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पंचकन्या - 2
तारा‚
बाली की पत्नी वह अगली कन्या है जिससे हम
रामायण में मिलते हैं‚
एक विदूषी‚
दूरंदेशी और आत्मविश्वासी स्त्री। जब सुग्रीव दूसरी बार बाली को चुनौती
देने आता है तो वह बाली को चेताती है कि अगर सुग्रीव हार जाने के बाद भी
दुबारा आया है तो इसके पीछे कोई छल भरी भूमिका है‚
क्योंकि अच्छी तरह से हार जाने और मात खाने के इतनी जल्दी कोई भी शत्रु
वापस लड़ने नहीं आता। और उसने सुन भी रखा था कि वह राम का मित्र बन गया है।
किन्तु उसकी राय को बाली ने नहीं माना और बाहर गया तथा राम के बाण का शिकार
हो गया। किन्तु पुत्र अंगद के भविष्य को ध्यान में रखते हुए और उसे पिता की
छाया से वंचित न करने की चाह से ही वह अपने ही पति के भाई सुग्रीव की
सहगामिनी बन गई। जब लक्षमण किश्किंधा के अन्त:पुर में अचानक धड़धड़ाते हुए गुस्से में
प्रविष्ट हुए तब तारा ही थी जिसे सुग्रीव ने क्रोधी शेषनाग के अवतार
लक्ष्मण को संभालने के लिये भेजा था। तारा ने लक्ष्मण का अर्धोन्मिलीत
नेत्रों‚
अस्थिर चाल से –
सुन्दर कमनीय लज्जारहित तारा ने उनके क्रोध को शान्त तथा उन्हें
अस्त्रविहीन कर दिया। उसने कोमलता से उन्हें झिड़का कि वे कामावेग की असीमित
शक्ति से अज्ञात हैं‚
जो कि बड़े से बड़े ऋषियों को भी डिगा दे‚
जबकि सुग्रीव तो एक किंचित वानर मात्र है। तारा निर्भीक होकर कहती रही कि
यह भर्त्सना न्यायोचित नहीं है और उसने विस्तार से बताया कि सेना को
एकत्रित करने का कार्य सुचारु रूप से चल रहा है‚
आप क्रोधित न हो। अब हम बात करते हैं मन्दोदरी की जो कि वाल्मिकी की रामायण की अंतिम कन्या चरित्र है। किन्तु समस्या तो यह है कि वाल्मिकी जी ने अपने महाकाव्य में मन्दोदरी के बारे में बहुत ही कम लिखा है‚ सिवा इसके कि वह बार बार अपने पति से सीता को राम को वापस लौटाने का आग्रह करती है। और बार - बार उसने सीता को रावण की कुदृष्टियों और स्पर्शों से बचाया भी। आगे उसने तारा की ही भांति अपने पति के शत्रु और भाई से विवाह कर लिया था‚ या तो राम के आग्रह से अथवा अनार्य राजाओं की प्रथा के अनुसार कि विजयी राजा हारे हुए राजा की रानी से विवाह करता है। ‘अद्भुत रामायण’ से हमें कुछ और आन्तरिक जानकारियां मिलती हैं। यहाँ मन्दोदरी रावण की आज्ञा का उल्लंघन करती है‚ उस पात्र में से घूंट भरने को मना कर देती है‚ जिसमें रावण ने तपस्या के लिये रक्त एकत्र कर रखा था। इस कृत्य द्वारा वह साबित कर देती है कि वह अपने पति की परछांई मात्र नहीं। यहां इस बात का भी वर्णन मिलता है कि कुन्ती की ही भांति मन्दोदरी गर्भवती हुई और उसने अपने नवजात शिशु को त्याग सुदूर क्षेत्र में भिजवा दिया था। यह क्षेत्र राजा जनक का था‚ जहां हल चलाने पर अनाथ सीता पाई गई थी। इस घटना के प्रकाश में देखा जाए तो यह आश्चर्यनक नहीं है कि हनुमान ने गलती से मन्दोदरी को रावण के महल में विचरते देख उन्हें सीता समझ लिया था। तारा और मन्दोदरी दो समानान्तर पात्र हैं‚ जिन्होंने अपने अपने पतियों को समय रहते चेताया था और उन्होंने उनकी राय न मानने पर अन्तत: