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पंचकन्या - 4
वह तो कुन्ती का ही अवैधानिक पुत्र कर्ण था जो कि धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन का परममित्र भी था‚ और भीष्म को समय समय पर चुनौती देता रहा। और सत्यवती जिसने कुरु राजवंश को दास कुल के रक्त की दिशा दे दी जिससे पौराणिक इतिहास में आकर्षक विपरीत मोड़ आ गया। विष्णु पुराण (1:13) और महाभारतह्य शांतिपर्व 59: 94) के अनुसार वास्तविक सम्राट तो वे ना था‚ जो कि ब्राह्मणों द्वारा मारा गया था क्योंकि उसने उनके आदेशों को मानने से इनकार कर दिया था। एक उत्तराधिकारी की आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने उसकी दायीं जांघ को मथा और एक छोटे कद का‚ काला‚ मोटी नाक वाला मानव उत्पन्न किया उसका नाम उन्होंने निषाद रखा और उसे जंगलों का मुखिया बना दिया‚ क्योंकि वह राजा जैसा ज़रा भी नहीं लगता था। इसी अभागे निषाद के वंश को बाद में सत्यवती के जरिये भविष्य में उसके अधिकार वापस मिले। बहुत पहले महापद्म नन्दा जब प्रतिष्ठित हुए तब वह देश की पहला शूद्र राजवंश था‚ सत्यवती दासेय (जैसा कि भीष्म उसके लिये कहते थे) ने इस कार्य को भली भांति पूर्ण किया हस्तिनापुर के रूप में। उसने विदुर को हमेशा खास तवज्जोह दी‚ जो कि व्यास और अम्बिका की निम्न जाति की दासी से उत्पन्न हुए थे‚ भीष्म को भी आगाह किया हुआ था कि वे भी दोनों राजकुमारों पाण्डु और धृतराष्ट्र के साथ ही पलें बढ़ें‚ एक भाई के समान ही और वे अपने शुद्ध व विवेक शील मत से राजमुकुट की देखभाल करें और नियोग से उत्पन्न पांडवों की रक्षा में रहें।
देवी भागवत पुराण में एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है जो कि
महाभारत में अनुपस्थित है। पाराशर और शान्तनु ही केवल सत्यवती के रूप के अधीन नहीं थे‚ और भी थे जिससे साबित होता है कि सच में वह कितनी खूबसूरत महिला रही होगी। हरिवंश ( हरिवंश पर्व 20।50–73) में भीष्म युधिष्ठिर को कहते हैं – शान्तनु की मृत्यु के बाद शोक के दिनों में कि उन्हें एक सन्देश मिला है पांचाल के उग्रयुद्ध पौरव से कि वे गन्धकाली यानि सत्यवती को उन्हें सौंप दें ढेर सारी धन सम्पत्ति के बदले में। किन्तु राज्य के मंत्री क्रोधित भीष्म को उग्रयुद्ध पर आक्रमण करने से रोक रहे हैं। क्योंकि वह अपाराजेय है बेहतर होगा कि शान्ति से बात चीत करके निबट लिया जाए। बाद में शोक दिवस पूर्ण होने के बाद भीष्म उग्रयुद्ध पर आक्रमण कर देते हैं जो कि एक दूसरी स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी शक्ति पहले ही गंवा चुका होता है। हरिवंश की यह घटना स्पष्ट करती है कि सत्यवती क्यों अपने उत्तराधिकारी के लिये बहुत इच्छुक थी‚ उसे पता था कि पड़ौसी राज्यों की लालची दृष्टि हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी विहीन राजमुकुट पर है। निर्ममता से अपने उद्देश्यों को पाने की उसकी मानसिकता हमें चन्द्रवंश की आरंभिक रानियों देवयानी और शर्मिष्ठा की याद दिलाने पर विवश करती है। चलिये फिर कुन्ती की दिशा में चलें‚ कुन्ती सत्यवती की पौत्रवधू‚ स्त्रीत्व का एक विशेष चारित्रिक अध्ययन। वह आकर्षक पाण्डु का चयन करती है स्वयंवर में‚ किन्तु शीघ्र ही उसे पता चलता है कि भीष्म ने उसकी खुशियों पर माद्री से भी पाण्डु का विवाह करा कर तुषारापात कर दिया है। जब पाण्डु वन में तपस्या के लिये जाते हैं तब कुन्ती खुशी खुशी अपने नपुंसक पति के साथ जाने की इच्छा प्रकट करती है‚ किन्तु वन में पहुंच कर वह स्वयं को बहुत ही भयावह स्थिति में पाती है जब उसका प्रिय पति उसे बाध्य करता है कि तुम दूसरे पुरुषों से संर्सग कर मुझे एक के बाद एक पुत्र दो। पहली बार तो कुन्ती सख्ती से यह कह कर मना कर देती है कि‚ " मैं विचारों में भी पर पुरुष का संर्सग नहीं कर सकती।