकर धार्मिक विश्वास है कि उसके पुत्रों का जन्म उसके गर्भधारण करने से नहीं बल्कि गिरे हुए रक्त की बूंदों से हुआ है‚ जब उसके भयावह काली स्वरूप में‚ उसके नख ने भीम के हाथ को भेद दिया था। ये कन्याएं सार तथा तत्वरूप में कन्या ही रहीं‚ केवल कुन्ती को छोड़ किसी ने भी शायद ही मातृत्व को स्वीकारा हो। इसमें द्रौपदी का अग्निमय चरित्र हमें कुरु वंश की एक पूर्वजा रानी देवयानी की याद दिलाता है.। इच्छाशक्ति युक्त‚ अपनी मांगों को लेकर हठधर्मी‚ अपने पिता कि लाड़ली‚ मां विषयक कोई जानकारी नहीं है‚ कच के प्रति आकर्षित‚ ययाति को प्रभावशाली तरीके से विवाह के लिये बाध्य करना‚ क्रोध में अपने पिता से शिकायत कर ययाति को वृद्ध हो जाने का श्राप दिलवाना और उसके भी मातृप्रधान गुणों का कोई सबूत नहीं सिवा इसके कि उसके दो पुत्र थे। वास्तव में उनकी समानताओं में और भी गहराई है। देवयानी यानि अग्नि वेदी या यज्ञ वेदी‚ यजनासनी अर्थात यज्ञवेदी से जन्मी। यह ठुकराए जाने का और बदले में ठुकराने का गुण जो है वह उस संकेत धुन को याद दिलाना है कि कन्या केवल पुरावेत्ता की रुचि का ही विषय नहीं। यह स्मरण कराता है बंगाली स्त्री के उस संघर्ष को भी जो कि अपने मातृत्व के नये आयामों को खोज नये युग में कदम रख रही है‚ आशापूर्णा देवी की त्रिकथात्मक पुस्तक‚ प्रथम प्रतिश्रुति‚ सबर्नलता और बकुल कथा द्वारा। इनमें एक स्त्री चरित्र सत्यवती जो है उसका उसके पिता ने बालविवाह करवा कर आठ वर्ष की आयु में छोड़ दिया है। जब वह अपने पुत्र को जन्म देती है तभी उसे पता चलता है कि उसकी मां की मृत्यु हो गयी है। वह अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये शहर आकर नये शहरी परिवेश के तहत एकल परिवार में रह कर संघर्ष करती है‚ किन्तु उसकी पुत्री सुबर्ना का भी विवाह आठ वर्ष की आयु में कर दिया जाता है। इसके बाद सत्यवती विवाह समारोह से ही अनुपस्थित हो जाती है‚ और अपनी पुत्री को मातृत्व की दहलीज पर छोड़ देती है‚ वही सब दोहराते हुए जो ठुकराव स्वयं उसने भोगा था। यही तरीका फिर दोहराया जाता है जब अपनी पुत्री के जन्म के समय उसे उसकी मां की मृत्यु का समाचार मिलता है और वह अपनी नवजात कन्या के बारे में उल्लसित नहीं हो पाती। यह पितृसत्तात्मक समाज की परम्परा के अनुसार थोपी गई मातृत्वहीनता को चुनौती देने का प्रयास है चाहे इस कीमत पर ही सही कि वह एक अकुशल मां है। आशापूर्णा देवी ने यहां मातृत्व की प्राचीन परम्परा पर प्रश्न उठाया है कि स्त्री अपनी सन्तान की केवल जैविक जनक तो है‚ पर उसकी उस पुत्री के भविष्य को आकार देने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती। यह यही बताता है जो हम निश्चित रूप से इन पांच कन्याओं के विषय में सत्य पाते हैं। यहां फिर से कन्या‚ अपसराओं से एकदम भिन्न है‚स्वार्गिक नायिका जो मातृत्व के गुण से नितान्त अपरिचित ही है। उर्वशी यह बात राजा कुकूतस्था से स्पष्ट कर देती है‚ जब वह उनकी पुत्री को त्याग दिये जाने पर दुबारा सम्पर्क करता है। " ओ राजन् मेरे शरीर में कोई बदलाव नहीं होना चाहिये जब हमारी संतान पैदा हों‚ और यही उचित है मेरे लिये क्योंकि मैं एक नर्तकी और गणिका हूँ। मैं सन्तानों को पाल नहीं सकती अगर मैं उन्हें जन्म दे भी दूं तो।" यही चारित्रिक गुण मेनका में परिलक्षित हुए जब उसने शकुन्तला को जन्म देकर त्याग दिया। हानि की विषय वस्तु ' कन्या' चरित्रों में एक सी है। अहिल्या के कोई अभिभावक नहीं थे‚ पति पुत्र दोनों को खो दिया और सामाजिक बहिष्कार भी सहा। कुन्ती ने भी अपने अभिभावक खोये‚ पति को दो बार खोया‚ एक बार माद्री से विवाह पर‚ दूसरी बार माद्री की बाहों में मृत पाकर। सत्यवती ने पति खोया और दोनों राजपुत्र भी। और उसके पौत्र एक दूसरे के शत्रु निकले‚ उसने महसूस किया‚ " कि पृथ्वी के हरे भरे उर्वर दिन खो गये।" ह्य आदिपर्व 128।6हृ और वह जंगल में चली गयी‚ और अपने वंश के आत्मघात की साक्षी न बन सकी। व्यास उसके अन्त के बारे कुछ नहीं लिख सके। मन्दोदरी ने भी पति‚ पुत्र और अन्य उत्तराधिकारी खो दिये। तारा ने भी पति को खोया। दोनों ने अपने देवरों से विवाह करने को विवश हुईं जो कि उनके पति की मृत्यु का कारण बने थे। द्रौपदी बारबार अपने पतियों की उपेक्षा पाती रही। उन पांचो की कम से कम एक और पत्नी अवश्य थी‚ उसे अर्जुन कभी पूर्णत। मिला जिससे कि उसका सही अर्थों में विवाह हुआ‚ उसने ऊलूपी से विवाह किया‚ चित्रांगदा से भी और सुभद्रा तो उसकी प्रिय पत्नी थी। युधिष्ठिर ने उसे अपनी संपत्ति समझ कर दांव पर लगा दिया‚ और अंत में उसे रास्ते में अकेले मरने के लिये छोड़ दिया एक भिखारिन की तरह‚ एक दम रिक्त‚ खाली सभी अर्थों में। अमृता स्याम अपनी लम्बी कविता में पांचाली की कोप अभिव्यक्त करती हैं‚ अपने पिता की अनुमति के बिना जन्मी‚ अपने भाईयों‚ पुत्रों और सखा कृष्ण के वियोग में तरसती । द्रौपदी के पांच पति थे — पर उसका कोई न था उसके पांच पुत्र थे — पर वह कभी मां न हो सकी पांडवों ने द्रौपदी को क्या दिया? न कोई प्रसन्नता‚ न विजय की अनुभूति न पत्नी का गौरव, न मातृत्व की श्रद्धा केवल रानी होने का उच्च स्तर… वे सभी चले गये मैं रह गई इस जीवनहीन बहुमूल्य गहने के साथ एक रिक्त राजमुकुट… मेरा व्यग्र मातृत्व अपने हाथ मरोड़ता है और रोने को तरसता है।"
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