पर्याप्त परिणाम भुगते भी। फिर दोनों ने अपने पति की मृत्यु के बाद पति के भाई तथा शत्रु को पति रूप में स्वीकार भी किया। ताकि वे अपना राज्य को सुरक्षित रख सकें और अयोध्या के मित्र राष्ट्र बनकर रहें‚ और उनका राजकार्यों में अधिकार पूर्ववत बना रहे। तारा और मन्दोदरी दोनों ही को अपने शक्तिशाली पति बाली और रावण की मात्र छाया की तरह वर्णित नहीं किया जा सकता। महाभारत में द्रोपदी और कुन्ती महज सास - बहू ही नहीं थे बल्कि चरित्रों में एक दूसरे के समानान्तर पात्र थे। वृश्निक के शूरा ने अपनी पुत्री पृथा को अपने सन्तानहीन मित्र कुन्तीभोज को गोद दे दिया था। यह कसक कुन्ती के भीतर हम तब पाते हैं जब कुरुक्षेत्र युद्ध समाप्त होने पर वह कर्ण के जन्म की बात को स्वीकार करती है.। जब वह कुन्तीभोज के महलों में बड़ी होने लगी तो वहां मां के न होने का अभाव उसे खलता था और बाद में किशोरावस्था में उसे दुर्वासा ऋषि को सौंप दिया गया जो कि बहुत सी विषमताओं के केन्द्र थे‚ और अत्यधिक चिढ़चिढ़े थे। और उसके पिता ने उसे आदेश दिया था कि उन्हें वह अप्रसन्न ना करे इसमें उसका और उसके वंश का अपमान होगा। जन्म से ही सुन्दर व कुशाग्र पृथा अपने नाम को सार्थक करती थी‚ वह अतीव सुन्दरी थी इसलिये कुन्तीभोज ने उसे सतर्क कर रखा था कि अपनी सुन्दरता के घमण्ड में अपने कर्तव्यों को कभी उपेक्षित ना करे। बाद में चार देवताओं और एक मानव ने खुशी - खुशी उसके आमन्त्रण को स्वीकार किया। शूरा और कुन्तीभोज के कुन्ती के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटने का ही परिणाम था कर्ण का जन्म‚ जिससे वे अपने जीवन में मस्त हो कर आजन्म अनजान ही रहे। कुन्ती अहिल्या की ही तरह उत्सुक थी। वह दुर्वासा के वरदान को परख कर देखना चाहती थी कि क्या वह सच होगा? सूर्य की चमक से प्रभावित हो तथा उसे मन से ग्रहण कर सूर्योदय के समय वह मंत्रोच्चार से सूर्य को आमंत्रित करती है। सूर्य इन्द्र ही की तरह असंतुष्ट नहीं लौटेंगे यह निश्चित है। वह फुसला और धमका कर विवाह योग्य कुन्ती को उसके अक्षत कौमार्य को क्षति न पहुंचने देने का वचन देता है और मना करने पर राज्य छीन लेने की धमकी देता है। स्वयं की कामना और सूर्य की शक्ति के भय की वजह से जहां कुन्ती एक ओर विरोध करती है वहीं यह मांग भी करती है कि इस मिलन से जो संतान पैदा हो वह पिता सूर्य के समान ही तेजस्वी हो। क्षीरोदेप्रसाद विद्याविनोद ने अपने बंगाली नाटक नरनारायण (1926) में संक्षिप्त मगर बहुत प्रभावशाली वर्णन कर्ण के मुख से करवाया है। "
एक स्त्री का गलत कदम
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एक देवता की कामुक उत्सुकता कुन्ती सूर्य के साथ अपने इस सम्पर्क से दो वरदान प्राप्त करती है। अक्षत कौमार्य का वरदान और पुत्र के लिये विशेष गुण और शक्ति। इस सबमें कुन्ती अपनी दादी सास सत्यवती‚ और माधवी जो कि चन्द्रवंश के राजा ययाति की पुत्री थीं और यादव वंश की भानुमती के सदृश है जिसे भी वरदान प्राप्त था कि अगर बलात्कार हुआ तब भी वह कुमारी रहेगी। |
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