(आदिपर्व 120 – 124)। हालांकि विडम्बना की बात तो यह है कि वह पहले ही से सूर्य के साथ संर्सग कर कर्ण को जन्म दे अपना कौमार्य पुन: प्राप्त कर चुकी थी। यह इस बात का साक्ष्य है कि वह यह प्रण कर चुकी थी कि वह अपनी पवित्र प्रतिष्ठा को बनाये रखेगी। इसीलिये वह अपने विवाह पूर्व जन्मे पुत्र के बारे में बता कर अपनी दादी सास सत्यवती से प्रतिस्पर्धा न कर सकी थी। राजमुकुट पाने के लिये वह अपने पति की राह में कोई बाधा नहीं चाहती थी‚ इसलिये उसने अपने पति पाण्डु को अपने पुत्र कर्ण के बारे में कुछ नहीं बताया था जबकि वह पुत्रों की कई श्रेणियों का वर्णन कर रहा था‚ उनमें पत्नि के विवाह से पहले जन्में पुत्र का भी ज़िक्र था। अपने पति की अनुमति से प्राप्त बच्चे‚ विवाह से पूर्व किशोरावस्था के समय एक निर्दोष राजकुमारी के यौन कुतुहल वश जन्मा एक बच्चा दो एकदम ही विपरीत विषयात्मक बातें हैं। उसमे पाण्डु से इच्छा प्रकट की कि काश वे एक सम्पूर्ण उदात्त वीर पुरुष होते और अपनी मृत्यु का भय न कर उसके साथ एक बार संसर्ग करते‚ व्युशिताश्व की तरह होते जो कि यौनप्रक्रिया में कुछ अधिक ही रत होने की वजह से शीघ्र ही उसी अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ था‚ बिलकुल वैसे ही जैसे कि पाण्डु के पिता… पर उनकी पत्नी भाद्रा ने उनके शव के संसर्ग से ही सात पुत्रों को जन्म दिया था। किन्तु पाण्डु ने कुन्ती के साथ इस मृत्यु के कगार पर पहुंचा देने वाले संसर्ग के लिये एक दम ही मना कर दिया ( हालांकि वास्तव में बाद में वह माद्री के साथ यही कर बैठे थे और यह इच्छा प्रकट की कि कुन्ती वही करे जिसकी कि कुरु वंश द्वारा अनुमति प्राप्त है ( 122।7)‚ और यह रीति एक पति के साथ ही प्रतिबद्ध होने की नई है‚ और औरों से पुत्र प्राप्त करने की परम्परा के तो कई उदाहरण हैं – शारदान्दायनी‚ मदयन्ती‚ अम्बिका‚ अम्बालिका।) यहां वह आश्चर्यजनक रूप से बहुत उचित और अपनी ही पूर्वजा माधवी का उदाहरण देना भूल गया) अन्तत।: वह पति की आज्ञा पालन करने के सम्बन्ध में शिवकेतु की एक स्तुति सुनाता है। वह स्त्री जो बच्चों को जन्म देने की पति की आज्ञा का उल्लंघन करे वह शिशुहत्या की अपराधिनी है।(122।19) इससे कुन्ती पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह पति के भ्रू संकेतो पर नहीं उठती बैठती है‚ उसका चरित्र कहीं ज्यादा मजबूत है अपने पति की अपेक्षा। वह तभी समर्पण करती है जब पाण्डु उससे दीनता से निवेदन करते हैं। " हे मधुर सौन्दर्य की स्वामिनी मैं करबद्ध होकर अपनी कमल की पंखुरी समान उंगलियां बांध प्रार्थना करता हूँ कि मेरी बात सुनो! ( 122।29) यहाँ देखें उसकी शुद्ध शालीनता और उसके उत्तर में छिपी उसकी मानसिक शक्ति को। हे भारत श्रेष्ठ! महाअधर्म है यह कि पति बार बार अपनी एक इच्छा के लिये निवेदन करे। क्या यह पत्नी का धर्म नहीं कि वह उसकी इच्छाओं का पूर्व ज्ञान रखे? ( 122।29) जब पाण्डु किसी उत्कृष्ट ब्राह्मण के पास जाने को कहता है तो वह अपनी मधुरता से अपने स्त्रीत्व को प्रभावी करते हुए‚ यह उजागर करती है कि उसके पास ऐसा वरदान है कि वह अपनी शक्ति से किसी भी देवता तक को अपनी शायिका पर आमन्त्रित कर सकती है। वह अपनी सास की तरह अपना अंतिम अस्त्र प्रयोग करती है‚ जैसा कि उन्होंने अंतिम चरण पर भीष्म के सामने व्यास को लाकर किया था‚ किन्तु कुन्ती अपने मंत्र का रहस्य तभी पाण्डु पर उजागर करती है जब पाण्डु उसके सामने नत हो जाते हैं। |
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